भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। लेकिन सरकारी उदासीनता और ज्ञान के संस्थानीकरण की वजह से तमाम खोजकर्ता और हुनरमंद गुमनामी के अंधेरे में खो जाते हैं। ऐसे ही कुछ देशी वैज्ञानिकों की खोज और सरकारी रवैए की पड़ताल कर रहे हैं प्रमोद भार्गव।
भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। लेकिन स्कूली तालीम और डिग्री को ही ज्ञान का आधार मानने की वजह से तमाम शिल्पकारों, हुनरमंदों और किसानों को अज्ञानी और अकुशल मान लिया गया है। यही वजह है कि देशी तकनीक और स्थानीय संसाधनों से तैयार उन आविष्कारों और आविष्कारकों को नकार दिया जाता है जो ऊर्जा, सिंचाई, मनोरंजन और खेती की वैकल्पिक प्रणाली को बचाने वाले होते हैं। जबकि जलवायु संकट से निपटने और धरती को प्रदूषण से छुटकारा दिलाने के उपाय इन्हीं देशी तकनीकों से ही संभव है।
आजादी के पहले प्रतिकूल परिस्थितियां होने के बावजूद रामानुजम, जगदीशचंद्र बोस, चंद्रशेखर वेंकट रमन, मेघनाद साहा और सत्येंद्रनाथ बोस, जैसे वैज्ञानिक पैदा हुए। आजादी के बाद एक भी बड़ा वैज्ञानिक देश में नहीं हुआ, जबकि इस बीच भारतीय संस्थान संसाधन, तकनीक के स्तर पर समृद्ध हुए हैं। जाहिर है कि ज्ञान-पद्धति में गहरा खोट है।
दुनिया में वैज्ञानिक और अभियंता पैदा करने के लिहाज से भारत तीसरे स्थान पर है। लेकिन विज्ञान संबंधी साहित्य सृजन में पश्चिमी लेखकों का बोलबाला है।
पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक आविष्कारों से ही यह विज्ञान साहित्य भरा पड़ा है। इसमें न तो भारत के आविष्कार कहीं दिखते हैं और न उनके आविष्कारक। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हम खुद न तो अपनी खोजों को प्रोत्साहित करते हैं और न ही उन्हें मान्यता देते हैं। इन प्रतिभाओं के साथ हमारा बर्ताव भी अभद्र होता है। अखबारों के पिछले पन्नों पर कभी-कभार ऐसी खोजों की खबरें छप जाती हैं।
उत्तरप्रदेश के हापुड़ में रहने वाले रामपाल नाम के एक मिस्त्री ने गंदे नाले के पानी से बिजली बनाने का दावा किया है। उसने यह जानकारी संबंधित अधिकारियों को दी। सराहना की बजाय उसे हर जगह मिली फटकार। आखिरकार रामपाल ने अपना घर साठ हजार रुपए में गिरवी रख दिया और गंदे पानी से ही दो सौ किलो वॉट बिजली पैदा करके दिखा दी। रामपाल का यह कारनामा किसी चमत्कार से कम नहीं है। जब पूरा देश बिजली की कमी से बेमियादी कटौती की हद तक जूझ रहा है, तब इस वैज्ञानिक उपलब्धि को उपयोगी क्यों नहीं माना जाता? जबकि इस आविष्कार के मंत्र में गंदे पानी के निस्तारण के साथ बिजली की आसान उपलब्धता जुड़ी है।
इसके बाद रामपाल ने एक हेलिकॉप्टर भी बनाया। लेकिन उसकी चेतना को विकसित करने की बजाय उसे कानूनी पचड़ों में उलझा दिया गया। अपने सपनों को साकार करने के फेर में घर गिरवी रखने वाला रामपाल अब गुमनामी के अंधेरे में है।
बिहार के मोतिहारी के मठियाडीह में रहने वाले सइदुल्लाह की खोज किसी करिश्मे से कम नहीं है। उन्होंने जल के तल पर चलने वाली साइकिल बनाने का कारनामा कर दिखाया। उनके इस मौलिक सोच की उपज यह थी कि उनका गांव हर साल बाढ़ की चपेट में आ जाता है। नतीजतन लोग जहां की तहां लाचार अवस्था में फंसे रह जाते हैं। सइदुल्लाह इस साइकिल का सफल प्रदर्शन 1994 में मोतिहारी की मोतीझील में, 1995 में पटना की गंगा नदी में और 2005 में अमदाबाद में कर चुके हैं। इसके लिए उन्हें पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने सम्मानित और पुरष्कृत भी किया था।
इससे उत्साहित होकर सइदुल्लाह ने पानी पर चलने वाले रिक्शे का भी निर्माण कर डाला। यह रिक्शा पानी पर बड़े आराम से चलता है। पुरस्कार की सारी राशि नए अनुसंधान के दीवाने इस वैज्ञानिक ने रिक्शा निर्माण में लगा दी। बाद में नए अनुसंधानों के लिए सइदुल्लाह ने अपने पुरखों की जमीन भी बेच दी और चाबी वाले पंखे, पंप, बैटरी-चार्जर और कम ईंधन खर्च वाले छोटे ट्रैक्टर का निर्माण करने में सारी जमा पूंजी खर्च कर दी। लेकिन न तो उन्हें सरकारी मदद मिली और न ही उनकी खोज को मान्यता। उनका हौसला पस्त हो गया। एक नवाचारी वैज्ञानिक को डॉ. कलाम के पुरस्कार के बावजूद अफसरशाही ने कोई जगह नहीं दी। सईदुल्लाह ने नई खोजों से तौबा कर ली।
उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले के भैलोनी लोध गांव के रहने वाले मंगल सिंह ने ‘मंगल टर्बाइन’ बना डाला है। यह सिंचाई में डीजल और बिजली की कम खपत का बड़ा व देशी उपाय है। मंगल सिंह ने अपने इस अनूठे उपकरण का पेटेंट भी करा लिया है। यह चक्र उपकरण-जल धारा के प्रवाह से गतिशील होता है और फिर इससे आटा चक्की, गन्ना पिराई और फिर इससे आटा चक्की, गन्ना पिराई और चारा-कटाई मशीन आसानी से चल सकती है।
इस चक्र की धुरी को जेनरेटर से जोड़ने पर बिजली का उत्पादन भी शुरू हो जाता है। अब इस तकनीक का विस्तार बुंदेलखण्ड क्षेत्र में तो हो ही रहा है, उत्तराखंड में भी इसका इस्तेमाल शुरू हो गया है। पहाड़ पर पेयजल भरने की समस्या से छूट दिलाने के लिए नलजल योजना के रूप में इस तकनीक का प्रयोग सुदूर गांव में भी शुरू हो गया है।
उत्तर प्रदेश के गोंडा के सेंट जेवियर्स स्कूल के छात्र ऋषींद्र विक्रम सिंह, अजान भारद्वाज, निखिल भट्ट और हिदायतुल्ला सिद्दीकी ने मिलकर दीमक से बचाव का स्थायी समाधान खोज निकालने का दावा किया है। इन बाल वैज्ञानिकों ने इस कीटनाशक का बाल विज्ञान कांग्रेस में प्रदर्शन भी किया।
इन छात्रों ने ‘विज्ञान कांग्रेस’ के बैनर तले गोंडा जिले में एक अध्ययन में पाया कि भारत-नेपाल तराई क्षेत्र में दीमकों के प्रकोप से हर साल पैदावार का बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाता है। दीमकों पर नियंत्रण के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला रसायन क्लोरो पाईरीफास दीमकों पर प्रभावी नियंत्रण में नाकाम साबित हो रहा है। साथ ही इसका इस्तेमाल मिट्टी के परितंत्र को भी खत्म कर देता है जिससे जमीन की उत्पादकता पर प्रतिकूल असर पड़ता है। इसके इस्तेमाल से किसानों के मित्र कीट (केंचुआ आदि) भी नष्ट हो जाते हैं।
इन बाल वैज्ञानिकों ने कीटनाशी कवक बवेरिया वैसियाना के प्रयोग से दीमकों की समस्या से स्थायी समाधान की खोज की है। रसायन रहित कवक होने के कारण बवेरिया वैसियाना सभी तरह के दुष्प्रभावों से मुक्त है। इसके एक बार के प्रयोग से खेत में छह इंच नीचे बैठी अंडे देने वाली रानी दीमक कनुबे समेत खत्म हो जाती है। नतीजतन इनके भविष्य में फिर से पनपने की संभावना खत्म हो जाती है। यह कवक दूसरे रसायनों से ज्यादा असरदार और सस्ता होने के कारण बेहद फायदेमंद है। इसकी उपयोगिता साबित हो जाने के बावजूद इस बाल अनुसंधान को अभी तक मान्यता नहीं मिली है।
मध्य-प्रदेश में एक ओर बिजली को लेकर हाहाकार मचा है, वही गुना जिले में बरौदिया नाम का एक जैसा अनूठा गांव भी है, जिसने ऊर्जा के क्षेत्र में इतनी आत्मनिर्भरता हासिल कर ली है कि अब यहां कभी अंधेरा नहीं होता। यह करिश्मा बायोगैस तकनीक अपनाकर हुआ है। यहां के लोग बायोगैस से अपने धरों को रोशन कर ही रहे हैं, साथ ही महिलाएं चूल्हे चौके का सारा काम भी इसी गैस से कर रही हैं। तकरीबन सात सौ की आबादी वाले इस गांव के ग्रामीण गोबर गैस को रोशनी और रसोई में ईंधन के रूप में उपयोग करते है। साथ ही जैविक खाद बनाकर फसल भी ज्यादा पैदा कर रहै हैं।
गोबर गैस संयंत्र स्थापित होने के कारण वन संपदा पर भी दबाव कम हुआ है। गांव में करीब पचास गोबर गैस संयंत्र स्थापित कर ग्रामीण ऊर्जा के क्षेत्र में स्वावलंबी हुए हैं। इस सफल प्रयोग ने मवेशियों की महत्ता भी उजागर की है। गांव के सरपंच कल्याण सिंह का कहना है कि जब वे अन्य गांवों में जाते हैं तो उन्हें उस गांव को बिजली समस्या से जूझते देखकर अपने गांव पर गर्व होता है। इन संयंत्रों की स्थापना के लिए सरकार और कृषि विभाग ने कोई मदद नहीं की।
जरूरत है नवाचार के इन प्रयोगों को प्रोत्साहित करने की। इन्हीं देशी विज्ञान-सम्मत टेक्नोलॉजी की मदद से हम खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर तो हो ही सकते हैं, किसान और ग्रामीण को स्वावलंबी बनाने की दिशा में भी कदम उठा सकते हैं। लेकिन देश के होनहार वैज्ञानिकों पर शैक्षिक अकुशलता का ठप्पा चस्पाकर नौकरशाही इनके प्रयोगों को मान्यता मिलने की राह में प्रमुख बाधा है। इसके लिए शिक्षा प्रणाली में भी समुचित बदलाव की जरूरत है। तालीम की प्रकृति ऐसी है कि उसमें खोजने-परखने सवाल-जवाब करने और व्यवहार के स्तर पर मैदानी प्रयोग और विश्लेषण की छूट की बजाय तथ्यों आंकड़ों और सूचनाओं की घुट्टी पिलाई जा रही है, जो वैज्ञानिक चेतना और नजरिए को विकसित करने में सबसे बड़ा रोड़ा है। ऐसे में जब विद्यार्थी विज्ञान की उच्च शिक्षा हासिल करने लायक होता है तब तक रटने-रटाने का सिलसिला और अंग्रेजी में दक्षता ग्रहण करने का दबाव, उसकी मौलिक कल्पना शक्ति का हरण कर लेते हैं। सवाल उठता है कि विज्ञान शिक्षण में ऐसे कौन से परिवर्तन लाए जाएं जिससे विद्यार्थी की सोचने-विचारने की मेधा तो प्रबल हो ही, वह रटने के कुचक्र से भी मुक्त हो? साथ ही विज्ञान के प्रायोगिक स्तर पर खरे उतरने वाले व्यक्ति को मानद शैक्षिक उपाधि से नवाजने और सीधे वैज्ञानिक संस्थानों से जोड़ने के कानूनी प्रावधान हों।
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