एक अकेला इन्सान चाहे तो पूरे समाज और व्यवस्था को बदल सकता है। बदलाव की यह कहानी चरितार्थ हो रही है राजस्थान के लापोड़िया गाँव में। सूखाग्रस्त इस गाँव में इन दिनों हर तरफ पानी ही पानी नजर आता है। भरपूर पेयजल एवं सिंचाई के साधन होने की वजह से चारों तरफ हरियाली छायी हुई है। लापोड़िया के आस-पास के गाँवों की भी तस्वीर बदल गई है। गाँव में पहुँचने पर हर घर के सामने पशु-धन मौजूद होता है, जो गाँव की खुशहाली का प्रत्यक्ष प्रमाण देता है। ग्राम पंचायत की हर बस्ती में अपना तालाब है। ये तालाब पानी से लबालब हैं। गाँव की यह तस्वीर कोई एक दिन में नहीं बदली है बल्कि इस बदलाव में लम्बा समय लगा और यह सम्भव हुआ एक नौजवान की कर्मयोगी प्रवृत्ति की वजह से। आज लापोड़िया गाँव विदेशियों के लिए रिसर्च का विषय बना हुआ है।
राजस्थान की राजधानी जयपुर से अजमेर मार्ग पर निकलते ही रेगिस्तानी नजारा दिखने लगता है। हाइवे पर गर्मी के मौसम में धूल-भरी हवाओं से सामना होता है। करीब 80 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद दूदू कस्बे में पहुँचते हैं। यहाँ से करीब 10 किलोमीटर आगे जाने पर पडासोली कस्बा पड़ता है और फिर दाहिनी तरफ मुड़ते हुए शुरू हो जाता है लापोड़िया का रास्ता।
करीब 15 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद रेगिस्तान में एक हरा-भरा अलग-सा नजारा दिखता है और यह नजारा है लापोड़िया गाँव का। इस गाँव में प्रवेश करते ही हरे-भरे वृक्ष दिखाई पड़ते हैं। हर खेत में मेड़बंदी। साथ ही खेतों के बीच करीब 10 फीट के चौकोर गड्ढे, जिसे स्थानीय भाषा में चौका नाम दिया गया है। यह चौका सिस्टम ही पेयजल स्रोत विकसित करने का नायाब तरीका है।
इस ग्राम पंचायत के गाँव दूर-दूर तक बसे हैं, लेकिन हर तरफ पेड़ ही पेड़ नजर आते हैं। गाँव में अलग-अलग तालाब दिखते हैं तो गोचर की जमीन पर एक हजार पीपल के पेड़ सोचने के लिए विवश कर देते हैं। क्योंकि नीम, आम व अन्य फलदार पेड़ों का बाग तो हर किसी ने देखा होगा, लेकिन इतनी बड़ी संख्या में पीपल के पेड़ मिलना असम्भव नजर आता है।
गाँव में रहने वाले लोगों ने सड़क के किनारे छोटी-छोटी दुकानें खोल रखी हैं। जहाँ आसानी से खाने-पीने की चीजें मिल जाती हैं। इतना ही नहीं गर्मी के मौसम में हर 20 कदम पर एक छोटी-सी झोपड़ी दिखती है, जिसमें बैठी वृद्धा लोगों को पानी पिलाती है और गाँव की तरक्की की कहानी भी सुनाती है। उसकी यह कहानी सुनने के लिए अकसर विदेशी पर्यटक भी दिखाई पड़ते हैं।
पूछने पर बताते हैं कि इस गाँव में हुए विकास कार्यों को किताब और मैगज़ीन में पढ़ा था। जयपुर आए तो लापोड़िया की असली तस्वीर देखने मौके पर चले आए। इन विदेशी मेहमानों के आने की वजह से गाँव में तमाम धंधे भी चल पड़े हैं। लोगों को भरपूर पैसा मिलता है और ग्रामीण पर्यटन की सरकार की मंशा भी पूरी हो जाती है। इस गाँव में पेयजल विकास एवं जल संरक्षण के लिए अलग-अलग नाम से तालाब बनाए गए हैं।
हर तालाब के अलग-अलग मतलब हैं। जैसे यहाँ बने देव सागर जल संरक्षण के लिए हैं तो फूल सागर भूमि संरक्षण और अन्न सागर से गौ संरक्षण होता है। गाँव के लोग सामूहिक रूप से तालाब का नामकरण करते हैं। गोचर भूमि पर लगने वाले पेड़ो का नामकरण भी गाँव के लोग करते हैं किसी से किसी का कोई राग-द्वेष नहीं है। ज्यादातर लोगों ने खेती के साथ ही पशुपालन भी शुरू किया है। इससे इस गाँव में आर्थिक तरक्की भी हिलोरें मार रही है।
दरअसल लापोड़िया में कुल 1144 हेक्टेयर की जमीन पर करीब 200 घरों के 2500 से ज्यादा लोग रहते हैं। खेती और पशुपालन ही यहाँ का मुख्य पेशा है। इस गाँव में बदलाव की बयार शुरू हुई 1977 में। गाँव के ही युवक लक्ष्मण सिंह ने इस बदलाव की बयार की परिकल्पना की नींव रखीं। फिर क्या था एक बार तरक्की की राह बननी शुरू हुई तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।
गाँव में तमाम लोगों से बातचीत करते हुए हम पहुँचे लक्ष्मण सिंह के घर। वाकई एक मामूली आदमी तरक्की की राह खोल देगा। यह कभी सपने में नहीं सोचा था। लक्ष्मण सिंह से बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो फिर तो 39 साल पुरानी यादें ताजा होने लगी। लक्ष्मण सिंह ने बताया कि वह 1977 में अपनी स्कूली पढ़ाई के दौरान गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने जयपुर शहर गए।
परिवार के लोगों ने उन्हें जयपुर में उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए भेजा था। इसी समय सूखा पड़ा। गाँव लौट आए। यहाँ ग्रामवासियों को पीने के पानी के लिए दूर-दूर तक भटकते व तरसते देखा। यह देखकर मन खिन्न हुआ। परिवार के लोग चाहते थे कि बेटा जयपुर शहर में रहे और पढ़ाई-लिखाई कर कोई बड़ा अफसर बन जाए, लेकिन होना तो कुछ और ही था। लक्ष्मण सिंह का मन पढ़ाई में नहीं लगा। उन्हें हमेशा गाँव की चिन्ता सताती रहती थी। नतीजा यह हुआ कि गाँव भाग आए।
अपने गाँव के ही दो दोस्तों को साथ लिया और तय किया कि गाँव के युवक मिलकर अपना तालाब बनाएँगे। यहीं से बदलाव का सफर शुरू हुआ। तालाब बना तो गाँव के लोगों ने तारीफ की। बारिश हुई तो तालाब पानी से लबालब भर गया। फिर क्या था। हौंसला बढ़ने लगा। तय किया गया कि अगले साल कई तालाब बनाएँगे।
गाँव के युवक साथ जुड़ने लगे तो ग्राम विकास नवयुवक मंडल, लापोड़िया का गठन हो गया। इसके बाद एक तालाब तैयार किया गया, जिसका नाम रखा देवसागर। इसकी मरम्मत में सफलता मिलने के बाद तो सभी गाँव वालों ने देवसागर की पाल पर हाथ में रोली-मोली लेकर तालाब और गोचर की रखवाली करने की शपथ ली। इसके बाद फूल सागर और अन्न सागर की मरम्मत का काम शुरू हुआ।
खेतिहर परिवार में पैदा होने की वजह से गोचर की साज-संभाल करने, खेतों में पानी का प्रबंध करने, सिंचाई कर नमी फैलाने का अनुभव तो पीढ़ियों से था। इस बार उन्होंने पानी को रोकने और इसमें घास, झाड़ियाँ, पेड़-पौधों पनपाने के लिए चौका विधि का नया प्रयोग किया। इससे भूमि में पानी रुका और खेतों की बरसों की प्यास बुझी।
लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि जब उन्होंने पानी संरक्षण का अभियान चलाया तो उसी वक्त लोगों को साक्षर करने की भी शुरूआत हुई। एक छप्पर में निजी स्कूल की शुरूआत की गई। दिनभर लोग अपना कामधँधा करते थे और शाम को यहाँ एकजुट होकर पढ़ाई करते। तमाम बुर्जुगों ने इस अभियान के जरिए अपना नाम लिखना शुरू किया। इस क्लास में पढ़ाई के साथ ही पानी पेड़ और तालाब का महत्व भी समझाया जाता। फिर धीरे-धीरे लोगों को बात समझ में आने लगी और वे हमारे अभियान को ताकत देने लगे।
लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि उनके पास काफी खेती की जमीन हैं। आधा खेत खाली पड़ा रहता था। लेकिन चौका विधि शुरू होने से आधे से ज्यादा खेत में खेती होने लगी। अपने खेत में फसल हुई और नगदी घर में आई तो माता-पिता के साथ ही परिवार के अन्य सदस्य भी खुश हो गए। फिर क्या जो उनके काम का विरोध करते थे वे खुद सहयोग करने लगे।
गाँव के अन्य लोग भी सहयोगात्मक रवैया अपनाते हुए उनकी बात मानने लगे। इसके बाद भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए विलायती बबूल हटाने का देशी अभियान चलाया गया। यह भी सफल रहा। एक के बाद एक मिलती सफलता की वजह से गाँव के लोग खुले दिल से सहयोग करने लगे। लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि 1990 से 94 के बीच सिर्फ 25 बीघा चारागाह में यह व्यवस्था लागू की गई।
2-3 सालों में लापोड़िया गाँव का चारागाह पूरी तरह से विकसित हो गया। इसके असर से धीरे-धीरे दुधारू पशुओं की तादाद बढ़ने लगी और दूध के उत्पादन में अच्छी-खासी बढ़ोतरी हुई। गाँव में सुचारु रूप से चल रही दूध की डेयरी इसका सबूत है। चारागाह में पानी रूकने के चलते गाँव का भू-जल स्तर बढ़ा। लापोड़िया गाँव में 103 कुएँ हैं। 40 तालाब ऐसे हैं, जिनका पानी किसी मौसम में नहीं सूखता। यहाँ हुए इस प्रयोग के बाद हर साल गाँव से सामूहिक जल यात्रा निकलती है। यह यात्रा तमाम गाँवों का भ्रमण कर लोगों को पेयजल बचाने के प्रति जागरूक करती है।
लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि भूमि सुधार कर मिट्टी को उपजाऊ बनाया गया और गाँव के बहुत बड़े क्षेत्र को चारागाह के रूप में विकसित किया गया। इस गोचर में गाँव के सभी पशु चरते हैं। इससे गाँव में दुग्ध उत्पादन बढ़ने लगा। तमाम लोग जहाँ जानवरों को जी का जंजाल समझते थे, वे पशु-पालन से जुड़कर मुनाफा कमाने लगे।
गाँव में दुग्ध व्यवसाय अच्छा चल पड़ा। परिवार के उपयोग के बाद बचे दूध को सरस डेयरी को बेचा गया, जिससे अतिरिक्त आय हुई। इससे कितने ही परिवार जुड़े और आज स्थिति यह है कि दो हजार की जनसंख्या वाला यह गाँव प्रतिदिन 1600 लीटर दूध सरस डेयरी को उपलब्ध करा रहा है। उनके परिवार के लोग भी पशुपालन से जुड़कर आमदनी कर रहे हैं।
ग्राम विकास नवयुवक मंडल के सचिव लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि उन्होंने जो प्रयोग अपने गाँव में किया वह अब आस-पास के 58 गाँवों में पहुँच चुका है। तमाम गाँव के लोग इस विधि को देखते हैं और फिर अपने गाँव की चारागाह की भूमि पर इसे अपना रहे हैं। विभिन्न संस्थाओं के कार्यकर्ता उनके गाँव में आते हैं और गाँव वालों के साथ मिलकर पहले चारागाह की समस्या और गाँव की बुनियादी ज़रूरतों को समझते हैं। पूरे इलाके में फैला विकास और प्रबन्धन का यह फंडा तरक्की की नई राह दिखा रहा है।
लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि गाँव में पशुओं की सेवा के साथ पक्षियों की सेवा का भी संकल्प लिया गया है। यहाँ बागों में घुमने-फिरने वाले जानवरों एवं पक्षियों को मारने पर पाबंदी है। यदि किसी ने भूल से यह अपराध कर भी दिया तो उस पर पाँच हजार रूपये जुर्माना और पक्षियों के लिए पाँच किलो अनाज देने का प्रावधान किया गया है।
लक्ष्मण सिंह बताते है कि लापोड़िया हो या दूसरे गाँव। इन सभी गाँवों में फैसला सामूहिक होता है। गाँव के लोग बैठक करते हैं और इसमें तय करते हैं कि गोचर भूमि का कैसे विकास किया जाए। फिर गोचर भूमि पर होने वाली तालाब खुदाई में सभी श्रमदान करते हैं। गाँव के लोग सामूहिक रूप से सम्बन्धित तालाब का नामकरण करते हैं। इसी तरह पौधारोपण में भी सभी को यह आज़ादी है कि अपनी पसंद के अनुसार सम्बन्धित पौधे का नाम रखे।
पानी संरक्षण और लोगों को जागरूक करने के लिए लक्ष्मण सिंह को एक के बाद एक पुरस्कार मिला। इस कार्य के लिए उन्हें सम्मानित किया। ग्राम पंचायत के बाद ब्लाॅक एवं जिला मुख्यालय से भी जल संरक्षण के लिए सम्माान मिला। इसी तरह केन्द्र सरकार की आरे से 1992 में नेशनल यूथ अवार्ड, 1994 में इन्दिरा प्रियदर्शनी वृक्ष अवार्ड एवं 2007 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल द्वारा जल संग्रहण अवार्ड प्रदान किया गया।
लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि उनके परिवार के लोग लगातार उनका हौसला बढ़ा रहे हैं। साथ ही उनके इस अभियान में सहयोग भी करते हैं। माता-पिता हमेशा जल संरक्षण की दिशा में आगे बने रहने की सलाह देते रहते हैं। वह बताते हैं कि उनके इस अभियान में सबसे बड़ा सहयोग भाइयों का रहा है। क्योंकि परिवार में सबसे बड़े होने की वजह से पिताजी चाहते थे कि नौकरी करूँ, लेकिन ऐसा न करने पर परिवार की अर्थव्यवस्था प्रभावित होने का खतरा था।
ऐसी स्थिति में भाई रामसिंह एवं मानसिंह ने खेती का काम सम्भाला। खेत के लिए भरपूर पानी का इन्तजाम हो गया तो उनका भी उत्साह बढ़ा और खेती होने लगी है। सब्जियों की खेती पर जोर रहता हे। ऐसे में पूरे परिवार का खर्चा चलाने के लिए खेती से आमदनी हो जाती है। खेती और पशुपालन से होने वाली आमदनी के जरिए परिवार में खुशहाली बरकरार है। तीन बेटियाँ हैं। तीनों की पढ़ाई-लिखाई के बाद शादी हो गई है और बेटा पढ़ाई कर रहा है।
पानी बचाने के लिए खेतों एवं चारागाह भूमि पर अपनाई गई चौका विधि के बारे में जानकारी देते हुए लक्ष्मण सिंह ने बताया कि चौका एक आयताकार क्षेत्रफल है। इस क्षेत्रफल में गड्ढा खोदा जाता है। जिसमें तीन तरफ से पाल होती है और चौथी तरफ ढाल बनाया जाता है। इसी चौथी तरफ से जब गड्ढे में पानी भरता है और पानी ओवरफ्लो होता है तो बाहर निकल जाता है बाकि पानी अंदर मौजूद रहता है। एक तरह से यह तालाब जैसा गड्ढा होता है।
चौका में 9 इंच पानी के भार को सहन करने की क्षमता होती है। चौका के दोनों तरफ पाल की लम्बाई वहाँ तक जाती है जहाँ तक चौका की मुख्य पाल पर 9 इंच की ढाल बनी होती है। इस तरह पूरे चारागाह को कई चौकों में बाँटते हैं। चारागाह में 9 इंच पानी फैलने के बाद जरूरत से ज्यादा पानी गाँव के तालाब में लाते हैं। यह व्यवस्था की गई है कि सारे चौकों में 9 इंच पानी ही भरे ताकि घास नहीं गले।
यह भी ध्यान रखा गया कि दो चौकों के बीच की दूरी 3 मीटर हो जिससे पानी का दबाव पाल पर नहीं पड़े और चौकों में पानी ठहरने में किसी किस्म की समस्या भी न रहे। चौका बनाने के पहले सही माॅडल का चयन जमीन की स्थिति और बरसात की मात्रा, पानी के रास्ते की उपलब्धता और उसकी दिशा को ध्यान में रखकर किया जाता है।
चौका तकनीक में बरसात का पानी जहाँ गिरता है वहीं इकट्ठा होता है। इसमें लम्बे ढलान को छोटे-छोटे ढलानों में बाँटने से पानी बहने की रफ्तार इतनी कम हो जाती है कि जमीन का कटाव नहीं होता। इससे पानी का बहाव रूककर जमीन में ही भरता जाता है। साथ ही घास, झाड़ियाँ और पेड़-पौधों को फिर से उगाने में मदद मिलती है। सूखा पड़ने पर भी पानी की उपलब्धता बढ़ती है। इसकी खासियत यह है कि चौका से चौका तक पशु बगैर किसी रोकटोक के चराई कर सकते हैं लेकिन इसके बाद भी घास की अच्छी पैदावार बनी रहती है।
यह एक ऐसी तकनीक है जिसमें बहुत ज्यादा बरसात का पानी इकट्ठा किया जा सकता है। एक चौका अगर 75 गुना 50 मीटर का बनाया जाए तो उसमें 300.45 घन मीटर पानी इकट्ठा होता है। बरसात के अधिक पानी से तालाब को भी बचाया जा सकता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। सचिव, ग्राम विकास नवयुवक मंडल, ग्राम लापोड़िया, दूदू, जयपुर, राजस्थान), मो. 09414071843, 09928825503
लापोड़िया में कुल 1144 हेक्टेयर की जमीन पर करीब 200 घरों के 2500 से ज्यादा लोग रहते हैं। खेती और पशुपालन ही यहाँ का मुख्य पेशा है। इस गाँव में बदलाव की बयार शुरू हुई 1977 में। गाँव के ही युवक लक्ष्मण सिंह ने इस बदलाव की बयार की परिकल्पना की नींव रखीं। अपने गाँव के ही दो दोस्तों को साथ लिया और तय किया कि गाँव के युवक मिलकर अपना तालाब बनाएँगे। फिर क्या था एक बार तरक्की की राह बननी शुरू हुई तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।
कर्मवीर अपनी कर्मठता से न सिर्फ अपना भाग्य बदल रहे हैं बल्कि समाज के पथ प्रदर्शक बने हुए हैं। कुछ ऐसा ही कर दिखाया है जयपुर-अजमेर राजमार्ग पर दूदू से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गाँव लापोड़िया के लोगों ने। इस गाँव के कर्मयोगी बने लक्ष्मण सिंह। अब स्थिति यह है कि यह समूचा गाँव अपने आस-पास के गाँवों को कर्मयोग का पाठ पढ़ा रहा है। लक्ष्मण सिंह की प्रेरणा से ग्रामीणों ने अपना खुद का पेयजल संसाधन विकसित ही नहीं किया बल्कि गाँव को ही हरा-भरा बना दिया है। अब स्थिति यह है कि लापोड़िया में शुरू हुई बदलाव की यह बयार पूरे प्रदेश में बहने लगी है।राजस्थान की राजधानी जयपुर से अजमेर मार्ग पर निकलते ही रेगिस्तानी नजारा दिखने लगता है। हाइवे पर गर्मी के मौसम में धूल-भरी हवाओं से सामना होता है। करीब 80 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद दूदू कस्बे में पहुँचते हैं। यहाँ से करीब 10 किलोमीटर आगे जाने पर पडासोली कस्बा पड़ता है और फिर दाहिनी तरफ मुड़ते हुए शुरू हो जाता है लापोड़िया का रास्ता।
करीब 15 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद रेगिस्तान में एक हरा-भरा अलग-सा नजारा दिखता है और यह नजारा है लापोड़िया गाँव का। इस गाँव में प्रवेश करते ही हरे-भरे वृक्ष दिखाई पड़ते हैं। हर खेत में मेड़बंदी। साथ ही खेतों के बीच करीब 10 फीट के चौकोर गड्ढे, जिसे स्थानीय भाषा में चौका नाम दिया गया है। यह चौका सिस्टम ही पेयजल स्रोत विकसित करने का नायाब तरीका है।
इस ग्राम पंचायत के गाँव दूर-दूर तक बसे हैं, लेकिन हर तरफ पेड़ ही पेड़ नजर आते हैं। गाँव में अलग-अलग तालाब दिखते हैं तो गोचर की जमीन पर एक हजार पीपल के पेड़ सोचने के लिए विवश कर देते हैं। क्योंकि नीम, आम व अन्य फलदार पेड़ों का बाग तो हर किसी ने देखा होगा, लेकिन इतनी बड़ी संख्या में पीपल के पेड़ मिलना असम्भव नजर आता है।
गाँव में रहने वाले लोगों ने सड़क के किनारे छोटी-छोटी दुकानें खोल रखी हैं। जहाँ आसानी से खाने-पीने की चीजें मिल जाती हैं। इतना ही नहीं गर्मी के मौसम में हर 20 कदम पर एक छोटी-सी झोपड़ी दिखती है, जिसमें बैठी वृद्धा लोगों को पानी पिलाती है और गाँव की तरक्की की कहानी भी सुनाती है। उसकी यह कहानी सुनने के लिए अकसर विदेशी पर्यटक भी दिखाई पड़ते हैं।
पूछने पर बताते हैं कि इस गाँव में हुए विकास कार्यों को किताब और मैगज़ीन में पढ़ा था। जयपुर आए तो लापोड़िया की असली तस्वीर देखने मौके पर चले आए। इन विदेशी मेहमानों के आने की वजह से गाँव में तमाम धंधे भी चल पड़े हैं। लोगों को भरपूर पैसा मिलता है और ग्रामीण पर्यटन की सरकार की मंशा भी पूरी हो जाती है। इस गाँव में पेयजल विकास एवं जल संरक्षण के लिए अलग-अलग नाम से तालाब बनाए गए हैं।
हर तालाब के अलग-अलग मतलब हैं। जैसे यहाँ बने देव सागर जल संरक्षण के लिए हैं तो फूल सागर भूमि संरक्षण और अन्न सागर से गौ संरक्षण होता है। गाँव के लोग सामूहिक रूप से तालाब का नामकरण करते हैं। गोचर भूमि पर लगने वाले पेड़ो का नामकरण भी गाँव के लोग करते हैं किसी से किसी का कोई राग-द्वेष नहीं है। ज्यादातर लोगों ने खेती के साथ ही पशुपालन भी शुरू किया है। इससे इस गाँव में आर्थिक तरक्की भी हिलोरें मार रही है।
दरअसल लापोड़िया में कुल 1144 हेक्टेयर की जमीन पर करीब 200 घरों के 2500 से ज्यादा लोग रहते हैं। खेती और पशुपालन ही यहाँ का मुख्य पेशा है। इस गाँव में बदलाव की बयार शुरू हुई 1977 में। गाँव के ही युवक लक्ष्मण सिंह ने इस बदलाव की बयार की परिकल्पना की नींव रखीं। फिर क्या था एक बार तरक्की की राह बननी शुरू हुई तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।
गाँव में तमाम लोगों से बातचीत करते हुए हम पहुँचे लक्ष्मण सिंह के घर। वाकई एक मामूली आदमी तरक्की की राह खोल देगा। यह कभी सपने में नहीं सोचा था। लक्ष्मण सिंह से बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो फिर तो 39 साल पुरानी यादें ताजा होने लगी। लक्ष्मण सिंह ने बताया कि वह 1977 में अपनी स्कूली पढ़ाई के दौरान गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने जयपुर शहर गए।
परिवार के लोगों ने उन्हें जयपुर में उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए भेजा था। इसी समय सूखा पड़ा। गाँव लौट आए। यहाँ ग्रामवासियों को पीने के पानी के लिए दूर-दूर तक भटकते व तरसते देखा। यह देखकर मन खिन्न हुआ। परिवार के लोग चाहते थे कि बेटा जयपुर शहर में रहे और पढ़ाई-लिखाई कर कोई बड़ा अफसर बन जाए, लेकिन होना तो कुछ और ही था। लक्ष्मण सिंह का मन पढ़ाई में नहीं लगा। उन्हें हमेशा गाँव की चिन्ता सताती रहती थी। नतीजा यह हुआ कि गाँव भाग आए।
अपने गाँव के ही दो दोस्तों को साथ लिया और तय किया कि गाँव के युवक मिलकर अपना तालाब बनाएँगे। यहीं से बदलाव का सफर शुरू हुआ। तालाब बना तो गाँव के लोगों ने तारीफ की। बारिश हुई तो तालाब पानी से लबालब भर गया। फिर क्या था। हौंसला बढ़ने लगा। तय किया गया कि अगले साल कई तालाब बनाएँगे।
गाँव के युवक साथ जुड़ने लगे तो ग्राम विकास नवयुवक मंडल, लापोड़िया का गठन हो गया। इसके बाद एक तालाब तैयार किया गया, जिसका नाम रखा देवसागर। इसकी मरम्मत में सफलता मिलने के बाद तो सभी गाँव वालों ने देवसागर की पाल पर हाथ में रोली-मोली लेकर तालाब और गोचर की रखवाली करने की शपथ ली। इसके बाद फूल सागर और अन्न सागर की मरम्मत का काम शुरू हुआ।
खेतिहर परिवार में पैदा होने की वजह से गोचर की साज-संभाल करने, खेतों में पानी का प्रबंध करने, सिंचाई कर नमी फैलाने का अनुभव तो पीढ़ियों से था। इस बार उन्होंने पानी को रोकने और इसमें घास, झाड़ियाँ, पेड़-पौधों पनपाने के लिए चौका विधि का नया प्रयोग किया। इससे भूमि में पानी रुका और खेतों की बरसों की प्यास बुझी।
लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि जब उन्होंने पानी संरक्षण का अभियान चलाया तो उसी वक्त लोगों को साक्षर करने की भी शुरूआत हुई। एक छप्पर में निजी स्कूल की शुरूआत की गई। दिनभर लोग अपना कामधँधा करते थे और शाम को यहाँ एकजुट होकर पढ़ाई करते। तमाम बुर्जुगों ने इस अभियान के जरिए अपना नाम लिखना शुरू किया। इस क्लास में पढ़ाई के साथ ही पानी पेड़ और तालाब का महत्व भी समझाया जाता। फिर धीरे-धीरे लोगों को बात समझ में आने लगी और वे हमारे अभियान को ताकत देने लगे।
लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि उनके पास काफी खेती की जमीन हैं। आधा खेत खाली पड़ा रहता था। लेकिन चौका विधि शुरू होने से आधे से ज्यादा खेत में खेती होने लगी। अपने खेत में फसल हुई और नगदी घर में आई तो माता-पिता के साथ ही परिवार के अन्य सदस्य भी खुश हो गए। फिर क्या जो उनके काम का विरोध करते थे वे खुद सहयोग करने लगे।
गाँव के अन्य लोग भी सहयोगात्मक रवैया अपनाते हुए उनकी बात मानने लगे। इसके बाद भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए विलायती बबूल हटाने का देशी अभियान चलाया गया। यह भी सफल रहा। एक के बाद एक मिलती सफलता की वजह से गाँव के लोग खुले दिल से सहयोग करने लगे। लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि 1990 से 94 के बीच सिर्फ 25 बीघा चारागाह में यह व्यवस्था लागू की गई।
2-3 सालों में लापोड़िया गाँव का चारागाह पूरी तरह से विकसित हो गया। इसके असर से धीरे-धीरे दुधारू पशुओं की तादाद बढ़ने लगी और दूध के उत्पादन में अच्छी-खासी बढ़ोतरी हुई। गाँव में सुचारु रूप से चल रही दूध की डेयरी इसका सबूत है। चारागाह में पानी रूकने के चलते गाँव का भू-जल स्तर बढ़ा। लापोड़िया गाँव में 103 कुएँ हैं। 40 तालाब ऐसे हैं, जिनका पानी किसी मौसम में नहीं सूखता। यहाँ हुए इस प्रयोग के बाद हर साल गाँव से सामूहिक जल यात्रा निकलती है। यह यात्रा तमाम गाँवों का भ्रमण कर लोगों को पेयजल बचाने के प्रति जागरूक करती है।
चारागाह बना तो बढ़ा दूध का उत्पादन
लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि भूमि सुधार कर मिट्टी को उपजाऊ बनाया गया और गाँव के बहुत बड़े क्षेत्र को चारागाह के रूप में विकसित किया गया। इस गोचर में गाँव के सभी पशु चरते हैं। इससे गाँव में दुग्ध उत्पादन बढ़ने लगा। तमाम लोग जहाँ जानवरों को जी का जंजाल समझते थे, वे पशु-पालन से जुड़कर मुनाफा कमाने लगे।
गाँव में दुग्ध व्यवसाय अच्छा चल पड़ा। परिवार के उपयोग के बाद बचे दूध को सरस डेयरी को बेचा गया, जिससे अतिरिक्त आय हुई। इससे कितने ही परिवार जुड़े और आज स्थिति यह है कि दो हजार की जनसंख्या वाला यह गाँव प्रतिदिन 1600 लीटर दूध सरस डेयरी को उपलब्ध करा रहा है। उनके परिवार के लोग भी पशुपालन से जुड़कर आमदनी कर रहे हैं।
58 गाँवों तक पहुँच गया है चौका आन्दोलन
ग्राम विकास नवयुवक मंडल के सचिव लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि उन्होंने जो प्रयोग अपने गाँव में किया वह अब आस-पास के 58 गाँवों में पहुँच चुका है। तमाम गाँव के लोग इस विधि को देखते हैं और फिर अपने गाँव की चारागाह की भूमि पर इसे अपना रहे हैं। विभिन्न संस्थाओं के कार्यकर्ता उनके गाँव में आते हैं और गाँव वालों के साथ मिलकर पहले चारागाह की समस्या और गाँव की बुनियादी ज़रूरतों को समझते हैं। पूरे इलाके में फैला विकास और प्रबन्धन का यह फंडा तरक्की की नई राह दिखा रहा है।
पशु-पक्षियों की करते हैं रक्षा
लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि गाँव में पशुओं की सेवा के साथ पक्षियों की सेवा का भी संकल्प लिया गया है। यहाँ बागों में घुमने-फिरने वाले जानवरों एवं पक्षियों को मारने पर पाबंदी है। यदि किसी ने भूल से यह अपराध कर भी दिया तो उस पर पाँच हजार रूपये जुर्माना और पक्षियों के लिए पाँच किलो अनाज देने का प्रावधान किया गया है।
कैसे होता है काम
लक्ष्मण सिंह बताते है कि लापोड़िया हो या दूसरे गाँव। इन सभी गाँवों में फैसला सामूहिक होता है। गाँव के लोग बैठक करते हैं और इसमें तय करते हैं कि गोचर भूमि का कैसे विकास किया जाए। फिर गोचर भूमि पर होने वाली तालाब खुदाई में सभी श्रमदान करते हैं। गाँव के लोग सामूहिक रूप से सम्बन्धित तालाब का नामकरण करते हैं। इसी तरह पौधारोपण में भी सभी को यह आज़ादी है कि अपनी पसंद के अनुसार सम्बन्धित पौधे का नाम रखे।
एक के बाद एक मिला पुरस्कार
पानी संरक्षण और लोगों को जागरूक करने के लिए लक्ष्मण सिंह को एक के बाद एक पुरस्कार मिला। इस कार्य के लिए उन्हें सम्मानित किया। ग्राम पंचायत के बाद ब्लाॅक एवं जिला मुख्यालय से भी जल संरक्षण के लिए सम्माान मिला। इसी तरह केन्द्र सरकार की आरे से 1992 में नेशनल यूथ अवार्ड, 1994 में इन्दिरा प्रियदर्शनी वृक्ष अवार्ड एवं 2007 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल द्वारा जल संग्रहण अवार्ड प्रदान किया गया।
परिवार से बढ़ता गया हौसला
लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि उनके परिवार के लोग लगातार उनका हौसला बढ़ा रहे हैं। साथ ही उनके इस अभियान में सहयोग भी करते हैं। माता-पिता हमेशा जल संरक्षण की दिशा में आगे बने रहने की सलाह देते रहते हैं। वह बताते हैं कि उनके इस अभियान में सबसे बड़ा सहयोग भाइयों का रहा है। क्योंकि परिवार में सबसे बड़े होने की वजह से पिताजी चाहते थे कि नौकरी करूँ, लेकिन ऐसा न करने पर परिवार की अर्थव्यवस्था प्रभावित होने का खतरा था।
ऐसी स्थिति में भाई रामसिंह एवं मानसिंह ने खेती का काम सम्भाला। खेत के लिए भरपूर पानी का इन्तजाम हो गया तो उनका भी उत्साह बढ़ा और खेती होने लगी है। सब्जियों की खेती पर जोर रहता हे। ऐसे में पूरे परिवार का खर्चा चलाने के लिए खेती से आमदनी हो जाती है। खेती और पशुपालन से होने वाली आमदनी के जरिए परिवार में खुशहाली बरकरार है। तीन बेटियाँ हैं। तीनों की पढ़ाई-लिखाई के बाद शादी हो गई है और बेटा पढ़ाई कर रहा है।
क्या है चौका विधि
पानी बचाने के लिए खेतों एवं चारागाह भूमि पर अपनाई गई चौका विधि के बारे में जानकारी देते हुए लक्ष्मण सिंह ने बताया कि चौका एक आयताकार क्षेत्रफल है। इस क्षेत्रफल में गड्ढा खोदा जाता है। जिसमें तीन तरफ से पाल होती है और चौथी तरफ ढाल बनाया जाता है। इसी चौथी तरफ से जब गड्ढे में पानी भरता है और पानी ओवरफ्लो होता है तो बाहर निकल जाता है बाकि पानी अंदर मौजूद रहता है। एक तरह से यह तालाब जैसा गड्ढा होता है।
चौका में 9 इंच पानी के भार को सहन करने की क्षमता होती है। चौका के दोनों तरफ पाल की लम्बाई वहाँ तक जाती है जहाँ तक चौका की मुख्य पाल पर 9 इंच की ढाल बनी होती है। इस तरह पूरे चारागाह को कई चौकों में बाँटते हैं। चारागाह में 9 इंच पानी फैलने के बाद जरूरत से ज्यादा पानी गाँव के तालाब में लाते हैं। यह व्यवस्था की गई है कि सारे चौकों में 9 इंच पानी ही भरे ताकि घास नहीं गले।
यह भी ध्यान रखा गया कि दो चौकों के बीच की दूरी 3 मीटर हो जिससे पानी का दबाव पाल पर नहीं पड़े और चौकों में पानी ठहरने में किसी किस्म की समस्या भी न रहे। चौका बनाने के पहले सही माॅडल का चयन जमीन की स्थिति और बरसात की मात्रा, पानी के रास्ते की उपलब्धता और उसकी दिशा को ध्यान में रखकर किया जाता है।
चौका तकनीक में बरसात का पानी जहाँ गिरता है वहीं इकट्ठा होता है। इसमें लम्बे ढलान को छोटे-छोटे ढलानों में बाँटने से पानी बहने की रफ्तार इतनी कम हो जाती है कि जमीन का कटाव नहीं होता। इससे पानी का बहाव रूककर जमीन में ही भरता जाता है। साथ ही घास, झाड़ियाँ और पेड़-पौधों को फिर से उगाने में मदद मिलती है। सूखा पड़ने पर भी पानी की उपलब्धता बढ़ती है। इसकी खासियत यह है कि चौका से चौका तक पशु बगैर किसी रोकटोक के चराई कर सकते हैं लेकिन इसके बाद भी घास की अच्छी पैदावार बनी रहती है।
यह एक ऐसी तकनीक है जिसमें बहुत ज्यादा बरसात का पानी इकट्ठा किया जा सकता है। एक चौका अगर 75 गुना 50 मीटर का बनाया जाए तो उसमें 300.45 घन मीटर पानी इकट्ठा होता है। बरसात के अधिक पानी से तालाब को भी बचाया जा सकता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। सचिव, ग्राम विकास नवयुवक मंडल, ग्राम लापोड़िया, दूदू, जयपुर, राजस्थान), मो. 09414071843, 09928825503
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Post By: RuralWater