पांव फिर धोने लगी पांवधोई

• पांव धोई नदी की सफाई की शुरुआत सात हजार ट्रक कचरा निकाल कर की गई।
• धार्मिक सौहार्द्र और सरोकारों के कारण शहर के जनमानस में रची-बसी रही है पांवधोई।
• वर्षों से हजारों लोग विभिन्न पर्वों पर बाबा लालदास बाड़ा, पुल खुमरान, पुल दालमंडी और बुद्धूघाट पर स्नान कर पुण्यलाभ अर्जित करते रहे हैं।
• वैज्ञानिक तौर-तरीकों से साफ-सफाई के लिए रुड़की आईआईटी और कई पर्यावरणविदों ने अहम भूमिका निभाई।

सहारनपुर की नदी पांवधोई पिछले 40 वर्षों से प्रदूषित है, वह नदी कम थी शहर के बीचों-बीच बहने वाला नाला बन चुकी थी। जब इसकी साफ-सफाई की बात उठाई जाती तो लोग यही कहते कि अब यह कभी साफ नहीं होगी। लेकिन आज यह नदी साफ हो गई है। 35 साल बाद इसमें केवट लीला भी हुई। नदी की साफ-सफाई की हिम्मत दिखाई सहारनपुर के जिलाधिकारी आलोक कुमार ने। वैसे भी पांवधोई अपने धार्मिक सौहार्द्र और सरोकारों के कारण शहर के जनमानस में रची-बसी रही है। वर्षों तक शहर के हजारों लोग बैशाखी व सोमवती अमावस्या सहित विभिन्न पर्वों पर बाबा लालदास बाड़ा, पुलखुमरान, पुल दालमंडी और बुद्धूघाट पर स्नान कर पुण्यलाभ अर्जित करते रहे हैं।

आलोक ने कभी नदी का वह दिन भी देखा था जब नदी के किनारे मेला लगा करता था, सुबह-सुबह दादी-नानी, बूढ़ी महिलाएं खास व्रत-त्यौहार पर यहां स्नान के लिए आती थीं। लेकिन अब न नदी के किनारे मेला था और न वह हो-हंगामा था, बस था तो गंदगी का ढेर, जहां से सिर्फ बदबू ही आती थी। लेकिन यह नदी इतनी गंदी कैसे हुई, यह किसी नेजानने कि कोशिश नहीं की। बस, सभी प्रशासन को कोसते थे। लेकिन सहारनपुर में जिलाधिकारी बन कर आए आलोक कुमार ने प्रण किया कि वह नदी को साफ करके रहेंगे और पहले चरण में नदी काफी हद तक साफ भी हो गई है। नदी को साफ करने केलिए न केवल प्रशासन को बल्कि नन्हें-मुन्नों तक को शामिल किया गया। पर्यावरणविदों से लेकर नन्हें मुन्नों, शहरवासियों, जन जागरण रैलियों, नुक्कड़ नाटकों के माध्यमों से लोगों के अंदर बीमार मां के प्रति संवेदनाएं जगाई और फिर लोग जुड़ते गए कांरवां बनता गया।

सहारनपुर को अपने पावन पवित्र जल से सिंचित करने वाली इस सदा नीरा नदी के नामकरण को लेकर कई धारणाएं हैं, बाबा लालदास के शिष्य महंत भरतदास के अनुसार गंगा की पवित्र धारा जब बाड़ा लालदास पहुंची तो सबसे पहले उसने योगी बाबा लालदास के चरणों को धोया, उसके बाद ही यहां स्थित जलाशय को अपने में समेटते हुए आगे गई थी, इसलिए इसका नाम पांवधोई पड़ा था। इसकी पांवधोई होने की वजह एक और है कि यह कभी भी सूखी नहीं। अकाल की स्थिति में भी इसमें भी पांव धोने जितना पानी अवश्य रहा। वैसे लोगों का यह भी कहना है कि यह नदी शुरू में पूर्व की दिशा में रही हैऔर अब पश्चिम की ओर खिसक रही है। पहले जो भी लोग शहर में प्रवेश करते, पहले इस नदी में पांव धोते थे। इसलिए इसका नाम पांवधोई पड़ा।

नदी की साफ-सफाई के लिए बात तो वर्षों से हो रही थी लेकिन बात होती थी और खत्म हो जाती थी। एक दिन आलोक की बात अपर जिलाधिकारी डॉ. नीरज शुक्ला से हुई कि 12 मई 2010 के दिन पांवधोई को पुनः नदी के रूप में लाना है। यह एक बहुत बड़ीचुनौती थी क्योंकि वैज्ञानिक दृष्टि अपनाते हुए इसे साफ करना था। इसकी साफ-सफाई से अधिक जरूरी था पैसा लेकिन उससे भी अधिक जरूरी था लोगों के दिल में नदी के प्रति आस्था जगाना और उसकी महत्ता को समझाना। कई महीनों तक चिंतन बैठक हुई, सांस्कृतिक कार्यक्रम, नाटक हुए, रैलियां निकाली गईं और सफाई अभियान चलायागया। वैज्ञानिक तौर-तरीकों से साफ-सफाई के लिए रुड़की आईआईटी और कई पर्यावरणविदों ने भी अहम भूमिका निभाई।

पांवधोई सफाई अभियान की शुरुआत कैसे की जाए, यह एक बड़ा विषय था। काफी सोच-विचार के बाद यह तय किया गया कि बाड़ा बाबा लालदास घाट से ही सफाई अभियान की शुरुआत की जाए। इसके लिए पांवधोई बचाओ समिति का गठन किया गया। नदी की सफाई की शुरुआत सात हजार ट्रक कचरा निकाल कर की गई और कचरा निकाल कर उसे सही जगहों पर निष्पादित कराया गया। नदियों के किनारों पर जाल लगवाया गया, कॉलोनियों का कूड़ा- करकट, सीवेज और मल, सब नदी में गिराया जा रहाथा। सभी को बंद किया गया। रुड़की प्रौद्योगिकी संस्था के साथ-साथ पर्यावरणविदों की सहायता से नदी के किनारों पर आयुर्वेदिक पौधे लगाए गए, जिससे नदी की साफ-सफाई के साथ पानी में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ने लगी।

इस नदी की साफ-सफाई की गाथा ‘गाथा पांवधोई की’ में वर्णित है। वैसे जिलाधिकारी आलोक कुमार की पहल सराहनीय है और उन्हें पांवधोई समिति का जीवन पर्यन्त अध्यक्ष घोषित किया जाना भी सराहनीय है लेकिन ‘गाथा पांवधोई की’ में संपादक डॉ. वीरेंद्र आजम ने उनकी तारीफ जरूरत से ज्यादा कर दी है। 100 पृष्ठों की इस किताब में नदी की साफ- सफाई में उपयोग की गई तकनीक का विवरण न के बराबर है। वहीं रुड़की प्रौद्योगिकी संस्थान के वैज्ञानिकों और विद्यार्थियों ने नदी की साफ-सफाई के लिए कौन सी वैज्ञानिक तकनीक का उपयोग किया, यह भी कोई खास नहीं बताया है।

आजम साहब का किताब लिखने का प्रयास तो सराहनीय है मगर इससे भी अधिक सराहनीय है सहारनपुर निवासियों का जज्बा, जिन्होंने मिल कर नदी को साफ करने का बीड़ा उठाया।

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