कालीचाट फिल्म ने एक बार फिर पानी के नाम पर चल रहे खतरनाक किस्म के गोरखधन्धों की ओर नए सिरे से ध्यान खींचा है। पानी के लिये आज का समाज किस विभ्रम की स्थिति में है, यह किसी से छुपा नहीं है।
हमने अपने परम्परागत प्राकृतिक संसाधनों और जलस्रोतों को लगभग हाशिए पर धकेलते हुए एक नई तरह की व्यवस्था कायम की है, जिसमें पानी एक छलावे के रूप में हमारे सामने पेश किया जाता है लेकिन इसके निहितार्थ में कुछ खास लोगों के लिये मुनाफा कमाना ही होता है।
मुनाफे की होड़ में वे इतने मसरूफ हैं कि उन्हें पानी के असल मुद्दों से कोई वास्ता है ही नहीं, वे जो कर रहे हैं, उसके खतरों से आगाह होने की जरूरत भी नहीं समझ पा रहे हैं।
इन दिनों एक खास संगठित तबका खेतों को पानी देने का स्वप्न दिखाकर छल से किसानों को बर्बाद कर देने, कई बार तो जमीन से ही बेदखल कर दिये जाने पर आमादा है। इसी सच को पर्दे पर बड़ी ही मार्मिकता से उकेरती है सद्यः प्रदर्शित फिल्म कालीचाट। यह मध्य प्रदेश के मालवा-निमाड़ के एक किसान सीताराम की मर्मांतक पीड़ा से गुजरते हुए अनायास देश भर के किसानों की नियति का आख्यान बनकर उभरती है। सीताराम हर जगह छला जाता है।
फिल्म अपने प्रदर्शन से पहले ही चर्चाओं में है। लन्दन में जब इसका प्रीमियर हुआ तो इसे वहाँ खासी सराहना मिली। वहाँ शो के बाद निर्देशक सुधांशु शर्मा से भारत के किसानों और पानी से जुड़ी समस्याओं को लेकर लोगों ने देर तक चर्चा की। अगले महीने तक फिल्म प्रदर्शित हो सकेगी।
इस फिल्म के निर्देशक सुधांशु शर्मा बताते हैं कि सुनील चतुर्वेदी का उपन्यास कालीचाट को जब पढ़ा तो लगा कि इससे दुखद स्थितियाँ और क्या होंगी। उसी पल से दिमाग में फिल्म चल पड़ी और अब आपके सामने है। प्रारम्भिक प्रतिसाद से हम उत्साहित हैं, अब इसे शार्ट फिल्म फेस्टिवल में ले जाने की तैयारी है।
यह कल्पना या रूमानी प्रेम कहानियों से इतर हमारे आसपास के लोगों की कहानी है और हमने इसे उसी तरह पर्दे पर लाने की कोशिश की है, अपने पूरे ठेठ खालिस अन्दाज में।
वे बताते हैं कि कालीचाट मालवा में दरअसल उस चट्टान को कहते हैं, जो कुआँ खोदते वक्त आ जाये तो फिर उसे आसानी से तोड़ा नहीं जा सकता। किसान की जिन्दगी भी इसी कालीचाट की तरह की होती है। वह जितना ही उसे तोड़ने का जतन करता है, उतना ही घिरता जाता है नए दौर के चक्रव्यूह में।
किसान अपने तई जी तोड़ कोशिश करता है पर एक सीमा के बाद उसका सब्र भी जवाब देने लगता है। इधर खेती को जिन नए तरीकों ने महंगा बनाया है, उनमें महंगे खाद-बीज और ट्रैक्टर के साथ हर खेतों तक अपना पानी होने की बातें भी कही जाती रही है।
किसान ज्यादा-से-ज्यादा पानी की चाह में साल-दर-साल अपने खेतों पर महंगे ट्यूबवेल या विस्फोट के जरिए कुएँ खोदने या उसे गहरा कराने के लिये महंगे कर्ज लेते हैं। कई बार पानी निकल जाता है और कई बार नहीं निकलता पर दोनों ही स्थितियों में इसके सौदागरों का तो फायदा ही है। लिहाजा परम्परागत तरीकों की उपेक्षा करते हुए ज्यादातर किसानों को किसी भेड़चाल की तरह इसी तरफ चलाया जा रहा हैं।
अकेले मध्य प्रदेश में बीते 25 सालों में पानी की लगातार होती कमी के चलते यह कारोबार करीब 10 गुना से ज्यादा बढ़ा है।
दरअसल यह फिल्म सुनील चतुर्वेदी के उपन्यास कालीचाट पर आधारित है। सुनील चतुर्वेदी पेशे से भू-विज्ञानी हैं और मध्य प्रदेश में बीते लम्बे समय से पानी आन्दोलनों से जुड़े रहे हैं। देवास रूफ वाटर हार्वेस्टिंग और रेवा सागर तालाबों की मुहिम में उनकी रचनात्मक मौजूदगी के साथ पानी बचाने की तकनीकों पर उनकी किताबें भी आ चुकी हैं।
अपने गाँव में पानी के लिये काम करते हुए आसपास के किसानों की सच्ची हकीकत इस उपन्यास के जरिए उकेरी गई है। यह उपन्यास बीते 20-30 सालों में मालवा-निमाड़ इलाके में किसानों की दुर्दशा को, खासतौर पर पानी के नाम पर सरकारी और बाजारी खैरख्वांहो के किसानों को लूटने के नए तरीकों को हमारे सामने परत-दर-परत खोलता है। इसमें गाँव के साहूकार, पटवारी, बैंक से लगाकर सरकारी अधिकारी और उनकी नीतियाँ सब शामिल हैं किसी गिरोह की तरह।
वे बताते हैं कि पहली बार नब्बे के दशक में जब गाँव में पानी को लेकर काम शुरू किया तो लोगों को पानी का मोल समझाया। अब लोग पानी के महत्त्व से तो परिचित हैं पर वे पानी के नाम पर छले जा रहे हैं। अपने काम के दौरान गाँव और किसानों को बहुत नजदीक से देखने का मौका मिला तो लगा कि इनकी त्रासदियों का कोई अन्त नहीं। कुछ किरदारों के साथ शुरू हुआ सफर उपन्यास लिखा ले गया पर हाँ, बहुत त्रासद स्थितियाँ... यही स्थितियाँ हैं चारों ओर।
उन्होंने बताया कि दरअसल ये लोग उन किसानों के सपनों के भी सौदागर हैं, जो खेत पर छलछलाते पानी के झूठे सपने दिखाकर अन्ततः उन्हें इस हद तक बर्बाद कर देते हैं कि कई किसान आत्महत्याओं के रास्ते जाने को मजबूर हो जाते हैं। अब भी समय है कि हम इन काले सौदागरों की साजिशों को समझें। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि पानी के स्थायी निदान पर अब हमें फोकस करते हुए नए तथा वैज्ञानिक नजरिए से सोचने की भी दरकार है ताकि पानी के नाम पर पनप रहे ऐसे धोखे और कारोबारों पर लगाम लगाई जा सके। यह फिल्म इन दलाल सौदागरों के साथ पूरे भ्रष्ट तंत्र का भी पर्दाफाश करती है।
फिल्म की पटकथा लेखिका सोनल शर्मा खुद पानी के लिये बीते 20 सालों से गाँव के स्तर पर काम कर रही हैं। देवास जिले के दूरस्थ अंचल में काम करते हुए पानी के मुद्दे पर उनकी बड़ी सुविचारित साफ और गहरी समझ भी है। वे बताती हैं कि हम जहाँ काम करते हैं और जिन लोगों के बीच से उपन्यास लिखा गया, वहीं देवास जिले के सतवास और अंचल में इसे फिल्मांकित किया गया है। फिल्मांकन की प्रक्रिया में खासी चुनौतियाँ थीं, लेकिन धीरे-धीरे दूर होती गई। पात्रों के संवाद मालवी और हिन्दी में है। कोशिश है कि इसमें अंचल जीवन्त हो सके। इसमें मुम्बई, इन्दौर, उज्जैन और स्थानीय कलाकारों ने भी भूमिका निभाई है।
इलाके में कबीर के लोक गायन की महत्त्वपूर्ण और समृद्ध परम्परा है। कालीचाट में भी मिट्टी की सौंधी महक के साथ चिर-परिचित लोक गायन और कबीर के मानीखेज पद जरा धीरे-धीरे गाड़ी हाँको म्हारा राम गाड़ीवाला... सुनाई देता है तो दर्शक झूम उठते हैं। लोक गायक कालूराम बामनिया बताते हैं कि कबीर के गीत अंचल के किसानों की पीड़ा से जुड़ जाते हैं, इसीलिये तो वे छह सौ साल बाद आज भी अंचल की मुखर अभिव्यक्ति हैं। पानी के मोल को कबीर ने तब पहचान लिया था लेकिन दुर्भाग्य से हम आज इन स्थितियों के बाद भी नहीं समझ पा रहे हैं।
सुनील चतुर्वेदी अपनी बात में जोड़ते हैं कि पानी के नाम पर कई तरह की साजिशें की जा रही हैं। लोगों और खेतों की प्यास बुझाने के नाम पर करोड़ों रुपए सिर्फ बोरवेल, हैण्डपम्प, टैंकर, बड़ी परियोजनाओं और पाइपलाइन से नदी जोड़ जैसे अस्थायी संसाधनों पर खर्च किये जा रहे हैं।
अब यही सोच और मान लिया गया है कि पानी की कमी होने पर बस यही एकमेव विकल्प हैं। यहाँ तक कि भौगोलिक और भूगर्भीय स्थितियों का अध्ययन तक नहीं किया जा रहा है। सदियों से हमारी नदियों और कुओं से सहज रूप में खेतों को मिलने वाले पानी की जगह अब गाँव-गाँव सैकड़ों की तादाद में बोरवेल हैं।
भूजल के लगातार अन्धाधुन्ध दोहन से इसमें भारी गिरावट आ रही है। चिन्ता भूजल दोहन को कम करने और बारिश के पानी को सहेजने, धरती की रगों तक पहुँचाने और परम्परागत तरीकों की पुनर्वापसी की दिशा में होनी चाहिए लेकिन इससे उलट हमारी चिन्ताओं के केन्द्र में अब भी मूल मुद्दा कहीं नहीं है।
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