पानी की महत्ता का स्मारक बाला तालाब

बाला तालाब
बाला तालाब

एक समाज ने अपना तालाब सहेजकर पानी के संकट की आशंका को हमेशा-हमेशा के लिये खत्म कर दिया। इस एक तालाब से आसपास के करीब 25 गाँवों में भूजलस्तर काफी अच्छा है। आज जबकि यह पूरा इलाका पानी के संकट से रूबरू हो रहा है तो ऐसे में यह तालाब और यहाँ का समाज एक मिसाल है, पानी को रोककर जमीनी पानी के स्तर को ऊँचा उठाने में। आसपास पहाड़ियों से घिरे होने की वजह से थोड़ी-सी भी बारिश में यह लबालब भर जाता है और अमूमन यहाँ बरसात से गर्मियों तक पानी भरा रहता है।

मध्य प्रदेश के मालवा में स्थित देवास जिला बीते पाँच वर्षों से बारिश की लगातार अनियमितता की वजह से पानी के संकट वाले जिले में तब्दील होता जा रहा है। यहाँ लगातार औसत से कम बारिश होने से जिले के कई इलाकों में पानी का भयावह संकट है।

कई गाँवों में तो सर्दियों के मौसम से ही परिवहन के जरिए पानी पहुँचाना पड़ता है। जिले के एक बड़े हिस्से से नर्मदा और कालीसिंध नदी बहती है लेकिन कई जगह तो इन नदियों के किनारे बीस-पच्चीस किमी के दायरे में आने वाले गाँव ही पीने के पानी तक को तरसते हैं। जिले में डेढ़ दर्जन से ज्यादा छोटी बड़ी नदियाँ बहती रही हैं। लेकिन इनमें ज्यादातर अब सिर्फ बारिश में ही बहती हैं।

जिले में जलस्तर 400 से 600 फीट नीचे तक पहुँचने लगा है। लेकिन जिले के छोर पर बसे बालोन और इसके आसपास के करीब 25 गाँवों में पानी का ऐसा कोई संकट नहीं है। यहाँ का जलस्तर अब भी 250 से 300 फीट के आसपास सामान्य बना हुआ है।

ग्रामीणों के मुताबिक इसका सबसे बड़ा कारण बालोन का वह तालाब है, जिसे यहाँ के ग्रामीणों ने बड़े जतन से सहेजा है। इस तालाब के पानी का काम सिर्फ-और-सिर्फ जमीन के पानी के भण्डार को बढ़ाना भर ही है। इसके पानी का खेती या अन्य किसी काम में कभी कोई ग्रामीण इस्तेमाल नहीं करता है। इस तालाब से आसपास के करीब ढाई-तीन सौ ट्यूबवेल, सौ से ज्यादा कुएँ और अन्य जलस्रोत रिचार्ज होते रहते हैं। पहली बारिश से ही इसमें पानी भरने लगता है और कुछ ही दिनों में यह लबालब हो जाता है। लबालब होने पर इस तालाब की छटा बहुत ही सुन्दर नजर आती है।

यह तालाब बताता है कि हमारी संस्कृति में जलस्रोत के रूप में तालाबों का कितना अधिक महत्त्व रहा है। कई सौ साल पहले के समाज ने इसे अपने खून-पसीने से तैयार करवाया और आज का समाज भी इसे उसी तरह सहेजते हुए इसे अपनी अगली पीढ़ी के लिये विरासत में सौंपने के लिये संकल्पित है। यह तालाब अपनी कसौटी पर आज भी खरा है।

गाँव और आसपास के लोग इस तालाब को खूब मान देते हैं तथा इसके पानी को दैवीय पानी मानते हैं। यही वजह है कि वे इस पानी का अपने खेतों में सिंचाई के लिये कभी उपयोग नहीं करते। समाज के लोग ही इसकी निगरानी करते हैं और तालाब के पानी को गन्दा या प्रदूषित होने से भी बचाते हैं। गाद इकट्ठी होने पर कुछ सालों के अन्तराल से श्रमदान कर इसे गहरा किया जाता है।

तालाब की वजह से ही इसके आसपास दूर-दूर तक हरियाली देखने को मिलती है। खेतों में फसलें लहलहाती नजर आती हैं और किसान बनिस्बत रूप से खुश हैं। यहाँ के ट्यूबवेल गर्मियों का एकाध महीना छोड़कर बाकी दिनों में लगातार चलते रहते हैं।

कुओं में भी पानी बना रहता है। सैकड़ों साल पहले के अभियांत्रिकी ज्ञान को देखकर आज भी चमत्कृत हुआ जा सकता है कि उस संसाधनविहीन समाज का जज्बा और जुनून क्या रहा होगा कि उसने अपने खून-पसीने से इतने बड़े तालाब का निर्माण किया, जो आज सैकड़ों साल बाद भी यहाँ के समाज को 'पानीदार' बनाए हुए है। इसका इतिहास भी बड़ा रोचक है और इसकी गाथाएँ घर-घर अब भी सुनी-गाई जाती हैं।

बढ़ रहे जल संकट के दौर में आज समाज को एकजुट होकर अपने परम्परागत जलस्रोतों को बचाने की सबसे बड़ी जरूरत है। लेकिन यह तालाब सैकड़ों सालों से पानी के महत्त्व का स्मारक बना हुआ है और स्थानीय समाज को पानी की महत्ता का पाठ पढ़ाता रहा है। यह तालाब समाज की एकजुटता से जलस्रोतों को पानीदार बनाने की आदिम कोशिशों की कहानी सुनाता है। यहाँ हर दिन कई लोग आते हैं और यहाँ से पानी बचाने का संकल्प लेकर जाते हैं।

पानी की कीमत हर दौर में पहचानी जाती रही है। भयंकर अकाल के वक्त पानी की बूँद-बूँद के लिये लोगों को तड़पने की कई कहानियाँ सुनी जाती रही हैं। लेकिन आज हम सैकड़ों साल पहले की एक ऐसी अनूठी गाथा की खोज में निकले हैं। जहाँ एक तालाब को पानी से लबालब करने की जुगत में एक नवब्याहता ने अपनी जिन्दगी तक को दाँव पर लगाकर भी पानी को सहेजा। यह पानी की महत्ता पहचाने जाने की अनूठी लोक गाथा है और मालवा के लोक अंचल में घर-घर गाई जाती है।

बड़ी बात यह है कि सैकड़ों साल बाद अब भी यहाँ के लोग इसके पानी को कभी सिंचाई या अन्य निजी कामों में उपयोग नहीं करते हैं। ऐसी धारणा है कि यदि कोई इसके पानी से अपने खेत में सिंचाई करता है तो फसल नष्ट हो जाती है। यहाँ तक कि इस इलाके में मिले मवेशियों के गोबर को भी खेत में प्रयुक्त करने पर फसलें खराब हो जाने की बात कही जाती है। इसका उपयोग सिर्फ कंडे बनाने में ही होता है। आज भी बारिश के दिनों में यह लबालब भरता है। आसपास पहाड़ियों से घिरे होने से इसकी भौगोलिक स्थिति बड़ी ही सुरम्य लगती है।

यह लगभग 80 बीघा के रकबे में हुआ करता था, जो अब सिमटकर 40 बीघा में ही रह गया है। पूरे पहाड़ी क्षेत्र का बारिश का पानी इसी तालाब में आता है। कभी यहाँ तराशे हुए पत्थरों की 101 सुन्दर सीढ़ियाँ हुआ करती थीं। इसकी टूटी-फूटी सीढ़ियाँ अब भी तालाब के आसपास बिखरी पड़ी हैं।

मध्य प्रदेश में देवास से 80 किमी दूर उत्तरी-पूर्वी छोर पर तथा विन्ध्याचल के उत्तर में मालवा के पठार पर बालोन गाँव की पहाड़ी पर यह तालाब है। पाल पर ही तालाब के लिये अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देने वाली बालामाता का सुन्दर मन्दिर बना हुआ है तथा लोग यहाँ पानी, दूध और पूत के लिये मनोकामना माँगते हैं। इसे बाला माता के नाम पर ही बाला सरोवर कहते हैं। लोक अंचल में वे देवी की तरह पूजी जाती हैं।

कई बरसों तक पत्थर की एक पिंडी को बालामाता मानकर पूजा गया लेकिन बीते कुछ साल पहले यहाँ यह खंडित हो जाने से अब नवनिर्मित मन्दिर में गंगा, यमुना और सरस्वती नदी की प्रतीक प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं तथा बाला माता की खंडित प्रतिमा को तालाब में विसर्जित कर दिया गया है। यहाँ से पश्चिमी रेलवे मार्ग के भोपाल-उज्जैन ट्रैक पर बेरछा मंडी 9 किमी दूर है।

यह देवास और शाजापुर जिले के अन्तिम सीमा पर स्थित है। इस गाँव का नाम बंजारों के डेरों (बालत) के नाम पर पड़ा तो कुछ लोग बालामाता के स्थान होने से इसके नामकरण बालोन होने की बात कहते हैं। एक अन्य धारणा में यहाँ के जागीरदार बलवंतराव बालोन के नाम पर इसका नाम पड़ा।

लोक वार्ताओं के मुताबिक अकाल के वक्त बंजारों के सरदार लाखा की पुत्रवधू बाला बाई को मायके भेज दिया गया। वहाँ उन्हें पता लगा कि उनके ससुराल की हालत बहुत गम्भीर है और मनुष्य, पशु-पक्षी सभी बूँद-बूँद पानी तक को तरस रहे हैं। मौत ने तांडव मचा रखा है तो उन्होंने ससुराल लौटने की जिद की।

यहाँ आकर उन्होंने पहाड़ियों के बीच पानी सहेजने के लिये एक बड़ा तालाब बनाने का प्रस्ताव रखा। कहा कि एक बार तालाब बन गया तो अगले ढाई सौ सालों तक यहाँ किसी तरह के अकाल का कोई प्रभाव नहीं होगा। लेकिन किसी ने नहीं माना। लोग परेशान थे, बीमार और कमजोर भी। वे कैसे इतनी मेहनत कर पाते। इस पर बाला बाई ने हिम्मत नहीं हारी और कहा कि कल सूरज उगने से पहले वे खुद कुदाली-फावड़ा लेकर काम शुरू करेगी। उन्हें न तो खाने की चिन्ता रही और न ही पानी की। बस एक तालाब बनाने का जुनून। सिर पर सूरज चमकता। देह पसीने से भींग जाती लेकिन बाला बाई का उत्साह कम नहीं होता था।

बाला के पति हरकुंवर भी उसके साथ तगारियाँ ढोते। काम बढ़ा तो धीरे-धीरे गाँव के और भी आदमी-औरत उनके काम में मदद करने लगे। कुछ ही दिनों में जैसे-जैसे तालाब का काम पूरा होने लगा, वैसे-वैसे बाला बाई की सेहत कमजोर होती चली गई। लगातार काम करते रहने से हाथों में फफोले पड़ गए लेकिन उन्होंने काम नहीं रुकने दिया।

तीन तरफ के पहाड़ों से आने वाले पानी के सैलाब को बारिश से पहले अपने गाँव में ही थामने का जज्बा बढ़ता ही जा रहा था। मिट्टी खोदती और पानी के बहने वाले प्राकृतिक रास्ते पर डालती जाती। देखते-ही-देखते मिट्टी की काफी ऊँची पाल बन गई लेकिन बारिश अभी दूर थी। बाला बाई काम करते हुए एक दिन वहीं गश खाकर गिर पड़ी।

कुछ ही देर में हरकुंवर भी इसी तरह तालाब में काम करते हुए चल बसे। तालाब के बीच में जहाँ वे दोनों शहीद हुए, उनकी समाधि पर सुन्दर मन्दिर बनाया गया। इस मन्दिर का शिखर आज भी दिखता है। बताते हैं कि दोनों के बलिदान के बाद तो जैसे गाँव के दिन ही बदल गए। जोरदार बारिश हुई और यह विशाल तालाब पानी से भर गया। तब से ही लोग बाला को देवी रूप में पूजते आये हैं।

एक अन्य लोक वार्ता के अनुसार पं सुरेशचन्द्र नागर बताते हैं- "एक समय यहाँ भयंकर अकाल पड़ा था। उस दौरान यहाँ कई लोग और मवेशी रहते थे, जिनके लिये पीने के पानी तक का भयावह संकट हो गया और लोग मरने लगे। सारे लोग परेशान होकर राजा (बंजारों के सरदार लाखा) के सामने पहुँचे। वे पहले से ही परेशान थे। कई पंडितों और तांत्रिकों ने पाठ-पूजा और टोने-टोटके किये। लेकिन कुछ नहीं हुआ। तब सबने मिलकर बारिश के पानी को सहेजने के लिये पहाड़ियों के बीच तालाब खोदने का निर्णय लिया। सभी इस काम में जुट गए। लोगों ने भूखे-प्यासे रहकर कई दिनों तक तालाब खोदा लेकिन पानी तो दूर गीली मिट्टी तक नहीं आई। कुछ शिल्पियों ने तालाब में जाने के लिये तराशे हुए पत्थरों की सीढ़ियाँ भी बना दी। तालाब बनकर तैयार था लेकिन उसमें पानी की एक बूँद तक भी नहीं थी। इसे सब लोगों ने ईश्वरीय प्रकोप माना और वे हताश हो गए।”

एक दिन सरदार लाखा को स्वप्न आया कि अपनी नवब्याहता बहू के बलिदान से ही तालाब में पानी भर सकेगा। वह सोच और संशय में पड़ गया। अपनी इकलौते बेटे की बहु को वह कैसे बलि चढ़ा दे। लेकिन कुछ ही देर में उसका संशय दूर हो गया जब खुद नवब्याहता बहु बाला बाई ने हजारों लोगों की भलाई के लिये अपने प्राणों की आहुति देने का मन बना लिया।

बात तो सिर्फ बाला बाई की ही थी, बाद में उसके पति सरदार के बेटे हरकुंवर ने भी उसके साथ शहीद होने का निर्णय लिया। दोनों पति-पत्नी का विवाह की तरह का शृंगार किया गया। उनके जय-जयकार के बीच लाखों लोगों ने भींगी आँखों से उन्हें आखिरी बार नजर भर कर देखा और प्रणाम किया। जैसे-जैसे वे तालाब में जाते गए, वैसे-वैसे तालाब पानी से भरता चला गया। तालाब के बीचोंबीच बालामाता का मन्दिर बनाया गया था। इसका शिखर स्तम्भ आज भी तालाब के बीचोंबीच दिखाई देता है।

पत्थरों से निर्मित प्रवेश द्वार से वे तालाब के बीच बने मन्दिर में आये और बड़े-बुजुर्गों को प्रणाम किया। बेटे और बहु ने यहाँ जल समाधि लेकर अपने नाम को अमर किया। लोग इसे बालामाता के बलिदान का प्रभाव मानते हैं कि तब से अब तक यह तालाब पानी से लबालब रहता है और फिर कभी इस इलाके को अकाल का सामना नहीं करना पड़ा।"

बंजारों के कबीले तब से ही इस तालाब का पानी नहीं पीते हैं। उनके मुताबिक पुरखों ने प्रण लिया था कि यह जनता के खून-पसीने से बना है, इसलिये इसके पानी पर हमारा अधिकार नहीं। एक दूसरी मान्यता के मुताबिक बंजारों की बहु के जल समाधि ले लेने से शोकमग्न बंजारे इसका पानी नहीं पीते हैं।

तालाब के बीचोंबीच स्तम्भ के बारे में मान्यता है कि यह तालाब में दबे हुए मन्दिर का शिखर है। यह स्तम्भ चिकने पत्थर का है। इसकी बनावट चौकोर है तथा नीचे का भाग 4.5 फीट लम्बा तथा 4 फीट चौड़ा है। इसमें चार पट्टे पड़े हैं। दोनों किनारों पर कंगूरे बने हैं। इसके ऊपर 3.5 फीट का बड़ा चोरस पत्थर रखा है तथा एक फीट आड़ा पत्थर है। वर्तमान में तालाब के तल से यह स्तम्भ 16 फीट ऊँचा है। इसकी जुड़ाई न तो सीमेंट से की गई थी और न ही चूने से। केवल पत्थर-पर-पत्थर करीने से जमाए गए हैं।

इतिहास की जानकारी रखने वाले मदनलाल वर्मा बताते हैं- "यहाँ का इतिहास बहुत पुराना है। यहाँ से हड़प्पाकालीन पुरावशेष भी मिलते रहते हैं। यह क्षेत्र कभी बंजारों के आधिपत्य में रहा होगा, इसीलिये यहाँ अब भी बंजारों में प्रचलित वस्तुएँ खुदाई के दौरान धरती से मिलती रहती है। लोक श्रुति के मुताबिक कभी यहाँ इनके 20 गाँव हुआ करते थे, जिनके अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। तब यहाँ आसपास घना जंगल हुआ करता था। मांडू में किसी घमासान युद्ध में मारकाट होने पर एक क्षत्रिय अपनी जान बचाकर निकला। वह भागते हुए जिवाजीगढ़ (बालोन से करीब 20 किमी पहले) पहुँचा। यहाँ उन दिनों बंजारों की बालत (डेरे) पड़े हुए थे। उसने बंजारों को जब अपना हाल बताया तो उन्होंने उसे शरण दी और उसे छुपाने की नियत से अपने कबीले में उनकी वेशभूषा में शामिल कर लिया। बंजारों ने अपनी बालत आगे बढ़ाई और जंगलों को साफ कर इस पहाड़ी पर अपना गाँव बाला खेड़ा बसाया। इसी के आसपास अलग-अलग परिवारों ने अपने पसन्द की जगह पर रहने लगे। इसी से 20 गाँवों की बात सामने आती है। कुछ दिनों बाद जब इसकी खबर पहुँची तो यहाँ भी विरोधियों की सेना आ गई और युद्ध हुआ लेकिन बंजारों की वीरता, साहस और शौर्य ने उन्हें परास्त कर दिया।"

वे बताते हैं- "लाखा उर्फ लखन बंजारा कबीले का सरदार हुआ करता था। वह नमक और मिश्री आदि वस्तुओं का व्यापार किया करता था। दूर-दूर तक उसका व्यापार चलता था। यहाँ बंजारों के पास लाखों की कीमत के मवेशी हुआ करते थे। इनके साथ चरवाहा, कुम्हार, लुहार आदि भी थे, जो कई तरह की शिल्पकला में निपुण थे। आज भी यहाँ पत्थर और मिट्टी की दीवारें, मिट्टी के बर्तन, आभूषण, सिक्के, तराशे गए पत्थर आदि मिलते रहते हैं। यहाँ बहुत समय तक बंजारे आबाद रहे, कुछ सालों पहले तक भी यहाँ बड़ी तादाद में बंजारे आते रहे तथा लोगों को खेती के लिये बैल खन्दुलों पर देते थे और इसके बदले अनाज लेते थे। बारिश के बाद ये लोग व्यापार के लिये दूसरी जगह चले जाया करते थे। बाद में परमार राजाओं का शासन रहा तो कभी यह अवन्तिका क्षेत्र में राजा विक्रमादित्य के अधीन भी रहा। आजादी से पहले तक यह स्थान ग्वालियर राजघराने में आता था।"

बलदेवसिंह मालवीय बताते हैं- "बाला माता या बालेश्वरी तालाब के पानी को लेकर जन सामान्य में कई विश्वास और मान्यताएँ हैं। लोक श्रुति के अनुसार बालामाता ने जल समाधि से पहले कहा था कि इस तालाब में स्नान करने से कोढ़ियों को काया, निःसन्तान को सन्तान, बाँझ पेड़ों में फल तथा ऐसी धात्री महिलाओं को, जिन्हें अपने बच्चों को पीलाने हेतु स्तनों में दूध नहीं आता तो यहाँ का जल प्रयोग करने से स्तनों से दूध आने लगता है। इसके अलावा कई चर्म रोगों सहित अन्य बीमारियों में भी यह पानी औषधि की तरह काम करता है। इन्हें खासतौर पर पानी, दूध और पूत की देवी माना जाता है। लोक मान्यता है कि यहाँ से कभी कोई निराश नहीं लौटता। यहाँ दूर-दूर से लोग आते हैं और दर्शनों के साथ यहाँ से पानी भरकर नंगे पाँव ले जाते हैं। इसके पानी की चर्चा और उससे लाभान्वित होने वाली माताओं के कई नाम क्षेत्र में बताए जाते हैं। इसके जल में गंगाजल की तरह कभी कीड़े नहीं पड़ते।”

पास के गाँव नाग पचलाना में रहने वाले मदनलाल वर्मा किस्सा सुनाते हैं- "उनके खेत पर एक आम का पेड़ था, जिसमें कभी फल नहीं लगते थे। कई वर्षों तक फल नहीं आने पर उनके पिता एक दिन नंगे पाँव बाला माता के मन्दिर गए और स्नान कर माँ से पेड़ को फलदार बनाने की प्रार्थना करते हुए गाँव लौटे। उन्होंने पेड़ में उस पानी को डाला और थोड़े ही दिनों में यह पेड़ फल देने लगा।” वे बताते हैं कि आज चालीस साल बाद भी पेड़ उसी तरह फल दे रहा है। इसी तरह यहीं की वलू बाई ने अपने बेटे को जन्म दिया लेकिन उसकी छाती से एक बूँद दूध नहीं आता। चिन्तातुर हो उसका भाई माँ से प्रार्थना करते हुए तालाब से जल भरकर लाया तो प्रसूता को पानी पीने के एक-दो दिनों में ही दूध आने लगा। वलू बाई का यह पुत्र अब भी स्वस्थ है।

लीला बाई बताती हैं- "बाला माता के क्षेत्र में कई लोकगीत गाए जाते हैं। महिलाएँ और पुरुष इन गीतों को सामूहिक रूप से गाते हैं। अब मालवी लोकगीतों की परम्परा नए चलन के साथ खत्म हो रही है तथापि अब भी कई गीत प्रचलन में है...

आगे-आगे हरकुंवर, पाछे बाला बऊ, राजाजी के पीछे नगरी बालोन
पेली पेड़ी ओ हरकुंवर बाला बऊ पग धरिया अँगूठा पर आयो वह नीर
तीसरी पेडी हरकुंवर बालाबऊ पग धरिया, राजा गोडा पर आयो वह नीर
पांचवी पेडी हरकुंवर बालबऊ पग धरिया, राजा खांदा पर आयो वह नीर
छठमी पेडी हरकुंवर बालाबऊ पग धरिया, राजा चोटी पर आयो वह नीर
पाछी फिरी के ससरा जी देखो, ससरा जी सरवर तमारो हिलोरा यो खाय


(बेटा हरकुंवर तथा बहु बाला जैसे-जैसे तालाब की सीढ़ियाँ उतरते जाते हैं, वैसे-वैसे तालाब में पानी बढ़ता चला जाता है। पहली सीढ़ी उतरते हैं तो पानी पैर के अँगूठे तक, तीसरी सीढी उतरते तक घुटनों तक, पाँचवी सीढ़ी उतरने तक छाती पर, छठवीं सीढ़ी उतरने पर कंधे तक और सातवीं सीढ़ी उतरने पर सिर की चोटी डूबने लगी है। तब बाला बहु पीछे मुड़कर ससुर जी को विनम्र भाव से कहती हैं कि देखो आपके तालाब में लबालब पानी हिलोरें ले रहा है।) यह बड़ी करुण कथा है तथा मालवा की ठंडी रातों में जब लोग इस गाथा को पूरी तन्मयता से गाते हैं तो उनकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगते हैं। यही हाल गाथा सुनने वालों का भी हो जाया करता है। अब भी यह गाथा गाई-सुनाई जाती है।

बाला माता का एक और भजन है, जिसे गरबा धुन पर गया जाता है–

या तो ऊँची रे पाल, तालाब की रे, लोभी बंजारा रेટટ
जिका नीचे पिहरिया री बाट, लोभी बंजारा रेટટ
यो तो बालक होय तो राखी लेवा रे लोभी बणजारा
यो तो जोबन राख्यो नी जाय, लोभी बंजारा रेટટ
यो तो कागज़ होय तो बांची लेवा रे लोभी बणजारा
यो तो करम नी बाँच्यो जाय, लोभी बंजारा रेટટ
यो तो कुंवलो होय तो थागी लेवा रे, लोभी बणजारा
यो तो समन्दर थाग्यो नी जाय, लोभी बंजारा रेટટ


(इस गीत में बाला माता के त्याग और बलिदान को याद करते हुए उनके ससुर को पानी का लोभी कहकर उलाहना दिया जाता है। तालाब की इस ऊँची पाल के नीचे बाला बहु के मायके का रास्ता है। बच्चे को कोई भी रख सकता है लेकिन यौवन को कौन रख सका है। (बाला बहु को तो किशोर उम्र में ही प्राण दे देने पड़े) कागज को कोई भी पढ़ सकता है लेकिन कर्म की गति कौन जान सकता है। इतने बड़े सरदार के इकलौते बेटे से ब्याहने की खुशी अभी ठीक से मनाई भी नहीं थी कि यह विपदा आ पड़ी। कुएँ में तो कोई भी तल तक जाकर उसका पार पा सकता है लेकिन समुद्र की तरह के इस तालाब में कोई कैसे तल तक जा सकता है।)

हाँ गढ़ से उतर गुजर ग्वालिनी रे ...
जिका माथा पर यही केरो मठ, अलबेला बाला पूछा बणजारी पूरबदेस की रे...
हाँ गंगा-जमना तो म्हारा माहय बीवे।
अरे न्वाहण मीसे आव जो नी, अलबेला बाला...
हाँ राम रसोई म्हारा याँ हद बणिया
अरे जीमण का मीसे आव जो नी, अलबेला बाला...
हाँ रंग-महल म्हारा याँ हद बणिया
अरे पोढन का मीसे आव जो नी, अलबेला बाला...
हाँ बागा रा झूला म्हारा याँ हद बणिया
अरे झूलन का मीसे आव जो नी, अलबेला बाला


(अपने गढ़ से उतरकर जाने वाली गुर्जर ग्वालिन से बाला माता कहती हैं कि गंगा-जमना जैसी पवित्र नदियाँ यहाँ मेरे भीतर ही बहती है, स्नान करने के लिये आओ न... यहाँ हर दिन राम रसोई होती है, भोजन करने आओ न ... यहाँ खूब बड़े महल-चौबारे हैं, देखने और उनका आनन्द लेने आओ न... यहाँ बागों में सुंदर झूले पड़े हैं, सखी झूलने आओ न...)"

पुजारी कुंदनबाई कहती हैं- "बाला माता में कोई प्राचीन मन्दिर नहीं था। यहाँ किनारे पर खुले में ही इमली के पेड़ के नीचे सिन्दूर लेपित बाला माता की पाषाण प्रतिमा रखी हुई थी। पाँच साल पहले प्रतिमा का एक हिस्सा खंडित हो गया था तो गाँव और लोगों ने इसके स्थान पर नया मन्दिर बनाकर इसमें गंगा, यमुना और सरस्वती नदी की प्रतीक स्वरूप संगमरमर की प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं। बाला माता की खंडित प्रतिमा को तालाब में विसर्जित कर दिया गया है। बहुत खोजने पर आखिरकार पुरानी प्रतिमा का एक चित्र अवश्य मिला है। इसमें सिन्दूर लेपित वह प्रतिमा दिखाई दे रही है। बाला माता की विशेष आरती यहाँ हर दिन होती है–

आरती बाला माता की, जुग-जुग पालनहारी की।
भयानक जंगल एक भारी, बसाई वहाँ नगर थारी।
पशु-पक्षियों का था ठाँव, बसाया बंजारों ने गाँव।
चारों ओर पहाड़ी थी न्यारी, गाँव का नाम रखा बंजारी।
डाला ठा पड़ाव, पत्थरों का जमाव, बंजारों की बालत लहराई... आरती बाला...
जन्म बंजारों के घर पाया, रूप देखा पिता ने सुख पाया
मात मन ही मन हर्षाई, चिंता अपने मन माही सताई
अभी तो झूले है पलना, प्यारी से मेरी ये ललना
मगन हुई मात, सोच रही बात, लीला है लीलाधारी की... आरती बाला...
बहु बन हंसराज घर आई, रूप देख मन सबके भाई
खुशी हुई सबके मन अपार, भाग जागे हैं अब हमार
पड़ा एक बार यहाँ अकाल, भयंकर था कालों का काल
करें पूजन, कोई भजन, करी सब देखन की मनुहारी... आरती बाला...
खोदा यहाँ सब मिलकर सरोवर, हजारों फीट खोदी धरोहर
कहीं पर न पानी का निशान, सब हो गई थे परेशान
गगन से आवाज़ आई, मदन कहे गंगा माँ आई
पुत्रवधू जाई, गंगा तहाँ आई, सरोवर बीच आसन लगाई ... आरती बाला माता की...


बाला माता को वे सभी अलंकरण तथा सुहाग सामग्री चढ़ाई जाती है, जो सुहागन स्त्रियाँ अपने सौन्दर्य वृद्धि के लिये उपयोग करती हैं। खासतौर पर उन्हें लम्बी नथ चढ़ाई जाती है। बंजारा समाज की महिलाएँ विशेष तरह की लम्बी नथ पहनती हैं। उन्हें बंजारा परिधान के मुताबिक ही कांचली लुगड़ी और घाघरा भी चढ़ाया जाता है।

यहाँ हर अमावस्या को बड़ी तादाद में लोग आते हैं तथा बाल सरोवर में स्नान कर बाला माता के दर्शन और पूजा करते हैं। यहाँ मनौती पूरी करने वाले लोगों का भी वर्ष भर तांता लगा रहता है। ज्यादातर श्रद्धालु माघ तथा वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष में यहाँ आते हैं। यहाँ आने वाले श्रद्धालु अपने साथ बाल सरोवर का पानी भी भरकर ले जाते हैं।

तालाब के पानी में सूरज डूब रहा था। हमारे लौटते हुए पश्चिम का आसमान सिंदूरी हो उठा था। तालाब की लहरों के साथ मन में भी इस अनूठी गाथा की नायिका बाला बाई के अदम्य साहस और प्राणोत्सर्ग कर समाज को सैकड़ों सालों तक पानी का खजाना देने की इस कहानी का प्रभाव गूँज रहा था। ऐसे कई पूर्वजों की वजह से ही आज हम पानीदार बने हुए हैं। लेकिन पानी का यह खजाना आगे भी बना रहे, इसके लिये हमारी पीढ़ी में से क्या कोई बाला और हरकुंवर बनने को तैयार है। बलिदान नहीं तो कम-से-कम समाज की चिन्ता करने वाले लोग तो होना ही चाहिए, ताकि अगली पीढ़ी भी पानीदार बनी रह सके।

 

 

 

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