पानी पर मंडराते संकट के बादल

नौला सिर्फ पानी का स्रोत नहीं है, इसके साथ एक समुदाय की आस्था भी जुड़ी होती है। हर नौले के पास एक मंदिर बनाने की परंपरा थी। नौले के समीप चौड़ी पत्ती के वृक्ष लगाने का भी चलन था। लेकिन अब पानी बोतल में बंद हो गया तो उसके पीछे की सारी सोच ही व्यावसायिक हो गई। अब पानी पिलाना पुण्य नहीं है। पानी सिर्फ मुनाफे का सौदा बन गया है। ऐसे में भला एक समुदाय के सरोकार पानी से कैसे जुड़ पाएंगे? पारंपरिक ज्ञान में दीर्घकालिक वैज्ञानिकता और सामाजिकता है जो उसके आज भी प्रासंगिक होने का प्रमाण है। पीने का पानी संकट के साए में है। उत्तराखंड की कई प्रमुख बर्फानी नदियों से देश का एक बड़ा तबका अपनी प्यास बुझाता है। इसके बावजूद पीने के पानी का संकट आज तक बरकरार है। अधिकांश ग्रामीण व शहरी इलाकों में धरती को चीर कर हैंडपम्प लगवा दिए गए हैं। गली, मोहल्लों और घरों में नल लगे हैं जिनसे कभी-कभी पानी की बूंद टपकती ज़रूर है। इतने सारे ताम-झाम के अलावा सरकारी और गैर सरकारी जन जागृति के प्रयास भी पानी के लिए होते ही रहते हैं। आंकड़े बताते हैं कि भारत का 70 फीसदी पानी प्रदूषित हो चुका है। आबादी बढ़ी है तो पानी का इस्तेमाल भी। अकेले दिल्ली शहर में 270 करोड़ लीटर पानी प्रतिदिन सप्लाई होता है। चेन्नई में पेयजल की कमी इस कदर है कि वहां प्रति व्यक्ति 70 लीटर पानी प्रतिदिन मुहैया हो पा रहा है। इतना सब एक तरफ है और दूसरी ओर हैं सातवीं सदी के कत्यूरी राजाओं द्वारा निर्मित नौले यानी पेयजल की सर्वोत्तम तकनीक। उत्तराखंड के बागेश्वर क्षेत्र की कत्यूर घाटी में अभी भी गाँवों में पुराने नौलों का जीवित होना आधुनिक हैण्डपंप और नलका पद्धति के लिए एक बड़ी चुनौती है।

यह पारंपरिक जल स्रोत आज तक कैसे जीवंत हैं और स्वच्छ पेयजल देने में सक्षम हैं? इस बारे में वरिष्ठ लेखक अनुपम मिश्र कहते हैं, “अंग्रेज जब हिंदुस्तान आए थे तो हमारे देश में कोई सिंचाई विभाग नहीं था। कोई इंजीनियर नहीं था। इंजीनियरिंग की पढ़ाई देने वाला कोई विद्यालय और महाविद्यालय नहीं था। हमारे यहां एक भी सिविल इंजीनियर नहीं था, पर कश्मीर से कन्याकुमारी तक पश्चिम से पूरब तक तकरीबन 25 लाख छोटे बड़े तालाब थे। इनसे भी ज़्यादा ज़मीन का स्वभाव देखकर अनगिनत कुएँ बनाए गए थे। वर्षा का पानी तालाबों में कैसे और किस क्षेत्र से आएगा सब कुछ अनुभव के आधार पर किया जाता था। इन सारे सवालात के साथ एक किस्सा सुनाने का मौका है। किस्सा क्या है, हकीक़त है। गरूड़ विकास खण्ड के तैलीहाट गाँव में 1999 में स्वजल परियोजना के अंतर्गत 7 किमी. लंबी पाइप लाइन बिछाई गई थी। 9,97000 रुपए की लागत की इस योजना ने शुरू के सालों में जी भर के पानी पिलाया। लेकिन अब 15 सालों के बाद योजना ने दम तोड़ दिया है। ग्रामीण समुदाय अब खुद ही श्रमदान से योजना की देख-रेख कर रहे हैं।

इसकी खस्ताहाली का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ना तो फिल्टर टैंक ही ठीक हालत में है और ना ही मुख्य बीएफजी टैंक की सफाई हुई है। लोग सार्वजनिक तौर पर चर्चाओं में यह बात कहने लगे हैं कि तुरंत ही योजना को दुरूस्त किया जाना चाहिए। लेकिन इन चर्चाओं में कहीं भी किसी ओर से नौलों की सुरक्षा और रखरखाव पर कोई स्वर सुनाई नहीं देता। पानी के इन अनमोल ज़खीरे के प्रति समुदाय की बेरूखी समझ से परे है जो सदियों से आज तक कायम है। पारंपरिक ज्ञान की फेहरिस्त में सब कुछ कचरा है ऐसा नहीं है। नौला एक तरह का प्राकृतिक भूजल स्रोत है। नौले की बनावट खास होती है। इन सीढ़ीदार नौले की खोज कैसे हुई होगी? कौन लोग होंगे जिन्होंने नौले के ज्ञान को समझ कर इनका विस्तार किया होगा? दन्या अल्मोड़ा क्षेत्र में तो जोस्यूड़ा गाँव का नौला आज तक पेयजल व्यवस्था को जारी रखे हुए हैं। आज तक नहीं सुना कि इस नौले का पानी पी कर कोई बीमार हुआ हो। नौला सिर्फ पानी का स्रोत नहीं है, इसके साथ एक समुदाय की आस्था भी जुड़ी होती है। हर नौले के पास एक मंदिर बनाने की परंपरा थी। नौले के समीप चौड़ी पत्ती के वृक्ष लगाने का भी चलन था। लेकिन अब पानी बोतल में बंद हो गया तो उसके पीछे की सारी सोच ही व्यावसायिक हो गई। अब पानी पिलाना पुण्य नहीं है। पानी सिर्फ मुनाफे का सौदा बन गया है। ऐसे में भला एक समुदाय के सरोकार पानी से कैसे जुड़ पाएंगे?

संकट में उत्तराखंड के परंपरागत जल स्रोत नौलापारंपरिक ज्ञान में दीर्घकालिक वैज्ञानिकता और सामाजिकता है जो उसके आज भी प्रासंगिक होने का प्रमाण है। फिर भी इस ज्ञान के प्रति अविश्वास कहीं न कहीं व्यवस्थागत खामियों के साथ सामाजिक एकजुटता की कमी को उजागर करता है। हर काम के लिए किसी संस्था या सरकारी मदद का मुंह ताकने की प्रवृति भी भयानक है। गांव में अब भी काफी हद तक सामुदायिक एक जुटता दिखती है। इसका उपयोग किया जा सकता है। श्रमदान से पुराने स्रोतों की सफाई कर उनको एक विकल्प के रूप में तैयार किया जा सकता है। ग्राम सभा के निवासी आम बैठक में इस बात को तय कर सकते हैं। यह एक तरीका हो सकता है। किसी एक तरह की योजना को संचालित करने का यही एक तरीका होगा यह मैं नहीं कहता। सब लोग बैठे अपने-अपने आपसी मतभेदों को कुछ समय के लिए बैठक में ना लाए, कोई एक बोले तो पहले उसको सुना जाए। बैठक में अपनी सहमती या असहमती तथ्यों के आधार पर रखें।

ऐसे में उस व्यक्ति को नेतृत्व मिलेगा जो वास्तव में काबिल है और गाँव या क्षेत्र के लिए सार्थक व दीर्घजीवी योजनाएं बनाने में सक्षम है। बदलाव के लिए समाज में आज सही नेतृत्व कितना जरूरी है यह सभी जानते हैं। यहां पीने के पानी की समस्या को आधार बनाकर अपनी बात रखने का प्रयास मैं कर रहा हॅू। लेखन के माध्यम से ही सही मैं अपनी बात को रख पाने में सहजता महसूस कर रहा हूँ। यहीं परंपरा गाँव से देश तक चले तो कई सारी समस्याएं स्वतः सुलझ जाएंगी मुश्किल बात तो यही है कि हमारी निजी स्वार्थ आड़े आता है जो महत्वकांक्षाओं के चलते सही निर्णयों में भागीदार नहीं बनता है। सरकारी योजनाओं की विफलता इस बात को प्रमाणित करती है। आज़ादी के छह दशक के बाद भी हम गाँवों में स्वराज कायम नहीं कर पाए। अभी तक गाँवों में खड़न्जे और सीसी मार्ग बनने की प्रक्रिया जारी है। हकीक़त तो यह है कि विकास के उच्चतम मॉडल तक पहुँचना तो दूर हम उसकी कल्पना भी नहीं कर पाए हैं। सरकारें आती-जाती रहीं और तमाम पहाड़ी राज्यों को प्राकृतिक संसाधनों की खान मानने की भूल कर बैठी जिसका खामियाज़ा उत्तराखंड को हालिया आपदा के रूप में झेलना पड़ा। पारंपरिक लोक ज्ञान को समझने वाले लोग जो बहुत कम बचे हैं, उनको एकजुट होना होगा। पानी के संचयन की उस बेशकीमती तकनीक को फिर से प्रयोग में लाते हुए एक मिसाल कायम करनी होगी। योजनाएं का कार्यान्वयन जब तक सरकारी दफ्तरों से निकलकर ज़मीन पर नहीं होगा तब तक हम जूझते रहेंगे पानी के लिए।

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