विश्व जल निगरानी दिवस, 18 सितम्बर 2016 पर विशेष
हमारे यहाँ समाज की गतिविधियों और साझा विरासत पर समाज की निगरानी की एक लम्बी, सुखद, अनुकरणीय और भरी-पूरी परम्परा रही है। समाज और उसकी सामाजिकता इसी में अन्तर्निहित है और शायद इसी जुड़ाव से उसमें अपनेपन का बोध बढ़ता है और उनका ताना-बाना आपस में मजबूत बनता है। पानी हमेशा से समाज की धरोहर होकर समाज के लिये ही होता है और इसके सभी भण्डारों पर समाज का साझा अधिकार होता है।
पानी यदि समाज की साझा विरासत है तो जरूरी है कि उस पर समाज की सतत और प्रभावी निगरानी हो। पानी यदि समाज की नजर में होगा तो उसके दुरुपयोग और व्यावसायिक इस्तेमाल पर रोक लगाई जा सकती है, वहीं प्रदूषण और अतिक्रमण के साथ जलस्रोतों के सुधार में भी मदद मिल सकती है।
यह सिर्फ पानी के ही सन्दर्भ में नहीं बल्कि हमारी सभी साझा विरासतों के लिये एक सर्वमान्य व्यवस्था हुआ करती थी। चाहे पानी हो, जंगल हो, वन्यजीव हों, पहाड़ हों, नदियाँ हों, पेड़ हों, जमीन हो या कोई भी प्राकृतिक संसाधन। पंचायतें भी इसमें सक्षम भूमिका निभा सकती है।
हमने देखा है कि कुछ सालों पहले सरकारों के हाथ में आने से पहले पानी समाज के हाथों में हुआ करता था और समाज ही अपने लोगों के पानी की चिन्ता करता रहा और उन्हें पानी भी मुहैया कराता था। आदिवासी इलाकों में आज भी उनके अपने पानी के संसाधन हैं और वे पानी के मुद्दे पर खुद अपनी समझ और मेहनत के साथ काम करते हैं।
लेकिन बीते 50 सालों में हमारा ज्यादातर समाज और खासतौर पर नगरीय तथा कस्बाई समाज पूरी तरह बदल गया है। उनके लिये अब पानी उनकी खुद अपने घर की चिन्ता में है, पूरे समाज के पानी की चिन्ता की भावना धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। अब पानी सरकारों के हाथ में जाने से लोगों को लगता है कि यह उनके सोचने-समझने का विषय नहीं है।
अब इस पर समाज को नहीं, सरकारों और उनके अधिकारियों को ही सोचना है। कहीं भी पानी की कमी होने, प्रदूषण होने, बाढ़ आने, सूखा पड़ने पर हम सरकार या सरकारी अधिकारियों की ओर ही दौड़ लगाते हैं।
सामजिक निगरानी की जो परम्परा हमारे देश में सदियों तक कायम रही, उसके मुताबिक स्थानीय समाज ही अपने जलस्रोतों की देखरेख से लेकर उसके पानी के उचित और बराबरी से उपयोग तक के निश्चित निर्धारित व्यवस्था से संचालित होता रहा है।
तब कुएँ, नदियाँ और तालाब किसी एक का नहीं बल्कि पूरे समाज के लिये अपने हुआ करते थे और यही अपनापन उन्हें एक-दूसरे से तो जोड़ता ही था। बरसाती पानी सहेजने से लेकर पानी के प्रबन्धन की जिम्मेवारी भी उन्हीं पर हुआ करती थी।
गाँव या समाज के अशिक्षित या अर्द्ध शिक्षित लोग भी पानी के विज्ञान और उसके बेहतर प्रबन्धन के गुर जानते थे और उसका इस्तेमाल बखूबी करते थे। उनके पास अपनी हजारों सालों से अनुभव की हुई ज्ञान सम्पदा थी, जो उन्होंने अपनी पीढ़ियों से विरासत की तरह ली थी। उनके सदियों पुराने संचित ज्ञान की इबारतें किसी किताब में भले ही न मिले पर जमीनी तौर पर उसे खासा तकनीकी कौशल और पर्याप्त समझ हुआ करती रही।
हालांकि बीते 50 सालों में हम पानी और उससे जुड़ी बातों-तकनीकों, तरीकों के लिये पढ़े-लिखे तबके की ही बात मानते-जानते हैं।
समाज के पानी के बेहतर प्रबन्धन की कई स्थानों पर भी मिसालें देखी-सुनी जाती है। लोग अपने जलस्रोतों की परवाह खुद किया करते थे। पानी की कमी नहीं होने दी जाती थी। पीने और निस्तारी कामों के लिये अलग-अलग जलस्रोत निर्धारित किये गए थे। पीने के पानी को हर तरह प्रदूषण से बचाने के लिये समाज के अपने नियम होते थे और वे हर सम्भव कोशिश करते थे कि पानी सबको यथोचित मात्रा में मिलता रहे।
पानी पर पहला हक पीने वाले का और उसका उपयोग करने वाले का है। इसके बाद खेती और सबसे अन्त में उद्योगों का या व्यवसाय के लिये। लेकिन पानी को इधर बीते कुछ सालों में व्यापार का माध्यम बनाया गया है। इसी वजह से पानी और भी दूर जाता जा रहा है। इस पर कभी भी किसी एक का अधिकार नहीं हो सकता लेकिन बीते कुछ सालों में बोतलबन्द पानी से लेकर उद्योगों को सीधे पानी दिये जाने, उद्योगों का दूषित पानी नदी में मिलाए जाने, पानी के लिये लगातार धरती का सीना छलनी किये जाने और पानी को मनमाने तरीके से कहीं भी रोक दिये जाने या नदी के प्रवाह क्षेत्र में अतिक्रमण कर देने से नदी और उसके तंत्र के साथ बुरा बर्ताव हो रहा है।
साल में एक बार पूरा समाज एकत्रित होकर कुएँ-कुण्डियों की सफाई में जुटता था। कचरा-गाद निकाली जाती थी। सारे उपयोगकर्ता परिवारों से लोग आते थे पनघट पर और श्रमदान करके कुछ ही घंटों में उसकी सफाई कर दिया करते थे। इसे पानी उलीचना कहा जाता था। इससे एक तो गाद निकल जाती, दूसरे पानी की आवक भी साफ-सुथरी हो जाती थी।पीने के पानी वाले स्रोतों पर किसी को नहाने या कपड़े धोने जैसे काम कोई नहीं कर सकता था। नदी-नालों पर भी समाज ध्यान रखता था कि कहीं से कोई अतिक्रमण नहीं कर सके और न कोई उन्हें गन्दा कर सके। कुछ भी होने पर समाज समग्र रूप से इसका प्रतिरोध करने खड़ा रहता था।
इसी तरह तालाबों का उपयोग ज्यादातर मवेशियों के पानी पिलाने और निस्तारी कामों के लिये इस्तेमाल किया जाता था। खेती के लिये गाँव के बाहर के जलस्रोतों का इस्तेमाल किया जाता था। वह भी जरूरत और निर्धारित मात्रा में ही।
संग्रह करना यहाँ के किसानों की कभी प्रवृत्ति नहीं रही। जहाँ, जिसे और जितना जरूरी था, वह उतना ही लेता और यकीनन उससे ज्यादा पुनः देने की इच्छा रखा करता था। लोग कहते भी थे- जमीन धरती का, पानी समाज का बस मेहनत हमारी। किसान अन्न उगाता तो वह भी सभी के लिये। वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा को मजबूत करता हुआ।
तब कोई पानी से कमाई के बारे में कभी सोचता तक नहीं था। नदियाँ उसके लिये माँ थीं और पानी ईमान का गवाह। गाँव-अंचल में जब कभी कोई ऐसा विवाद हो जाता कि उसका निदान या गवाही सम्भव नहीं होती तो कहा जाता था कि हाथों में गंगाजल उठा लो। झूठा आरोप लगाने वाला गंगाजल उठाने से मनाकर देता था। उन दिनों पानी का आदर था। वह न्याय का प्रतीक था। सत्य का प्रतीक था। जीवन का प्रतीक था।
पानी पर पहला हक पीने वाले का और उसका उपयोग करने वाले का है। इसके बाद खेती और सबसे अन्त में उद्योगों का या व्यवसाय के लिये। लेकिन पानी को इधर बीते कुछ सालों में व्यापार का माध्यम बनाया गया है।
इसी वजह से पानी और भी दूर जाता जा रहा है। इस पर कभी भी किसी एक का अधिकार नहीं हो सकता लेकिन बीते कुछ सालों में बोतलबन्द पानी से लेकर उद्योगों को सीधे पानी दिये जाने, उद्योगों का दूषित पानी नदी में मिलाए जाने, पानी के लिये लगातार धरती का सीना छलनी किये जाने और पानी को मनमाने तरीके से कहीं भी रोक दिये जाने या नदी के प्रवाह क्षेत्र में अतिक्रमण कर देने से नदी और उसके तंत्र के साथ बुरा बर्ताव हो रहा है। बीते कुछ सालों में पानी का बाजार तेजी से फला-फूला है। इसे सरकारों और सरकारी नीतियों के लचीलेपन ने और भी व्यापक बना दिया है।
यह व्यवस्था हमारे समाज और हमारे प्राकृतिक संसाधनों के हित में थी और इसे हमारे साझा संसाधनों की समुचित देखरेख और साज सम्भाल के साथ युवा और नई पीढ़ी को इसके संस्कार भी मिलते रहे लेकिन ताजा दौर में हमने इसे बुरी तरह छिन्न-भिन्न कर दिया है। जरूरत है, इसे फिर से पुनर्जीवित करने की और नए सिरे से इसे और प्रभावी बनाने की ताकि कम होते जा रहे जल संसाधनों की बेहतरी सुनिश्चित की जाये, समाज में पानी का मोल और उसका आदर पुनर्प्रतिष्ठित हो सके। हम अपने पानी से जुड़ सकें और पानी को अपना बना सकें।
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