पानी के लिए जंग

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सतलुज-यमुना संपर्क नहर (एसवाईएल) मुद्दे पर हरियाणा और पंजाब आमने-सामने हैं। पानी किसी भी देश-प्रदेश की जीवनरेखा होता है, लेकिन हरियाणा के बाशिंदों विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में बसे लोगों को एसवाईएल नहर का पानी भी नहीं मिल पा रहा है, जिससे इस प्रदेश के किसानों को अपनी फसल को बचाने के लिए सिंचाई के दूसरे संसाधनों पर निर्भर रहना पड़ रहा है। अगर यही हालत रही, तो दूर नहीं जब देश के खाद्यान्न भंडारों को भरने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाला हरियाणा खुद अन्न को तरस जाएगा।

हालांकि हरियाणा को पानी दिलवाने के लिए प्रदेश सरकार एक लंबी कानूनी लड़ाई तो लड़ ही रही, है, लेकिन इससे पहले से प्रदेश के बाशिंदे भी अपना हक पाने के लिए लंबे अरसे से संघर्षरत हैं। काबिलेगौर है कि प्रोफेसर शेर सिंह और स्वामी ओमानंद सरस्वती की अगुवाई में हरियाणा के बाशिंदों ने पानी की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया था। इसी आंदोलन की बदौलत हरियाणा का गठन हुआ था। मगर अफसोस की बात यह रही कि हरियाणा प्रदेश के अस्तित्व में आने के बाद भी प्रदेशवासियों को उनके हिस्से का पानी नहीं मिल पाया और यह संघर्ष आज भी बदस्तूर जारी है। एसवाईएल नहर के मुद्दे को लेकर हरियाणा ही नहीं, पंजाब और केंद्र में बैठे रोजनेताओं ने खूब वोट बटोरे, लेकिन किसी ने भी इसके समाधान के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किए।

गौरतलब है कि नदी जल विवाद 1947 में पाकिस्तान और भारत के बीच शुरू हो गया था। रावी और ब्यास पंजाब की पांच नदियों में प्रमुख थीं। आजादी के बाद पश्चिमी पंजाब पाकिस्तान में चला गया तो रावी-ब्यास के पानी के बंटवारे की चर्चा शुरू हो गई। पाकिस्तान के पास रावी-ब्यास का पानी उसकी जरूरत से ज्यादा था। आजादी के बाद 1950 से 1954 तक इस बंटवारे पर बातचीत होती रही। 1955 में भारत और पाकिस्तान के बीच रावी-ब्यास के पानी का बंटवारा सिंधु जल समझौते के तहत हुआ। 1966 में इस समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इस समझौते के तहत भारत ने पाकिस्तान को 110 करोड़ रुपए अदा करके सतलुज, रावी व ब्यास नदियों का पूरी पानी इस्तेमाल करने का अधिकार ले लिया। इससे पहले 1959 में तत्कालीन पंजाब और राजस्थान के बीच भाखड़ा-नंगल समझौते के अधीन भाखड़ा प्रोजेक्ट द्वारा सिंचित क्षेत्रों में इस्तेमाल के लिए बंटवारा किया गया। इसके मुताबिक पंजाब को रावी-ब्यास के कुल 148.50 लाख एकड़ फुट पानी में से 72 लाख एकड़ फुट पानी मिला। पंजाब की सत्ता पर उस समय वहां के राजनेताओं का कब्जा था। उन्होंने पंजाब के शुष्क इलाके हरियाणा को पानी न देने के इरादे से नहर निर्माण का नाम तक नहीं लिया। इन राजनेताओं ने हरियाणा के साथ किस तरह नाइंसाफी की, इसका सबूत तो 1961 में देखने को मिला, जब पंजाब ने 72 लाख एकड़ फुट पानी के बंटवारे में 53 लाख एकड़ फुट पानी पंजाब वाले इलाके को दिया था और 19 लाख एकड़ फुट पानी मौजूदा हरियाणा के इलाके के लिए मंजूर किया था।

चौधरी छोटूराम ने 6 जनवरी, 1945 को भाखड़ा प्रोजेक्ट पर दस्तखत किए थे, ताकि उस समय के हिसार, रोहतक, महेंद्रगढ़, गुडगांव, संगरूर और भटिंडा जिलों के बारानी व रेतीले इलाकों को सिंचाई जल मिल सके, लेकिन उस वक्त किसी को इस बात का अहसास तक नहीं था कि इस पानी को मरुस्थलीय इलाके में लाने वाली एसवाईएल नहर आगे चलकर एक राजनीतिक मुद्दा बन जाएगी।

नवंबर, 1966 में हरियाणा के गठन के वक्त भी पंजाब ने हरियाणा को उसके हिस्से का पानी नहीं दिया। हालांकि हरियाणा का संयुक्त पंजाब के 72 लाख एकड़ फुट पानी में से 48 लाख एकड़ फुट पानी पर अधिकार था। पंजाब सरकार ने नहर के पानी के बंटवारे को लेकर एक समिति गठित की, जिसने एक फरवरी, 1966 को रावी-ब्यास के अतिरिक्त 70 लाख एकड़ फुट पानी में से हरियाणा को 45.6 लाख एकड़ फुट और पंजाब को 24.6 लाख एकड़ फुट पानी देने की सिफारिश की। इंदिरा गांधी आवॉर्ड में मार्च, 1976 में हरियाणा और पंजाब का हिस्सा 35-35 लाख एकड़ फुट कर दिया गया। पंजाब सरकार को यह समझौता रास नहीं आया और वे हरियाणा को उसके हिस्से का पानी देने में आनाकानी करने लगी। गौरतलब है कि एसवाईएल की तयसुदा लंबाई 212 किलोमीटर थी, जिसका 121 किलोमीटर लंबा हिस्सा पंजाब में और बाकी 91 किलोमीटर हिस्सा हरियाणा में है। केंद्र सरकार ने 1976 में नहर निर्माण को मंजूरी दी थी। इसके तहत हरियाणा ने अपने इलाके में पड़ने वाले नहर के 91 किलोमीटर के हिस्से का निर्माण कराकर इसे पंजाब के पाटियाला जिले तक पहुंचा दिया था, लेकिन पंजाब सरकार ने नहर के निर्माण में कोई दिलचस्पी नहीं ली। आखिरकार पंजाब के हिस्से की नहर के निर्माण को लेकर हरियाणा को सर्वोच्च न्यायालय में दस्तक देनी पड़ी।

काबिले-जिक्र यह भी है कि 31 दिसंबर 1981 को इस समझौते को लेकर पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों की बैठक हुई और तीनों मुख्यमंत्रियों ने इस समझौते को मंजूर करते हुए हस्ताक्षर किए। रावी-ब्यास के पानी की उपलब्धता 158.50 लाख एकड़ फुट से बढ़कर 171.50 लाख एकड़ फुट हो गई। समझौते में इस पानी में से पंजाब को 42.20 लाख एकड़ फुट, राजस्थान को 36 लाख एकड़ फुट, हरियाणा को 35 लाख एकड़ फुट, जम्मु-कश्मीर को 6.50 लाख एकड़ फुट और दिल्ली को दो लाख एकड़ फुट पानी देने की बात कही गई थी। समझौते के कुछ वक्त बाद 8 अप्रैल, 1982 को इंदिरा गांधी ने पंजाब की कपूरी नाम की जगह पर नहर की खुदाई के काम का उद्घाटन किया। पंजाब के मुख्यमंत्री सुरजीत सिंह बरनाला के शासनकाल में नहर के निर्माण के काम ने जोर पकड़ा। मगर भिंडरवाला, गुरुचरण सिंह टोहड़ा, सिमरनजीत सिंह मान और जगजीत सिंह के भड़काऊ बयानों से तैश में आकर उग्रवादियों ने नहर के निर्माण कार्य में लगे इंजीनियरों और मजदूरों की हत्याएं शुरू कर दीं। मई, 1988 में मजाट में उग्रवादियों ने 30 मजदूरों को मौत की नींद सुला दिया। 3 जुलाई, 1990 को नहर के निर्णाण के काम से जुड़े दो इंजीनियरों की बेरहमी से हत्या कर दी गई। इसके बाद नहर के निर्माण के काम को बंद कर दिया गया। हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी हुक्म सिंह ने केंद्र सरकार से नहर के निर्माण का काम सीमा सुरक्षा संगठन को सौंपने की मांग की।

तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने इस संबंध में 20 फरवरी, 1991 को एक बैठक भी बुलाई, लेकिन मामले का कोई हल निकलकर सामने नहीं आया। चौधरी देवीलाल ने एसवाईएल नहर को लेकर न्याय युद्ध भी चलाया, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा।

गौरतलब है कि हरियाणा में सिंचाई के मुख्य स्रोतों में यमुना, सतलुज और संभावित रावी-ब्यास का पानी शामिल है। प्रदेश को सतलुज का पानी भाखड़ा से निकलने वाली मुख्य नहर से मिलता है। शुरुआत में इस नहर की क्षमता 12 हजार क्यूसेक थी, जो अब घटकर 7,700 क्यूसेक रह गई है। नहर की क्षमता को घटने की अहम वजह यह है कि पंजाब के इलाके में पड़ने वाली नहर की मरम्मत नहीं की गई। सिंचाई विभाग से आंकड़ों के मुताबिक हरियाणा को कुल 336 लाख एकड़ फुट पानी की जरूरत है, जबकि तमाम जल संसाधनों से प्रदेश को कुल जरूरत का आधा यानी 168 लाख 40 हजार एकड़ फुट पानी ही मिल पा रहा है। प्रदेश को अभी 167 लाख 60 हजार एकड़ फुट पानी और जरूरत है।

गौरतलब यह भी है कि पिछले करीब दो दशक से अधर में लटकी इस योजना पर कर्मचारियों को वेतन और अन्य खर्चों के नाम पर करोड़ों रुपए व्यय हो रहे हैं। पांच साल पहले तक एसवाईएल में काम करने वाले रेगुलर और वर्कचार्ज कर्मचारियों का सालाना खर्च 25 करोड़ रुपए से बढ़कर अब 34 करोड़ रुपए हो गया है। आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक एसवाईएल के तहत आने वाले करीब एक दर्जन विभिन्न मंडलों में 1,088 कर्मचारी और अधिकारी कार्यरत हैं। इसमें वर्कचार्ज भी शामिल हैं। इनमें एक मुख्य इंजीनियर, 5 एसई, 19 एक्सीईन, 19 पीए व अन्य, 11 डिविजनल हैड ड्राफ्टमैन, 6 सहायक ड्राफ्टसमैन और 87 ड्राफ्ट्समैन, एक फील्ड कर्मचारी शामिल हैं। अनुमान है कि इस समय योजना की कुल लागत से ज्यादा वेतन आदि पर खर्च हो चुका है। सिंचाई विभाग के मुताबिक काम के नाम पर अब कर्मचारियों के पास वेतन के बिल बनाना, डिजाइन किए गए कामों की ड्राइंग संभालना, किसानों और ठेकेदारों द्वारा किए गए अदालती केसों की पैरवी करना और योजना के लिए करोड़ों रुपए की खरीदी मशीनरी को देखरेख शामिल है।

पानी की समस्या से जूझते ग्रामीणों का मानना है कि हमारे देश के राजनेता एसवाईएल नहर का पानी दिलाने का वादा करके वोट तो ले जाते हैं, लेकिन पानी देने कोई नहीं आता। उनका कहना है कि जिस तरह देश के सभी महत्वपूर्ण फैसले आज मुद्दे बन गए हैं और राजनीतिक पार्टियों के लिए वोट की रोटी सेंकने का काम कर रहे हैं, ठीक उसी तरह से एसवाईएल नहर का फैसला भी राजनीतिक पार्टियों ने अपनी सत्ता की भूख मिटाने के लिए मुद्दे में तब्दील कर दिया है। अगर ऐसा नहीं होता, तो जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है, तो पानी अलग कैसे हो सकता है। ग्रामीणों की इन सभी बातों की तस्दीक इसी बात से होती है कि इस मुद्दे पर राजनीति कर रहे सभी सियासी दलों के प्रतिनिधि एसवाईएल नहर पर बात करने से कतरा रहे हैं।
 

 

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