रेलगाड़ी का आविष्कार इंग्लैंड में ज़रूर हुआ था, लेकिन भारत में रेलों का विस्तार होने के बाद उसी की कमाई से ब्रिटेन में रेलों का विकास और विस्तार हुआ। शुरू में अंग्रेज रेलगाड़ी से अपनी फौज़ और सैनिक साज-सामान ढ़ोते थे। बाद में रुई तथा अन्य प्रकार के कच्चे माल को बन्दरगाहों तक पहुँचाने तथा ब्रिटिश मिलों में बने सूती कपड़ों तथा अन्य प्रकार के पक्के माल को भारत के कोने-कोने तक रेल से पहुँचाते थे। लेकिन शीघ्र ही उन्हें पता चल गया कि भारतीय लोग यात्रा करने के शौकीन हैं और यात्रियों को ढ़ोकर काफी पैसा कमाया जा सकता है।
अंग्रेजों ने रेलवे स्टेशनों पर एक बहुत जरूरी इन्तज़ाम किया था- यात्रियों के लिए मुफ्त पानी मुहैया कराना। इसके लिए उन लोगों ने पर्याप्त संख्या में ‘पानी पांडे’ बहाल किये। अंग्रेजों के जाने के बाद जब जगजीवन राम रेल मन्त्री हुए तो उन्होंने रेल में छुआछूत मिटाने का एक क्रांतिकारी कदम उठाया। रेल में पानी पिलाने के लिए पहली बार बड़े पैमाने पर दलितों को बहाल किया गया। ट्रेनों के आने पर हर डिब्बे के पास पानी पिलाना रेलवे की जिम्मेदारी थी और बखूबी निभाई जा रही थी। लेकिन अब रेलवे स्टेशनों पर मुफ्त पानी पिलाने वाले कर्मचारी नहीं मिलते। इक्के-दुक्के स्टेशनों पर कोई मिल जाए तो अलग बात है। उत्तर भारत के अधिकांश रेलवे स्टेशनों पर नलों में भी पानी नदारद रहता है। मजबूरी में लोगों को महँगा बोतलबन्द पानी खरीदना पड़ता है।
एक दशक पूर्व तक दक्षिण भारत में चलने वाली रेलगाड़ियों के हर डिब्बे में पेयजल से भरा स्टेनलेस स्टील का एक टब रखा रहता था। उसमें पानी निकालने का नल भी लगा रहता था। साथ ही चेन लगा स्टील का एक मग या ग्लास भी रखा रहता था। वहाँ के लोग ग्लास में मुँह लगाकर पानी नहीं पीते। लेकिन पानी बेचने वाली कम्पनियों के दबाव में धीरे-धीरे यह व्यवस्था समाप्त कर दी गई। अब वहाँ भी रेल के डिब्बों में मुफ्त पेयजल नहीं मिलता।
हमारे देश में प्यासों को मुफ्त पानी पिलाना पुण्य का कार्य समझा जाता रहा है। देश-भर के शहरों में आज भी प्याऊ लगाने की प्रथा मौजूद है। पानी की कमी वाले राजस्थान में फूस की झोपड़ियों में बने जल मन्दिरों में पानी से भरे मटकों से राहगीरों को मुफ्त पानी पिलाया जाता है। जिस प्रकार बेटी के ब्याह के लिए पैसे लेना पाप माना जाता है और 'बेटी बेचवा' एक घृणित गाली है, उसी प्रकार पानी बेचना भी पाप है। हमारी रेलों में बहुराष्ट्रीय निगमों का बोतलबन्द पानी तो बिक ही रहा है, हमारी रेल भी अब ‘रेल नीर' के नाम से बोतलबन्द पानी बेच रही है। प्लास्टिक की बोतल में बन्द पानी की उत्पादन लागत एक रुपए प्रति बोतल होती है। हमारी रेलवे एक लीटर पानी दस रुपए में बेच रही है। बहु-राष्ट्रिय निगमों के पानी की कीमतों की तो पूछिए मत। अब क्या कहें कि हमारी रेलवे ‘पानी बेचवा' बन गई है।
हमारे देश के ज्यादातर हिस्से में दूध से महँगा पानी बेचा जा रहा है। पानी का अर्थ इज्जत भी है। हम पानी के साथ अपनी इज्जत बेच रहे हैं। कभी कवि रहीम ने कहा था - रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, पानी गये ना उबरे, मोती मानुष, चून। हमारी सरकार ने तो गंगा के पवित्र जल को बेचने का सौदा भी कर लिया है। गंगा और यमुना के किनारे जहाँ सैकड़ों मन्दिर है वहीं सैकड़ों मस्जिदें भी हैं और मुहर्रम के समय मुसलमान लोग गंगा और यमुना की पवित्र मिट्टी और पानी को कलश में रखकर श्रद्धापूर्वक आराधना करते हैं। यही गंगा-यमुनी संस्कृति है, जिसे नष्ट कर देने पर भारत की अस्मिता नष्ट हो जाएगी।
भारतवर्ष में प्याऊ लगाकर प्यासों को मुफ्त पानी पिलाना तो पुण्य या सवाब का काम माना ही जाता है, जनहित के लिए कुएँ, तालाब और झील खुदवाना भी लोग धर्म का काम मानते रहे हैं। लेकिन अब तो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गंगा के पानी को बेचने पर तुली है। गंगाजल को उसके स्रोत से ही खींचकर दिल्ली लाने का प्रयास हो रहा है। टिहरी से एक पाइप लाइन के जरिए पानी लाया जायेगा। उस पानी को फ्रांस की 'सुएज’ कम्पनी मनमानी कीमत पर दिल्लीवासियों को बेचेगी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल के लोग इसका तीव्र विरोध कर रहे हैं, क्योंकि गंगा का पानी यदि दिल्ली चला गया तो उनके खेतों की सिंचाई के लिए पानी नहीं बचेगा। उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिमी बंगाल के गंगातटवासी भी इस बात से बहुत नाराज हैं, क्योंकि इसके कारण सूखे मौसम में गंगा में पानी नहीं रहेगा। स्नान-ध्यान, नाव चलाना, मछली पकड़ना सब रुक जाएगा। दियारे की खेती चौपट हो जाएगी।
दिल्ली में पानी का अभाव है। लेकिन इस समस्या का समाधान अपेक्षाकृत बहुत कम खर्चे में हो सकता है। इसके लिए गंगा को सुखा देना जरूरी नहीं है। दिल्ली में छतों पर जितना पानी बरसता है यदि उसे इकट्ठा करके कुओं में जमा किया जाए तो एक साल के संचित पानी से तीन साल तक काम चलाया जा सकता है। मरु प्रदेश कहे जाने वाले राजस्थान में इसी प्रकार हजारों वर्षों से जल संचय किया जाता है और वहाँ पीने के पानी का अकाल नहीं होता। पिछले कुछ दशकों में वह कुओं, तालाबों और झीलों के पुनरुद्धार के काम की उपेक्षा की गई, इसलिए पिछले दिनों वहाँ अकाल का सामना करना पड़ा। कुओं, तालाबों और झीलों में न केवल जल का संचय होता है बल्कि इसके कारण भूजल का स्तर भी बढ़ता है। भारत में पतिवर्ष चालीस करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी बरसता है। यदि इसका एक छोटा अंश भी उपरोक्त तरीकों से संचित कर लिया जाए तो देश में सिंचाई या पीने के पानी की कोई कमी नहीं होगी। इस काम के लिए न बड़े-बड़े बांध बनाने की जरूरत है और न विश्व बैंक या अन्य विदेशी आर्थिक मदद, कर्ज की। यह तरीका इतना सस्ता और विकेन्द्रित है कि जनता में रचनात्मक उत्साह पैदा करके श्रम शक्ति के सहारे स्वदेशी एवं स्थानीय आर्थिक साधनों से पूरा किया जा सकता है।
इस काम के लिए 'काम के लिए अनाज' योजना के तहत बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन हो सकता है। ऐसा करके हम गोदामों में भरे उन अनाजों का सदुपयोग भी कर सकते हैं, जो बिक्री न हो पाने के कारण हर साल सड़ जाता है। यह कैसी विडम्बना है कि देश की लगभग आधी आबादी आज क्रय शक्ति के अभाव में पर्याप्त अनाज नहीं खरीद पाती और सिर्फ एक शाम खाकर जीने या मरने के लिए मजबूर है। ऐसा इसलिए हुआ है कि उदारीकरण और विदेशीकरण की नीतियों के कारण पिछले एक दशक के दौरान खेती, किसानी, पशुपालन, मछली पकड़ने के क्षेत्रों, वन क्षेत्रों आदि में रोजगार के अवसर बहुत घट गये। विदेशी आयात पर से मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटाने और आयात शुल्क में भारी कमी के कारण रोजगार के इन परम्परागत क्षेत्रों के साथ-साथ देश भर में लाखों-लाख छोटे-बड़े कारखाने बन्द हो गए हैं। बहुतेरे बन्दी के कगार पर हैं। हाल ही में देश के शीर्षस्थ कृषि वैज्ञानिक डा. एम.एस स्वामीनाथन ने कहा कि देश में अनाज की प्रति व्यक्ति सालाना खपत 1940 के स्तर पर पहुँच गई है। उस साल भारत में भूख से लाखों लोग मरे थे। आज भी मर रहे हैं, लेकिन उन्हें बीमारी से मरा घोषित कर दिया जाता है। 1940 में अनाज का सालाना प्रति व्यक्ति उपभोग 130 किलोग्राम पहुँच गया था। 1980 आते-आते अनाज का प्रति व्यक्ति सालाना उपभोग 200 किलोग्राम हो गया था। और अब पुनर्मूषिको भव। लोग भुखमरी तो झेल ही रहे हैं अब आमलोग पानी के बिना भी मरने को मजबूर होंगे, क्योंकि जिनकी जेब में पैसा होगा वही पानी खरीद सकेगा।
सुदूर गाँव के पशुपालकों / दूध उत्पादकों को आज कहीं छह रुपये, कहीं आठ रुपये लीटर दूध की कीमत मिल रही है। शहर के पास के गाँव वाले अपने को खुशनसीब मानते हैं, क्योंकि उन्हें दस रुपए लीटर की दर मिल जाती है। बिहार में दूध का उत्पादन बहुत बढ़ा है। यहाँ प्रति दिन दो लाख लीटर दूध सरप्लस है। पहले वह दूध दिल्ली डेयरी डेवलपमेन्ट बोर्ड लेता था। अब बिहार से दूध लेना बन्द करके विदेशी दूध पाउडर, मक्खन और घी (बटर ऑयल) मँगवाया जा रहा है इस बात को लेकर पंजाब, हरियाणा, उत्तर पदेश में गाय-भैंस पालने वाले दूध उत्पादकों और दूध के कारोबार है जुड़े लोगों में हाहाकार मचा हुआ है। ऐसा नहीं है कि यूरोप और अमेरिका में दूध उत्पादन की लागत कम आती हो। लेकिन वहाँ एक लीटर दूध पर पन्द्रह रुपए और एक किलोग्राम घी के उत्पादन पर एक सौ तीस रुपए से ज्यादा की सरकारी सब्सिडी मिलती है। इसलिए वहाँ का दूध, मक्खन और घी सस्ता मिलता है।
हमारे देश के ज्यादातर हिस्से में दूध से महँगा पानी बेचा जा रहा है। पानी का अर्थ इज्जत भी है। हम पानी के साथ अपनी इज्जत बेच रहे हैं। कभी कवि रहीम ने कहा था -
रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, पानी गये ना उबरे, मोती मानुष, चून।
हमारी सरकार ने तो गंगा के पवित्र जल को बेचने का सौदा भी कर लिया है। गंगा और यमुना के किनारे जहाँ सैकड़ों मन्दिर है वहीं सैकड़ों मस्जिदें भी हैं और मुहर्रम के समय मुसलमान लोग गंगा और यमुना की पवित्र मिट्टी और पानी को कलश में रखकर श्रद्धापूर्वक आराधना करते हैं। यही गंगा-यमुनी संस्कृति है, जिसे नष्ट कर देने पर भारत की अस्मिता नष्ट हो जाएगी।
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