पृष्ठभूमि
तटबन्धों के निर्माण के पहले, और उसके बाद भी कृषि तथा पशुपालन इस इलाके के लोगों का मुख्य पेशा रहा है। बाढ़ नियंत्रण पर काम करने के पहले या यूँ कहें कि तटबन्धों के निर्माण के पहले नदी उन्मुक्त हो कर विभिन्न धाराओं में बहती थी और कोसी नदी का पानी इन की बहुत सी धाराओं से होकर बह कर जाया करता था और उनका लेवल एक तरह से नियंत्रित रहता था। इतनी परेशानी जरूर थी कि कब किस धार में ज्यादा पानी आ जायेगा उसका अन्दाजा लोगों को नहीं लग पाता था।
अभी तक हमने कोसी परियोजना से प्रभावित जिलों में सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया है। इस अध्याय में हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि इन बाढ़ नियंत्रण और सिंचाई योजनाओं का सीधा असर किस प्रकार यहाँ के रहने वालों पर पड़ा है। किस तरह से यह सारी समस्यायें एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँची हैं और कैसे उन्होंने, हो सकता है, एक स्थान पर लोगों को फायदा पहुंचाया मगर दूसरी जगह के लोगों को परेशान किया है और कभी-कभी तो योजनाओं का फायदा उन लोगों को भी नहीं हुआ जिनको ध्यान में रख कर यह योजनाएं बनाई गई थीं। हम अध्याय-3 और अध्याय-8 में पहले ही देख आये हैं कि किस तरह समाज के एक तबके को मजबूर किया गया कि वह बाकी के लोगों के विकास की कीमत अदा करे। यहां हम तथाकथित विकास की कीमत अदा करने वालों के जीवन के उन सभी पहलुओं को छूने की कोशिश करेंगे जिन्हें इन योजनाओं ने प्रभावित किया है।जीविकोपार्जन
तटबन्धों के निर्माण के पहले, और उसके बाद भी कृषि तथा पशुपालन इस इलाके के लोगों का मुख्य पेशा रहा है। बाढ़ नियंत्रण पर काम करने के पहले या यूँ कहें कि तटबन्धों के निर्माण के पहले नदी उन्मुक्त हो कर विभिन्न धाराओं में बहती थी और कोसी नदी का पानी इन की बहुत सी धाराओं से होकर बह कर जाया करता था और उनका लेवल एक तरह से नियंत्रित रहता था। इतनी परेशानी जरूर थी कि कब किस धार में ज्यादा पानी आ जायेगा उसका अन्दाजा लोगों को नहीं लग पाता था मगर यह भी एक प्रक्रिया के तहत होता था और उसी के अनुरूप लोगों की बाढ़ से निपटने की तैयारी भी रहती थी। एक बार यह तय हो जाय कि किस धार में पानी ज्यादा आने वाला है तो बाकी समस्या का समाधान आसान था। जैसा पानी वैसा धान और उसकी एक ठीक-ठाक फसल के बाद रबी की जबर्दस्त फसल हुआ करती थी। अंग्रेजों के समय की बंगाल प्रान्त की प्रशासनिक और लोक-निर्माण विभाग की वार्षिक रिपोर्टों में कोसी घाटी में तबाहियों का उतना जिक्र नहीं मिलता जितना कि लोग गंडक घाटी में महसूस करते थे। गंडक नदी पर पहले से ही तटबन्ध बने हुये थे और उनमें अक्सर पड़ने वाली दरारों ने अंग्रेजी हुकूमत के इंजीनियरों की नाक में दम कर रखा था। अंग्रेजों के समय की बहुत सी अकाल आयोग की रिपोर्टों में भी कमला-कोसी घाटी के क्षेत्र का बहुत विवरण नहीं मिलता। बिहार के इन नदी क्षेत्रों के जिलों के गजैटियर और सेटिलमेंट रिपोर्टों में भी कभी अकाल या भुखमरी की चर्चा नहीं होती। शायद यही कारण है कि इन घाटियों में रहने वाले बुजुर्ग हमेशा यह कहते हुए पाये जाते हैं कि जब नदियों पर तटबन्ध नहीं थे तब बाढ़ का पानी आता था और चला जाता था। कुछ समय के लिए तकलीफें जरूर होती थीं मगर पानी बिरले ही खेती पर बुरा असर डालता था।
तटबन्ध बन जाने के बाद तीन अलग-अलग तरह के क्षेत्रों का निर्माण हुआ। पहले क्षेत्र वह थे जो कि तटबन्धों के बीच फंस गये और इन पर बाढ़ का आतंक पहले से भी ज्यादा बढ़ गया। इस जमीन पर नदी द्वारा कटाव तथा बालू का जमाव भी तटबन्ध बनने के पहले के मुकाबले ज्यादा हो गया। यद्यपि इस क्षेत्र के रहने वालों को तथाकथित रूप से सुरक्षित जगहों पर पुनर्वास दिया गया मगर यह शुरू से ही तय था कि यह लोग इसी बाढ़, कटाव, जल-जमाव और बालू-जमाव वाली जमीन पर खेती कर के ही अपनी जीविका अर्जित करेंगे। प्रश्न क्योंकि जीविका का था इसलिए इस क्षेत्र में फंसने वाले लोग पुनर्वास का अपना दावा-दखल छोड़ कर वापस अपने गांव में, तटबन्धों के बीच, चले आये। तमाम कटाव और बालू-जमाव के बावजूद बाढ़ वाले इस इलाके में अभी भी उपजाऊ मिट्टी पड़ने की संभावनाएं बरकरार थीं। समय के साथ नदियों का तल ऊपर उठना शुरू हुआ और इस पट्टी में ऐसी जमीन निकलने लगी जिस पर खेती मुमकिन थी। इसलिए यह कतई आश्चर्यजनक नहीं है कि जब योजना आयोग ने 1979 में कोसी तटबन्धों के प्रभाव का मूल्यांकन किया (अध्याय-5) तब उसने पाया कि कोसी तटबन्धों के बीच खेती में अपेक्षाकृत बहुत सुधार हुआ है।
बाढ़ से असुरक्षित इलाकों के कृषि क्षेत्र और उपज में वृद्धि पूरी तरह से अप्रत्याशित, इत्तिफाकन और अनायास हुई थी। जब योजना आयोग ने यह मूल्यांकन पूरा किया था उस समय तटबन्धों के अन्दर जमीन का कटाव उतना तेजी से शुरू नहीं हुआ था जैसा कि यह आजकल होने लगा है और खेती को नुकसान पहुंचाने लगा है। दुर्भाग्यवश जब तटबन्धों के बीच अगर कोई जमीन कट जाती है तो उस जमीन से रैयत का मालिकाना हक भी खत्म हो जाता है और अगर कभी यह जमीन बालू/मिट्टी के जमाव से फिर बाढ़ में ऊपर आ जाये तब इसका मालिकाना सरकार का हो जाता है और जब तक इसका दाखि़ल-खारिज किसान के नाम से फिर नहीं हो जाता तब तक यह जमीन सरकारी ही बनी रहती है। और क्योंकि तटबन्धों के अन्दर सरकार का कोई वजूद नहीं है इसलिए यह जमीन स्थानीय माफिया के हाथ लग जाती है और मौजूदा हालात में उनके खिलाफ कोई अपील हो ही नहीं सकती। इस तरह से तटबन्धों के अन्दर के भू-संसाधन धीरे-धीरे स्थानीय रंगदारों के हाथ में फिसलते जा रहे हैं। देखें बॉक्स (लोग देखने आते हैं गोया हम कोई तमाशा हैं...)।
तटबन्धों के बाहर बाढ़ से सुरक्षित तीसरा क्षेत्र, जो कि जल जमाव वाले क्षेत्र से दूर है, इन दो क्षेत्रों जैसी समस्याओं से बचा रहता है। इसके बावजूद वहां खेती पर बुरा असर पड़ा है क्योंकि खेती के समुचित विकास के लिए वहां कोसी योजना की नहरों से सिंचाई होनी चाहिये थी जो कि प्रायः उपलब्ध नहीं है। कोसी नहरों के बारे में हमने पहले बहुत कुछ कहा है और उसे दुहराने की यहां जरूरत नहीं बचती।
दूसरे क्षेत्र तटबन्ध से लगे हुए मगर कन्ट्री साइड में भी हालात अच्छे नहीं हैं पर इस बदतरी के कारण दूसरे हैं। कोसी के पूर्वी तटबन्ध के पूरब की तथाकथित सुरक्षित क्षेत्र की पट्टी, बीरपुर से लेकर कोपड़िया तक, जल जमाव से ग्रस्त है। सहरसा के कलक्टर की एक टिप्पणी है, “... पूरे जिले का लगभग एक चौथाई क्षेत्र कोसी तटबन्धों के बीच फंसा हुआ है जो कि कोसी नदी की बाढ़ झेलता है, वहां तटबन्धों का कटाव होता है और वहां भारी मात्रा में तबाही होती है। तटबन्धों के बीच में कोसी हर साल 6’’ से लेकर 9’’ तक रेत जमा कर देती है। इस प्राकृतिक क्रिया के फलस्वरूप तटबन्धों के बीच जमीन ऊँची हो गई है और उसकी वजह से सुरक्षित क्षेत्रों में रिसाव की मात्रा बढ़ गई है। भारी रिसाव के कारण कोसी तटबन्धों के बाहर की कोई 3 किलोमीटर चौड़ी पट्टी जल-जमाव के कारण खेती के लिए सर्वथा अनुपयुक्त हो गई है। जिले के दक्षिण वाला हिस्सा तो कोसी के उलटे बहते पानी के कारण बाढ़ की मार झेलता है। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में क्षेत्र के आर्थिक पुनरुत्थान के लिए कृषि विकास की क्षेत्रीय विशिष्ट योजना की जरूरत है।’’ करीब-करीब यही स्थिति एक खासी लम्बाई में पश्चिमी तटबन्ध के पश्चिम में भी है और जैसे-जैसे कोसी के तटबन्धों पर हम दक्षिण की ओर बढ़ते हैं, हालात बद से बदतर होते चले जाते हैं। वास्तव में कोसी के पश्चिमी तटबन्ध पर भेजा के नीचे (किशुनीपट्टी से 23 किलोमीटर नीचे और घोंघेपुर से 31 किलोमीटर उत्तर तक) खरीफ और रबी की फसल का कोई सबूत ही नहीं मिलता। गरमा के मौसम में कुछ धान कहीं-कहीं हो जाया करता है और यह भी अभी हाल के कुछ वर्षों में ही शुरू हुआ है। पश्चिमी तटबन्ध में कई जगह स्लुइस गेट का निर्माण किया गया है जिससे होकर कोसी की बहुत सी सहायक धाराओं का पानी नदी में प्रवेश करता है। इनमें से बहुत सी धाराएं पश्चिमी तटबन्ध और स्लुइस तक नदी से संगम करने के लिए पहुंचती जरूर हैं पर वहां जाकर एकाएक मुड़ जाती हैं और बाढ़ से सुरक्षित इलाके में खेती को चौपट करती हैं। ऐसा इसलिए होता है कि तटबन्धों के अन्दर बालू जमा हो जाने के कारण नदी का तल ऊपर उठ गया है और स्लुइस से होकर छोटी मोटी नदियां कोसी तक पहुंच ही नहीं पातीं।एक समय 1959 में बिहार विधान सभा में यह बहस चली थी कि कोसी तटबन्धों के बाहर जो गांव या जमीन पड़ती है उस पर बेहतरी का टैक्स लगाया जाय क्योंकि इस इलाके को कोसी तटबंधों के निर्माण से सबसे ज्यादा फायदा हुआ है। लहटन चौधरी (1959) का मानना था कि “... मेरी राय में बांध के दो तीन माइल तक का क्षेत्र ही बेनिपि़फटेड (जिसे लाभ हुआ हो- लेखक) माना जा सकता है और इसके बाद का जो एरिया है वह आपके कोशी के बांध से बेनिपि़फटेड नहीं हुआ है।” जब सहरसा के कलक्टर यह कहते हैं कि तटबन्ध के बाहर के तीन किलोमीटर की पट्टी जल-जमाव के कारण खेती के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है और लहटन चौधरी इसी जमीन को कोसी तटबन्धों से लाभान्वित मानते थे तो इसका मतलब यह होना चाहिये कि जो जमीन 1959 में ठीक-ठाक थी वह सहरसा के कलक्टर के अनुसार अब कृषि के लिए सर्वथा अनुपयुक्त हो गई है। 1979 में जब योजना आयोग ने कोसी नहर का मूल्यांकन किया था (अध्याय 5) तब भी इस क्षेत्र में जल-जमाव हो चुका था। जमीनी हकीकत यह है कि बिहार सरकार ने न तो अब तक इन जल-जमाव वाले क्षेत्रों को सुधारने की कोई कोशिश की और न ही पाठक कमिटी की सिफारिशों पर कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार की स्थापना के अलावा कोई ध्यान दिया।
तटबन्धों के बाहर बाढ़ से सुरक्षित तीसरा क्षेत्र, जो कि जल जमाव वाले क्षेत्र से दूर है, इन दो क्षेत्रों जैसी समस्याओं से बचा रहता है। इसके बावजूद वहां खेती पर बुरा असर पड़ा है क्योंकि खेती के समुचित विकास के लिए वहां कोसी योजना की नहरों से सिंचाई होनी चाहिये थी जो कि प्रायः उपलब्ध नहीं है। कोसी नहरों के बारे में हमने पहले बहुत कुछ कहा है और उसे दुहराने की यहां जरूरत नहीं बचती। नदी और तटबंधों से दूर रहने के कारण इस इलाके में बाढ़ नहीं आती। लेकिन नहरों, सड़कों और रेल लाइन से घिरे इस क्षेत्र में जल-जमाव जरूर बना रहता है और इसकी वजह से पैदावार पर बहुत बुरा असर पड़ता है।
एक दूसरा क्षेत्र जो बाढ़ की समस्या से मुक्त होना चाहिये था वह कमला के पूर्वी और कोसी के पश्चिमी तटबन्धों के बीच में अवस्थित है। इस इलाके के बारे में हमने पश्चिमी कोसी नहर (अध्याय-6) में कुछ चर्चा की है। इस क्षेत्र के बारे में जानकारी अन्यत्र उपलब्ध है। सहरसा जिले के महिषी प्रखण्ड के 8 गांव इस तथाकथित रूप से बाढ़ से सुरक्षित क्षेत्र में अवस्थित हैं। इन गावों के नाम भंथी, गण्डौल, घोंघेपुर, जलै, मनुअर, पचभिण्डा, समानी तथा संकरथुआ हैं। 1991 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार इन गांवों के मेन वर्कर्स में से 96.85 प्रतिशत लोगों ने अपने आप को कृषि कार्यों से सम्बद्ध बताया जबकि सच यह था कि इलाका पूरी तरह से और बारहमासी तौर पर जल-जमाव से ग्रस्त रहा करता था। जाड़े और गरमी के मौसम में भी यहाँ नावें चलती थीं। यहाँ 1995-96 तक किसी भी तरह का कृषि कार्य संभव ही नहीं था। तभी कमला ने अप्रत्याशित रूप से यहां बालू/मिट्टी का जमाव करना शुरू कर दिया जिसकी वजह से घोंघेपुर के आसपास के गांवों में जमीन पानी से ऊपर आ गई और वहां रबी के मौसम में खेती शुरू हुई। इस खेती के पहले भी यहां के किसान अपने आप को कृषि कार्य से सम्बद्ध बताते थे। यह लोग गलत बोलते हों, ऐसा नहीं था। यह लोग खेती करते जरूर थे मगर पंजाब और हरियाणा जैसी जगहों में जाकर, स्थानीय कृषि में उनकी कोई भूमिका नहीं बची थी क्योंकि स्थानीय जमीन तो पानी में थी।
जहाँ तक कोसी परियोजना का प्रश्न है, जल-संसाधन विभाग, बिहार की बहुत सी वार्षिक रिपोर्टों के अनुसार पूर्वी तटबन्ध के पूरब में 1.82 लाख हेक्टेयर जमीन पर परियोजना क्षेत्रों में जल-जमाव है। बिहार सरकार द्वारा नियुक्त स्पेशल टास्क पफोर्स (1988) की जल-जमाव सम्बन्धी रिपोर्ट के अनुसार पश्चिमी कोसी तटबन्ध के पश्चिम में 145 पफुट कन्टूर लाइन (जो कि लहेरिया सराय को भेजा से जोड़ती है) के नीचे 2,23,408 एकड़ जमीन (90,450 हेक्टेयर) जल-जमाव से ग्रस्त है। इस कन्टूर लाइन के ऊपर भी दरभंगा में 42,033 एकड़ (17,017 हेक्टेयर), मधुबनी में 27,800 एकड़ (11,255 हेक्टेयर), समस्तीपुर में 4,967 एकड़ (2,011 हेक्टेयर) और सहरसा में 8,562 एकड़ (3,466 हेक्टेयर) जमीन, यानी कुल 33,749 हेक्टेयर जमीन इस इलाके में पानी में फंसी है। इसमें वह चैर शामिल नहीं हैं जिन का रकबा 20 हेक्टेयर (50 एकड़) से कम है। इस तरह पश्चिमी कोसी तटबन्ध के पश्चिम में लगभग 1,24,200 हेक्टेयर जमीन पर पानी है। अगर कोसी तटबन्धों के बीच के क्षेत्र 1,10,000 हेक्टेयर को, जिस पर बाढ़/जल-जमाव/कटाव/ बालू-जमाव की पूरी सरकारी व्यवस्था कर दी गई है। इसमें महिषी से कोपड़िया के बीच का नदी और पूर्वी तटबन्ध् के बीच का क्षेत्र शामिल नहीं है, इसे भी जोड़ दिया जाय तो यह क्षेत्र लगभग 1,20,000 हेक्टेयर हो जाता है। इस तरह से कोसी परियोजना की भेंट चढ़ा 1.82 $1.24 $1.20 लाख हेक्टेयर, यानी 4.26 लाख हेक्टेयर जबकि योजना बनी थी 2.14 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को बाढ़ से रक्षा प्रदान करने के लिए। इस तरह से तटबन्ध बना कर बाढ़ से जितना बचाव होना था उसका दुगुना इलाका डूब गया। इस तथ्य से न तो किसी को परेशानी होती हुई दीखती है और न लोगों की बदहाली की फिक्र किसी को है। इस माहौल में तबदीली आनी चाहिये।
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