पानी के प्रति उदासीन समाज

पानी के बिना प्राणी जगत के बारे में सोचना गलत है। लोगों को अगर पानी भरपूर मिले तो उसे बर्बाद करने में कोई गुरेज नहीं करते। हम अपने नदियों, तालाबों, कुओं और बावड़ियों को मारकर बोतलबंद पानी के सहारे जीने की आदत डाल रहे हैं। हमारा समाज ग्रामीण परिवेश का आदि रहा है लेकिन औद्योगिकीकरण तथा शहरीकरण ने हमसे हमारा पानी छीन रहा है। पानी को यूं ही बर्बादकर हम घटते जा रहे इस बेशकीमती संसाधन के प्रति अनादर जताते हैं। यह इसलिए भी है, क्योंकि पानी का किफायती इस्तेमाल कभी भी हमारी परवरिश का हिस्सा नहीं रहा। पानी के प्रति घटते अनादर को उजागर कर रहे हैं सौमित्र रॉय।

इंसानी संस्कृति में पानी का योगदान अहम है। दिनचर्या के प्रत्येक हिस्से में पानी कहीं न कहीं मौजूद रहता है। औद्योगिक क्रांति की दहलीज पर कदम रख चुका हमारा समाज असल में ग्रामीण परिवेश का आदि रहा है, जहां पीने के पानी से लेकर निस्तार तक के लिए लोग नदियों, कुंओं पर निर्भर हुआ करते थे। तकरीबन हर दो-तीन मकानों के बीच एक कुंआ हुआ करता था। गांव से एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर बावड़ियां होती थीं, जिसका पानी पशुधन की प्यास बुझाने और निस्तार के काम आता था।

आजकल पानी की जिक्र छिड़ते ही दो घटनाएं सहसा याद आ जाती हैं। एक पिछली गर्मियों की है, जब रायपुर रेलवे स्टेशन पर रेल प्रशासन और बोतलबंद पानी उत्पादक एक कंपनी की मिलीभगत से अप्रैल और मई की भीषण गर्मी में सारे वॉटर कूलर को बंद कर दिया गया। परेशान मुसाफिर अपनी प्यास बुझाने के लिए बोतलबंद पानी खरीदने को मजबूर हो गए। अखबारों में खबर छपी। खूब हंगामा हुआ और इस बदइंतजामी पर रोक लगी। दूसरी घटना इसी साल की है। इंदौर की 18 वर्षीय पूनम यादव को उसके पड़ोसी ने सिर्फ इसलिए चाकू घोंपकर मार डाला, क्योंकि उसने अपने घर के नल से पानी देने से मना कर दिया था। इस धरती के हर प्राणी के लिए पानी निहायत ही जरूरी है। इसके बिना जीवन संभव नहीं। बावजूद इसके, साफ-स्वच्छ पीने के पानी तक लोगों की पहुंच आसान नहीं है। जिनके पास आर्थिक सामर्थ्य है, वे कहीं बोतलों में तो कहीं बड़े-बड़े कैन में बोतलबंद पानी के तौर पर खरीद लेते हैं। उनके लिए निजी टैंकर का पानी भी उपलब्ध है। जिनकी सामर्थ्य नहीं है, उन्हें कुदरत के इस मुफ्त संसाधन तक पहुंचने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।

हर साल गर्मी आते ही मध्य प्रदेश के तकरीबन हर जिले में पानी के लिए मारामारी का यही नजारा देखने को मिलता है। लोग सरकार को, प्रशासन को कोसते हैं और बारिश आते ही सारी तकलीफें भूलकर फिर पानी बहाने लग जाते हैं। लेकिन साफ पेयजल के लिए इंतजार अब दो माह तक ही लंबा नहीं रहेगा। हमारा देश दुनिया की 17 फीसदी आबादी को समेटे हुए है, लेकिन पानी उपलब्ध है सिर्फ 4 फीसदी। इसी चार फीसदी पानी ने बीते 5000 सालों से हमारी सभ्यता और संस्कृति का पोषण किया है। हमारे खेतों को सींचा, हरे-भरे जंगल दिए। हमारे समूचे जीवन चक्र में रचा-बसा होने के बाद भी हम इसे कुदरत की नेमत मानने की बजाय खैरात समझते रहे। हम भूल गए कि धरती के 70 फीसदी हिस्से पर पानी होने के बाद भी उसका सिर्फ एक फीसदी हिस्सा ही इंसानी हक में है। नतीजतन स्थिति यह है कि जलस्रोत तेजी से सूख रहे हैं। भारत ही नहीं, समूचे एशिया में यही स्थिति है, क्योंकि इस महाद्वीप में दुनिया की 60 फीसदी आबादी महज 36 फीसदी जल संसाधनों पर निर्भर है। बाकी सभी महाद्वीपों में जल संसाधनों के मुकाबले आबादी का अनुपात कहीं कम है।

इंसानी संस्कृति में पानी का योगदान अहम है। दिनचर्या के प्रत्येक हिस्से में पानी कहीं न कहीं मौजूद रहता है। औद्योगिक क्रांति की दहलीज पर कदम रख चुका हमारा समाज असल में ग्रामीण परिवेश का आदि रहा है, जहां पीने के पानी से लेकर निस्तार तक के लिए लोग नदियों, कुंओं पर निर्भर हुआ करते थे। तकरीबन हर दो-तीन मकानों के बीच एक कुंआ हुआ करता था। गांव से एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर बावड़ियां होती थीं, जिसका पानी पशुधन की प्यास बुझाने और निस्तार के काम आता था। हफ्तों और कभी-कभी तो महीनों तक की लंबी यात्राएं बैलगाड़ियों, घोड़ों पर या पैदल ही हुआ करती थीं, लिहाजा लोगों का हुजूम पड़ाव वाले स्थलों पर कुएं, बावड़ियां खुदवाता था। ये काम कभी धर्म से जोड़कर देखे जाते थे। साफ-सफाई हमारे संस्कारों का अहम हिस्सा रहे हैं और इसमें भी पानी की जरूरत पड़ती ही है। पर अब हमारा जीवन यंत्रीकृत हो चुका है। हम नल और हैंडपंप, बोरवेल पर निर्भर हैं।

सरकारी सप्लाई पर आधारित पानी की इस उपलब्धता का हमारे दिल में शायद ही कोई सम्मान है। दैनिक जीवन में हम लगातार पानी बर्बाद करते हैं। कहीं टपकते नल के साथ तो कहीं गुसलखाने और रसोईघर से निकले पानी को यूं ही गंवाकर हम घटते जा रहे इस बेशकीमती संसाधन के प्रति अनादर जताते हैं। यह इसलिए भी है, क्योंकि पानी का किफायती इस्तेमाल कभी भी हमारी परवरिश का हिस्सा नहीं रहा। पानी हमारे आसपास इफरात में उपलब्ध। था। समाज को कभी नहीं लगा कि किसी समय इसकी भी राशनिंग होगी और लोगों को साफ पेयजल के लिए दर-दर भटकना होगा। पानी पर हमारी निर्भरता सबसे ज्यादा कृषि कार्यों के लिए है। साल के पांच-छह माह जमकर बारिश हो जाए तो 4000 करोड़ घनमीटर पानी इकट्ठा हो जाता है। इसमें से 1000 करोड़ घनमीटर भाप बनकर उड़ जाता है। बाकी बचे 3000 करोड़ घनमीटर पानी में से 800 करोड़ घनमीटर पानी इस्तेमाल योग्य नहीं होता, लिहाजा 2200 करोड़ घनमीटर पानी ही काम में लाया जा सकता है। इसका तकरीबन 85 प्रतिशत खेती में इस्तेमाल होता है, बाकी 10 फीसदी उद्योगों और पांच फीसदी घरेलू कार्यों में इस्तेमाल होता है।

आने वाले एक दशक में उद्योगों के लिए पानी की जरूरत 23 फीसदी के आसपास होगी। तब खेती के लिए पानी के हिस्से में कटौती करने की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि तेजी से बढ़ रहे शहरीकरण के चलते गांवों के मुकाबले शहरों को पानी की दरकार कहीं ज्यादा होगी। एक अनुमान के मुताबिक 2025 तक देश की 55 फीसदी आबादी शहरों में बसेगी, मतलब पानी की बर्बादी अभी से कहीं ज्यादा होगी। सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि देश में उपलब्ध जल संसाधनों के उपयोग में सालाना 5-10 प्रतिशत ही बढ़ोतरी हो सकी है, जबकि मौसमी बदलाव के चलते इससे दोगुनी मात्रा में जल संरचनाएं नष्ट हो रही हैं। बढ़ते तापमान और जल प्रबंधन की खामियों के चलते सिकुड़ती जल संरचनाओं से गर्मी में इतना पानी भाप बनकर नहीं उड़ पा रहा है कि बारिश अच्छी हो। इसी के साथ वनों के घटने से भी पर्यावरण को जबरदस्त नुकसान उठाना पड़ रहा है। सघन वन वाष्पीकरण बढ़ाते हैं, जैव संतुलन कायम करते हैं।

देश में औद्योगिक ईकाइयां करीब 10 करोड़ घनमीटर साफ पानी का इस्तेमाल करती हैं, लेकिन मशीनों को ठंडा रखने के लिए इससे तीन गुना ज्यादा, यानी 30 करोड़ घनमीटर पानी इस्तेमाल में लाया जाता है। इस तरह 40 करोड़ घनमीटर पानी उद्योगों को जा रहा है, जो कि 2025 तक बढ़कर 228 करोड़ घनमीटर हो जाएगा। इस जरूरत को पूरा करने के लिए अब यदि खेती के लिए उपलब्ध पानी में कटौती की जाए तो खाद्य संकट की स्थिति पैदा हो सकती है।

भोपाल के नजदीक रायसेन जिले में ही 2006 से 2009 के बीच 67 हजार से ज्यादा पेड़ काटे गए। महालेखाकार परीक्षक की 2009-10 की रिपोर्ट में वन संरक्षण कानून 1980 के अनिवार्य प्रावधानों का 70 फीसदी मामलों में गंभीर उल्लंघन की बात कही गई है। कहीं जंगल की जमीन पर कब्जा कर उसमें गैर वनीय काम करने का मसला है तो सरकारी अनुमति के बगैर जंगलों में खनन व अन्य व्यावसायिक गतिविधियां चलाने के मामले सामने आए हैं। मध्य प्रदेश के 95 हजार वर्ग किलोमीटर से ज्यादा क्षेत्र में फैले जंगलों में से 32 वर्ग किलोमीटर नर्मदा बांध की चपेट में आकर नष्ट हो चुका है। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि मध्य प्रदेश में अब 77,700 वर्ग किलोमीटर में ही जंगल बचे हैं। साफ है कि 17,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में से जंगल साफ हो गए। इस नुकसान की भरपाई नहीं हो सकती, क्योंकि इसके लिए भी पानी चाहिए और यह है नहीं। जंगल नष्ट हो रहे हैं तो सदियों से वनों का संरक्षण करते आ रहे आदिवासी भी खदेड़े जा रहे हैं। यह वह तबका है, जिसने जंगल में उपलब्ध पानी के स्रोतों को अपने पसीने से सींचा, ताकि मुश्किल दिनों में पीने व निस्तार का पानी मिल सके।

वन संरक्षण के दायरे से आदिवासियों के बाहर होने से जंगलों का कोई रखवाला नहीं रहा, सिवाय वन विभाग के। वन्य जीव पानी के लिए प्राकृतिक स्रोतों पर निर्भर हैं। जंगलों में अवैध कटाई व खनन गतिविधि से वन्य जीवों के कुदरती रहवास व संसाधनों को खतरा पैदा हो गया है। बेवजह की ईको टूरिज्म गतिविधियों और जंगल के भीतर पर्यटक आवास केंद्रों की स्थापना से भी तापमान बढ़ा है। कान्हाट और बांधवगढ़ में इसके नतीजे साफ देखे जा सकते हैं, जब अप्रैल-मई में जलाशयों के सूखने पर प्यासे वन्य जीव पानी के लिए भटकते हुए गांवों में आ जाते हैं। पानी की अहमियत को सरकारी तंत्र ने भी नहीं समझा है। बात चाहे सिंचाई के लिए नहरों के निर्माण की हो या फिर शहरों में जलापूर्ति की, कहीं डिजाइन की खामियों से तो कहीं इंजीनियरिंग की तकनीक में गड़बड़ी के चलते 30-50 फीसदी पानी फालतू बह जाता है। बांध बनाकर नदियों का रास्ता रोकने जैसी तरकीबों का भी तकनीकी खामियाजा लोगों को बाढ़ के रूप में झेलना पड़ रहा है। बरसात अच्छी हो तो भी पानी का सभी जगहों पर एक समान वितरण न होने से ज्यादातर इलाके प्यासे ही रह जाते हैं।

सरकारी मशीनरी को अब चेत जाना चाहिए। उसे पानी को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए, जो वह नहीं दे रही है। लगातार आठ वर्षों तक सूखे की चपेट में रहे मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में बड़े पावर प्रोजेक्ट्स सरकार की इसी उदासीनता की परिचायक हैं। मौसमी बदलाव ने अंचल के अधिकांश तालाबों, बावड़ियों का नामो-निशान मिटा दिया है। रह गई हैं कुछ प्रमुख नदियां, जिनमें 7-8 माह तक ही पानी रहता है। इन्हीं नदियों पर बांध बनाकर सिंचाई क्षमता बढ़ाने के साथ उद्योगों को पानी देने की नीति कहीं भी कारगर नहीं लगती। खासतौर पर तब, जबकि पिछली 11 पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान सिंचाई क्षमता को 35 फीसदी से ज्यादा नहीं बढ़ाया जा सका। सिंचित रकबे के किसान अभी भी साल में दो फसलें ही ले पाते हैं। जिन किसानों ने खेतों में बोरवेल स्था‍पित कर रखे हैं, वे बीच में एक-दो फसलें और ले लेते हैं। लेकिन इसमें भूमिगत जल का भारी दोहन होता है।

देश में औद्योगिक ईकाइयां करीब 10 करोड़ घनमीटर साफ पानी का इस्तेमाल करती हैं, लेकिन मशीनों को ठंडा रखने के लिए इससे तीन गुना ज्यादा, यानी 30 करोड़ घनमीटर पानी इस्तेमाल में लाया जाता है। इस तरह 40 करोड़ घनमीटर पानी उद्योगों को जा रहा है, जो कि 2025 तक बढ़कर 228 करोड़ घनमीटर हो जाएगा। इस जरूरत को पूरा करने के लिए अब यदि खेती के लिए उपलब्ध पानी में कटौती की जाए तो खाद्य संकट की स्थिति पैदा हो सकती है। ऐसा इसलिए भी होगा, क्योंकि हमारी कृषि में बाकी देशों के मुकाबले कहीं ज्यादा पानी की जरूरत पड़ती है। एक अनुमान के अनुसार, सिंचाई के लिए प्रति हेक्टेयर 30 फीसदी पानी बर्बाद हो जाता है। स्प्रिंकलर या ड्रिप इरीगेशन प्रणाली पानी की बर्बादी तो रोकती है, पर सरकारी प्रोत्साहन के अभाव में किसान इसे अपना नहीं पा रहे हैं। किसानों में नकदी फसलों को बढ़ावा देने की नीति भी जलसंकट का एक बड़ा कारण है। कपास की फसल में सबसे ज्यादा पानी की जरूरत पड़ती है।

मालवा और निमाड़ अंचलों में भू-जल स्तर में भारी गिरावट के पीछे यह भी एक बड़ा कारण है। यही हाल जैव संवर्धित व निजी कंपनियों के संकर प्रजाति की फसलों, जैसे मक्का के लिए भी है, जिसमें परंपरागत फसल की तुलना में तीन गुना ज्यादा पानी की जरूरत पड़ रही है। परंपरागत सिंचाई पद्धति को अपनाकर ऐसी फसलों से भरपूर पैदावार नहीं ली जा सकती। इसके लिए आधुनिक जलप्रबंधन तकनीक को अपनाने और मौजूदा जलसंसाधनों के अधिकतम इस्तेमाल की जरूरत है और सरकार ऐसा नहीं कर पा रही है। पानी की बर्बादी जैसा ही चिंताजनक मामला पानी के बढ़ते बाजार को लेकर भी है। हमारे समाज में प्यासे को पानी पिलाना हमेशा पुण्य का काम माना जाता रहा है। गर्मी के मौसम में शहरों से लेकर गांव तक के रास्ते में जगह-जगह प्या‍ऊ नजर आते थे, जहां धार्मिक संस्थाओं के लोग मटकों में ठंडा पानी भरकर रखते थे। लोग पशु-पक्षियों को भी पानी पिलाते रहे हैं।

लेकिन अब तो बाजार हमें पानी पिला रहा है। कहीं बोतलों में तो कहीं अमानक पाऊचों में, वह भी पांच गुने मुनाफे के साथ। लोग भी पानी के लिए धड़ल्ले से अपनी जेब ढीली कर देते हैं। इसलिए, क्योंकि सरकार पानी पर न तो सबका मौलिक अधिकार कायम कर सकी है और न ही पहुंच बना पाई है। लोगों को अपने घर के नल में बहते पानी की गुणवत्ता पर यकीन नहीं है। हो भी क्यों? बरसों पुरानी, टूटी-फूटी पाइपों से आता पानी, जिसमें मिला होता है सीवेज का गंदा पानी। घर से बाहर निकले तो रास्तें में कहीं पानी उपलब्ध नहीं होगा, लिहाजा लोग मिनरल वॉटर के तौर पर बोतलबंद पानी पर ही भरोसा करते हैं। इसके लिए कहीं 10 तो कहीं 15 रुपए तक चुकाने पड़ते हैं। जिनकी इतनी हैसियत नहीं, वे पाऊचों के अमानक, संक्रमित पानी पर निर्भर रहते हैं। एक और बाजार है टैंकरों से पानी बेचने का। अकेले राजधानी भोपाल में करीब 500 टैंकर दिन-रात भूजल स्रोतों से पानी इकट्ठा कर बस्तियों में बेचते हैं। यह सिलसिला गर्मी में ही नहीं, बल्कि सालभर चलता रहता है। इस गोरखधंधे में जुटे लोगों के रिश्तें नीति-निर्माताओं तक होते हैं। यही वजह है कि साफ पानी के लिए लोगों की हकदारी को गाहे-बगाहे नकारा जाता है।

जलस्रोतों का निजीकरण, जलापूर्ति व्यवस्था को निजी हाथों में सौंपने जैसे मंतव्य व्याक्त कर हमारा तंत्र पानी को बाजार के हवाले करने की तैयारी दिखाता है। लेकिन आने वाले दिनों में ऐसा कोई भी प्रयास आम नौकरीपेशा लोगों तक को बेहद महंगा पड़ेगा। खासतौर पर 10-15 लाख की आबादी वाले उन शहरों में, जहां की पेयजल आपूर्ति व्यवस्था पानी की कमी से सर्वाधिक प्रभावित हुई है। मिसाल के लिए भोपाल और इंदौर, जहां तकरीबन 70 किलोमीटर दूर नर्मदा नदी से पानी लाने की योजना अमल में लाई जा रही है। इस तरह के प्रयास में लोगों के घरों में पानी के बिल में तीन गुने का इजाफा होगा। यह भी वंचितपन को बढ़ाएगा। कुल मिलाकर हमें पानी की बढ़ती अहमियत को समझकर समुदाय स्तर पर संसाधन विकसित करने होंगे। पानी हमारी दिनचर्या का अहम हिस्सा है, सो कोशिश यही होनी चाहिए कि बहने वाली हर बूंद कहीं न कहीं हमारे उपयोग में आ सके। इसके साथ ही सरकार को भी पानी के नैसर्गिक व कानूनी अधिकार को प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर डालकर आम लोगों तक उसकी आसान पहुंच कायम करनी होगी, वरना वह दिन दूर नहीं जब पानी एक कहानी बन जाएगी।

लेखकर स्वचतंत्र पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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