इस दौर में यह बात शायद ही किसी को गले उतर सके पर सच यही है। एक गाँव का पानी क्या खत्म हुआ। पानी के लिये यहाँ के पंडे पुजारियों ने जो तरकीब निकाली, उसे सुनकर हर कोई अचरज में पड़ जाये। पंडे–पुजारियों ने गाँव के लोगों को बताया कि गाँव पर अकाल का साया है और इसे दूर करने के लिये पूरे गाँव को खाली कर बाँधना पड़ेगा।
इतना ही नहीं मिट्टी के चूल्हे सहित मिट्टी का दूसरा सामान भी गाँव की सीमा के बाहर फेंकना पड़ेगा। गाँव के लोग तब तक गाँव की सीमा से बाहर ही रहें। उन्होंने जंगल में ही अपना समय बीताया और वहीं भोजन भी बनाकर खाया। पूरे दिन चली पाठ–पूजा के बाद गाँव को फिर से प्रवेश कराया गया।
मध्य प्रदेश के इस गाँव में वैसे तो गर्मी शुरू होते ही जलस्रोतों में पानी की कमी होने लगी थी लेकिन जब गाँव पीने के पानी से ही मोहताज होने लगा तो हालत बिगड़ने लगी। गाँव खेती करने वाले किसानों का ही है। ज्यादातर लोग किसान हैं और कुछ खेती में मजदूरी से काम करने वाले लोग। पानी खत्म होने लगा तो कैसी खेती–किसानी। लोगों की माली हालत भी बिगड़ने लगी। मवेशियों की बीमारियाँ बढ़ गई। लोग बीमार रहने लगे। एक के बाद एक ऐसी ही घटनाएँ गाँव में बढ़ी तो लोगों ने पंडे–पुजारियों से इसका कारण पूछा। उन्होंने बताया कि गाँव पर अकाल का साया पड़ चुका है।
पंडे–पुजारियों ने बताया कि इसके लिये टोटका करना पड़ेगा। इसके लिये पूरे गाँव को वीरान कर यहाँ के लोगों को जंगल में भेज दिया गया। उनके घरों के चौके–चूल्हे, अनाज भरने की मिट्टी की कोठियाँ भी गाँव की सीमा से बाहर करवा दिये गए। पाँच दिनों तक गाँव में पूजा और टोटके होते रहे। गाँव को चारों ओर से कच्चे सूत और नाड़े से बाँध दिया गया। दिन भर पूजा होती रही फिर दूसरे दिन एक बड़े समारोह के साथ ढोल–ढमाके से गाँव वालों ने फिर से प्रवेश कर गाँव को आबाद किया। इसके लिये गाँव के घर–घर से ढाई लाख रुपए का चंदा भी वसूला गया।
यह गाँव मध्य प्रदेश के चमचमाते शहर इंदौर से करीब 60 किमी दूर देवास जिले के हाटपीपल्या कस्बे के पास है। करीब दो हजार की आबादी वाले इस छोटे से गाँव पितावली में भी आसपास के गाँवों की तरह लगातार तीन साल से अनियमित बारिश तथा जलस्तर के नीचे चले जाने से पानी का संकट हो गया है।
ग्रामीण दिनेश कारपेंटर बताते हैं कि हालत यह हो गई कि गाँव में पीने के पानी तक की किल्लत होने लगी। लोगों को दूर खेतों से पानी लाने को मजबूर होना पड़ा। जिनके घरों में ट्रेक्टर या बैलगाड़ी थे, वे तो उस पर बाँधकर ड्रम भर लेते लेकिन जिनके यहाँ ये भी नहीं, उन घरों की औरतों को दो–दो कोस दूर से पैदल सिर पर घड़े लेकर आना पड़ रहा था।
पदमसिंह सेंधव बताते हैं कि बात पीने के पानी की ही नहीं है, पानी नहीं होने से किसानों की तो आर्थिक रूप से कमर ही टूटने लगी। सिंचाई के लिये खेतों पर जो ट्यूबवेल लगवाए थे, वे एक–एक कर सूखने लगे। जलस्तर 600–700 से बढ़कर 900 से एक हजार फीट तक पहुँच गया। दो–तीन साल पहले के चलते हुए ट्यूबवेल एकाएक बैठने लगे। पानी नहीं तो खेती कैसे करें कोई। खेती ही नहीं तो मजदूरों को काम कहाँ से मिले। बरसात की फसल भी कभी ज्यादा बारिश होने से तो कभी कम या अनियमित बारिश से सूखने लगी। किसानों ने घर की महिलाओं की सोने–चाँदी की रकम गिरवी रखकर या सहकारी संस्थाओं से ऋण लेकर खाद-बीज का, पानी का प्रबन्ध किया पर कहीं से कोई उम्मीद नहीं। एक के बाद एक फसल बर्बादी की भेंट चढ़ने लगी।
मोहनलाल वर्मा कहते हैं कि हमारे गाँव पर किसी की नजर लग गई। पहले यहाँ अच्छी खेती होती थी। काली मिट्टी बहुत उपजाऊ होती है। जब फसल आती तो घर–गोदाम भर जाते। गाँव भर में खुशहाली थी। कहीं कोई दुःख तकलीफ नहीं थी। लोगों ने बड़े–बड़े आवास ( पक्के घर) बनाए। तो कई किसान ट्रैक्टर, कारें खरीदे। बाइक तो घर–घर है। लोग रोटी पर रोटी रखकर खाते थे। पर पानी ने पूरा खेल बिगाड़ दिया।
भेरूसिंह पटेल बताते हैं कि पानी खत्म होने से यहाँ के लोगों को तरह–तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा। खेती–किसानी के काम भी रुक गए। लोगों की माली हालत कमजोर हो गई। साफ पानी नहीं मिलने से बीमारियाँ होने लगी। मवेशी भी बीमार पड़ने लगे। गाँव में आपदाएँ आने लगीं तो ग्रामीणों ने पंडे–पुजारियों से इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि गाँव से अकाल का साया दूर करने के लिये ठूनी माता (गाँव की अधिष्ठात्री देवी) का पूजा करना होगा।
बताया जाता है कि करीब साढ़े सात सौ साल पहले इस गाँव को बसाया गया था। उसके बाद से अब तक ठीक ढंग से पूजा–पाठ नहीं होने से ठूनी माता नाराज हो गई हैं। उनकी नाराजगी की वजह से ही गाँव के लोगों को तरह–तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। करीब दर्जन भर से ज्यादा पंडितों ने यह टोटका सम्पन्न कराया। पं उमाशंकर शर्मा और मुरलीधर तिवारी ने बताया कि गाँव में लगातार आ रही आपदा से यही लगता है कि गाँव पर अकाल का साया है। हमने गाँव की फिर से वास्तु पूजा करवाई है। अब भगवान और ग्रहों की कृपा इस गाँव पर रहेगी। अच्छी बारिश होगी और खेती–किसानी में बरकत रहेगी।
गाँव पटेल अनार सिंह ने बताया कि लोगों को पंडे–पुजारियों ने जैसे–जैसे बताया, उन्होंने वही सब किया। पाँच दिनों तक गाँव में लाउड स्पीकर पर मंत्र गूँजते रहे। मन्दिर में राम जी की पुरानी हटाकर नई मूर्ति स्थापित की गई। हवन हुआ, घी, सूखे मेवे की विशेष आहुतियाँ दी गई। रात–रात भर भजन–कीर्तन किये गए। उनके बताए अनुसार ही टोटका करने से पहले सारे गाँव वालों को मिट्टी के चूल्हे, मवेशियों और दूसरे सामानों के साथ सीमा से बाहर जंगल में भेज दिया गया। किसी का भी गाँव में प्रवेश वर्जित था। मवेशियों तक को बाहर कर दिया गया। गाँव को खाली करने के बाद उसे चारों सीमाओं से (करीब 5 किमी) गौमूत्र और गंगाजल छिटककर कच्चे सूत और पचरंगे नाड़े से बाँधकर उसे पूरी तरह से सील कर दिया गया। फिर अगले 24 घंटे तक यहाँ किसी का भी प्रवेश वर्जित रहा। कई पंडित पाठ–पूजा और मंत्र–तंत्र करते रहे। फिर तयशुदा समय पर एक ही तरफ से लोगों ने गाँव में प्रवेश किया। इसमें भी पहले गाय और बछिया, फिर सुहागिन स्त्रियाँ और फिर ढोल–ढमाकों के साथ नाचते–गाते गाँव के बाकी लोग। पहले उन्हें मन्दिरों में ले जाया गया। फिर अपने–अपने घर। घरों में अभिषेक के जल से नए चूल्हे बने और हवन की आग से ही उन्हें जलाया गया। इसके लिये घर–घर से करीब ढाई लाख रूपये का चंदा जुटाया गया। पाँच दिनों तक यह उत्सव मनाया गया।
इलाके में शिक्षा और समानता के मुद्दों पर काम करने वाले संगठन एकलव्य के दिनेश पटेल कहते हैं कि आज के दौर में भी पानी के लिये इस तरह के टोटकों पर विश्वास किया जा रहा है तो यह बहुत हैरान करने वाली बात है दरअसल इससे कुछ नहीं होने वाला। इस तरह की पूजा और टोटको से बारिश का पानी कैसे गाँव में रुक सकेगा। यह तो बहुत सामान्य सी बात है और थोड़ा भी पढ़ा–लिखा बच्चा इसे बता सकता है कि बारिश के पानी को जब तक गाँव में रोका नहीं जाएगा, उसे जल संरचनाएँ बनाकर धरती में नहीं भेजा जाएगा, तब तक गाँव में पानी कैसे रुक सकता है।
वे बताते हैं कि गाँव वालों को इसी जिले के टोंकखुर्द तहसील के गाँवों में देखना चाहिए कि वहाँ के किसानों ने कैसे अपने खेतों की कुछ जमीन पर तालाब बनवाए हैं और अब वे उसके पानी को खेती में इस्तेमाल कर अच्छी फसल उगा रहे हैं। टोटकों से न तो बारिश करवाई जा सकती है और न ही धरती से पानी उलीचा जा सकता है। बल्कि इन सबसे जरूरी यह है कि हम बरसाती पानी को बचाने के लिये तरीकों व तकनीकों का इस्तेमाल करें, उसे सहेजें। पानी होगा तो खेती से खुशहाली खुद आएगी।
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