पारीछा थर्मल पावर प्रोजेक्ट राख ने नर्क बना दी जिंदगी


बुंदेलखंड के वाशिंदों को विकास के नाम पर विनाश के भंवर जाल में उलझाने का खेल खेला जा रहा है। झांसी मुख्यालय से 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पारीछा थर्मल पावर स्टेशन की गगनचुंबी चिमनियों से निकलने वाली राख ने आसपास के गांवों में रहने वाले हज़ारों लोगों की ज़िंदगी नर्क कर दी है। राख ने क्षेत्र की उपजाऊ ज़मीन बंजर बना दी है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की क्षेत्रीय इकाई ने भी इस संदर्भ में ख़तरनाक चुप्पी साध रखी है। पर्यावरण रक्षा के लिए बने क़ानून स़िर्फ किताबों में सिमट कर रह गए हैं। बुंदेलखंड में एक कहावत बहुत प्रचलित है, जबरा मारे और रोने न दे। यही कहावत यहां चरितार्थ हो रही है। पिछले दिनों पारीछा थर्मल पावर स्टेशन की विस्तार इकाई की चिमनी गिर जाने से कई मज़दूरों की मौत के बाद सुर्ख़ियों में आया यह क्षेत्र हमेशा से प्रशासनिक आतंक और राजनीतिक उदासीनता के कारण गुमनाम सा रहा है। सत्ता पाते ही यहां के वाशिदों के दु:ख-दर्द भूल जाने वाले नेताओं के कारण बुंदेलखंड लगातार पिछड़ता चला गया। भुखमरी की कगार पर पहुंचे लोग आवाज़ उठाने की भी हिम्मत नहीं बटोर पा रहे हैं।

थर्मल पावर प्लांट से निकलने वाली राख ने पारीछा एवं रिछौरा गांव का जनजीवन अस्त-व्यस्त कर रखा है। पारीछा और रिछौरा ही नहीं, बल्कि बेतवा के उस पार बसा गांव उजियान भी राख से फैल रहे कहर का शिकार है। इन गांवों में साफ हवा में सांस लेने की लड़ाई वर्ष 1988 से चल रही है। थर्मल पावर प्रबंधन, ज़िला प्रशासन, जनप्रतिनिधियों, ऊर्जा मंत्री एवं प्रदूषण नियंत्रण विभाग द्वारा सुनवाई न किए जाने पर ग्राम प्रधान ठाकुर मंशाराम ने दिल्ली जाकर यहां के लोगों की व्यथा तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जियाउर्रहमान अंसारी को सुनाई थी, लेकिन दो दशक से अलग बसाहट की मांग कर रहे लोगों के दर्द की ओर शासन-प्रशासन ने कोई ध्यान नहीं दिया।

क्षेत्र के कई लोग कैंसर और सिल्कोसिस जैसी जानलेवा बीमारियों के शिकार हैं। पारीछा और रिछौरा गांव, जो थर्मल पावर स्टेशन की बाउंड्री से सटे हैं, की परेशानी यह है कि बिजली उत्पादन के लिए जो कोयला पीसा जाता है, उसकी धूल यहां फैलती रहती है। यहां सांस लेना और घर के बाहर बैठना तक दूभर है।

क्षेत्र के कई लोग कैंसर और सिल्कोसिस जैसी जानलेवा बीमारियों के शिकार हैं। पारीछा और रिछौरा गांव, जो थर्मल पावर स्टेशन की बाउंड्री से सटे हैं, की परेशानी यह है कि बिजली उत्पादन के लिए जो कोयला पीसा जाता है, उसकी धूल यहां फैलती रहती है। यहां सांस लेना और घर के बाहर बैठना तक दूभर है। इस समय यहां रोज लगभग दस हज़ार टन कोयले की खपत होती है। रिछौरा की क्रांति देवी कहती हैं, यहां लोग घुट-घुट कर ज़िंदगी जी रहे हैं। वहीं प्यारे लाल जानना चाहते हैं कि ज़िला प्रशासन की अनुशंसा के बावजूद इस गांव के विस्थापन पर विचार क्यों नहीं हो रहा? मालूम हो कि वर्ष 2005 में तत्कालीन ज़िलाधिकारी एम के एस सुंदरम ने ऊर्जा विभाग के प्रमुख सचिव को पत्र लिखकर साफ कहा था कि इस समस्या का इलाज दोनों गांवों के विस्थापन के अलावा और कुछ नहीं है। नेताओं और शासन-प्रशासन के आश्वासनों से खीजे राम स्वरूप कहते हैं कि यहां बहलाने के अलावा और कोई बात आज तक होते ही नहीं देखी। गांव वालों की नाराज़गी जायज़ है।

इसी तरह रामकली कहती हैं, आजिज आ गए हैं इस तरह की ज़िंदगी जीते हुए। सूर्योदय के साथ घर-आंगन से कोयले की धूल समेटने की जो शुरुआत होती है, रात को सोते समय ही मुक्ति मिलती है। वर्ष 2004 में तत्कालीन अपर ज़िलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) सुरेंद्र विक्रम ने तहसीलदार को निर्देशित किया था कि पारीछा और रिछौरा गांव के जिन ग्रामीणों की आवासीय और कृषि भूमि अधिग्रहीत की जानी है, उनसे सहमति पत्र ले लिया जाए। पता नहीं यह आदेश किस फाइल में दबा पड़ा है। रिछौरा के हरदयाल कहते हैं कि आश्वासनों से कब तक भरमाती रहेगी सरकार? न जाने कितने आश्वासन मिल चुके हैं, पर समस्या का समाधान आज तक नहीं हुआ। यह स्थिति तब है, जब प्रशासनिक अधिकारियों के साथ-साथ थर्मल पावर प्रबंधन भी मानता है कि दोनों ही गांवों का अधिग्रहण किया जाना ज़रूरी है। केंद्रीय ग्रामीण विकास राज्यमंत्री एवं स्थानीय सांसद प्रदीप जैन आदित्य ने विधायक रहते हुए तो अनेक बार यह समस्या विधानसभा में उठाई, लेकिन सांसद बनते ही इसे राज्य सरकार का मामला बताकर उन्होंने अपना पल्ला झाड़ लिया।

बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष राजा बुंदेला कहते हैं कि बुंदेलखंड के शांत वातावरण में ज़हर घोल रहे क्रशर उद्योग के बाद तापीय विद्युत परियोजनाओं के माध्यम से यहां के लोगों के जीवन में अंधेरा करके महानगरों को रोशन करने की कवायद की जा रही है। पहले इसे अंग्रेजों ने छला, अब अपने ही छल रहे हैं। उन्हें बुंदेलखंड के लोगों से कोई लेना-देना नहीं है। चाहे प्रदूषण फैले या जल दूषित हो। वे तो बिसलरी का पानी पीकर आते हैं और यहां जब तक रहते हैं, वही पानी पीते हैं। दो दिन पारीछा से प्रदूषित होने वाले बेतवा के पानी को पिएं तो वे जानेंगे कि हमारा दर्द क्या है, लेकिन उन्हें इतनी फुर्सत कहां? ज़िला प्रशासन को भेजे गए एक पत्र में पारीछा थर्मल पावर स्टेशन के मुख्य महाप्रबंधक ने स्वीकार किया है कि प्रदूषण की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसके बाद भी गांव वालों की बात सुनने के लिए कोई तैयार नहीं। क़रीब 25 सालों से लड़ रहे ग्रामीणों के सामने स़िर्फ साफ हवा में सांस लेने की चुनौती नहीं है, अपितु पारीछा डैम के पास बेतवा में लगभग 15 से 20 फीट तक सिल्ट जमा हो गई है। एक समय यहां क़रीब 30 फीट की गहराई तक पानी हुआ करता था।

रिछौरा गांव के अशोक कहते हैं, प्रदूषण के चलते अब तो 10 से 15 फीट बाद ही ज़मीन की सतह मिल जाती है। बांध में सिल्ट जमा होने की वजह पानी के साथ लगातार बहकर आने वाली मिट्टी के अलावा अन्य पदार्थ भी होते हैं। वजह, पारीछा थर्मल पावर प्रोजेक्ट में बिजली बनाने के लिए जलाए गए कोयले की राख बेतवा में बहाई जा रही है। दरअसल बिजली बनाने के लिए भाप बेतवा के पानी से तैयार होती है। इस पानी को इस्तेमाल करने के बाद थर्मल पावर इसे वापस नदी में छोड़ देता है। हालांकि उसने कोयले की गीली राख नदी में जाने से रोकने के लिए अपने परिसर में तीन एश डंपयार्ड बना रखे हैं, लेकिन यह महज खानापूर्ति है। जब आपकी ऩजर एक छोटी नाली के ज़रिए निकलने वाले पानी पर पड़ेगी तो पता चलेगा कि बेतवा नदी किस तरह प्रदूषित हो रही है। थर्मल पावर प्रबंधन इस बात से इंकार करता है कि राख से बेतवा प्रदूषित हो रही है। इसके लिए वह अपने यहां बने एश डंपयार्ड की जानकारी देते हुए इस संदर्भ में बरती जा रही सावधानियां गिनाना शुरू कर देता है।

उधर तथ्य साफ-साफ बताते हैं कि प्रदूषण के लिए थर्मल पावर ज़िम्मेदार है। सिंचाई विभाग ने वर्ष 2006 में एक पत्र लिखकर थर्मल पावर प्रबंधन से जानना चाहा कि उसने चार साल पहले एक और डंपयार्ड बनाने का आश्वासन दिया था, उसका क्या हुआ? इस सवाल का जवाब आज तक विभाग को नहीं मिला। जानकार बताते हैं कि बेतवा नदी के प्रदूषित होने की शुरुआत 1998 से हुई थी, तबसे लेकर आज 13 वर्ष बीत गए, लेकिन लगता है कि जैसे भगवान राम को बुंदेलखंड में चौदह वर्ष का वनवास काटना पड़ा था, शायद उसी तरह रिछौरा-पारीछा में रहने वाले लोगों की ज़िंदगी का अंधेरा दूर करने के लिए कोई आए, क्योंकि छतरपुर (मध्य प्रदेश) और ललितपुर (उत्तर प्रदेश) में भी दो पावर प्रोजेक्ट लगाने की तैयारियां शुरू हो गई हैं। इसलिए अब सिर्फ पारीछा-रिछौरा ही नहीं, ललितपुर में लगने वाले बजाज हिंदुस्तान के पावर प्रोजेक्ट से प्रभावित लोग भी इस लड़ाई में साथ होंगे, तब शायद यहां की ज़िंदगी में जहर घोल रही राख से मुक्ति मिल सकेगी। और तब तक यहां के लोगों को सब्र से काम लेना होगा।
 

 

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