पानी है अनमोल

कैसा जमाना आया कि जिस देश में दूध दही नहीं बिकता था, वहाँ अब पानी बिक रहा है। गरमी में लोग जगह-जगह प्याऊ खुलवाते थे, वहाँ अब पानी के पाऊच बिक रहे हैं। जहाँ नर्मदा किनारे के लोग नर्मदा के जल को अमृत मानकर आचमन करते थे, वहाँ उसी पानी को बोतलों और पाऊचों में भरकर बेचा जा रहा है। जहाँ प्यासे को पानी पिलाना पुण्य माना जाता है, वहाँ लोगों को प्यासा मारकर पाउच के जरिए उसकी प्यास और पानी का व्यापार किया जा रहा ङै। जहाँ का राजा सड़क बनाने के साथ ही पेड़ लगाना और जगह-जगह कुएँ –बावड़ी खुदवाकर, यात्रियों के जीवन के पानी को न मरने देने का संकल्प लेता था, वहाँ अब पाईप लाइनों का पानी कारखानों में जाकर बोतलबंद पानी के रूप में बाहर आ रहा है। यह मनुष्य के ‘जल-प्राप्ति के नैसर्गिक अधिकार’ का हनन है। मनुष्य अपने बौद्धिक अर्थ-सोच में इतना खूनी हो जाएगा, यह कल्पना भी नहीं की थी।

पानी बिकेगा और उसके कारोबार के चलते सामान्य जन के चेहरे का पानी उतार दिया जाएगा, ऐसा किसने सोचा था? जेठ तप रहा है। धरती जैसे भट्ठी हो गयी है। मैं मोटर की खिड़की से देखता हूँ- भरी दोपहरी में बिजली के तार पर नीलकंठ बैठा है। नीलकंठ बैठा है चुप और उदास। वह धरती पर मौसम की चुनौती को स्वीकार करता हुआ जीवन के पानी को बचाए हुए हैं। मुझे यह नीलकंठ भारतीय जन का असली प्रतिनिधि मालूम होता है। यह व्यवस्था को मौन रहकर सहता है और व्यवस्था से उपजी आँच को चुनौती भी देता है। एक दूसरा दृश्य मेरे सामने है। मैं रेल की खिड़की से झांकता हूँ। रेल नर्मदा के पुल को पार करती है। विन्ध्याचल और सतपूड़ा के सूखे और दरके अञ्चल और वनाञ्चल में पानी का टोटा पड़ा हुआ है। पुल के नीचे गहन गंभीर नर्मदा पत्थरों पर पानी के छन्द लिख रही है। मेरी आँखों का तारल्य कपोलों पर से लुढ़ककर वाष्प हो जाता है। नर्मदा को इस भीषण गर्मी में इतनी समृद्ध देखकर लगता है कि सारी विपरीत स्थितियों के बीच भी माँ की छाती का दूध हरा है। यह नदी जीवनवाही संस्कृति है।

लेकिन मैं नर्मदा पार करते देखता हूँ कि अगले स्टेशन पर प्लास्टिक की थैलियों में पानी बेचा जा रहा है। मेरा सारा दर्शन जमीन पर आ जाता है। मेरे सारे अच्छे विचारों के कंठ सूखने लगते हैं दिमाग भन्ना जाता है। नर्मदा के जल को बेचा जा रहा है। कुएँ-बावड़ियों को कूड़ा घर बना दिया है। नालों से टपकते पानी में जीवन के कई-कई बेईमान खेल खेले जा रहे हैं। आदमी का परोपकार देश से बाहर निकल गया है। धरती का पानी क्या सूखा जीवन का तारल्य भी वाष्प हो गया है। पानी का बिकना सृष्टि के एक तत्व का व्यापार में तब्दील हो जाना है। सृष्टि के लालित्य का करंसी में बदल जाना है। एक तरल गति का बोतल में बंद होकर कारोबार बन जाना है। एक स्वच्छन्द तत्व को पिंजरे में कैद करना है। कुल मिलाकर मनुष्य को निसर्गगत अधिकार की देखते-देखते हत्या कर देना है। मजे की बात है कि हम आप बेखबर है। बेपरवाह हैं। पाउच का पानी चूसकर और बोतल को मुँह में अड़ाकर अपने विकास पर गुमान कर रहे हैं। अपने ही चेहरे के पानी को रुपया में परिवर्तित होता देखकर धनी और ऊँचे खरीददार होने के पोचे सोच से भरे जा रहे है।

भई, कुछ भी हो, पर यह उच्च है कि जगह-जगह मोटर अड्डों, बाजारों, रेल्वे स्टेशनों और रेलों के अंदर पाउच औऱ बोतल बंद पानी बिक रहा है। पानी की दुकानें सजी हैं। मेरी जानकारी में नीमाड़ के दो गाँव ऐसे हैं। जहाँ अभी भी दूध नहीं बिकता है। ऐसे और भी गाव हो सकते हैं। पर उसी क्षेत्र और देश के अन्य हिस्सों में पानी बिक रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।

दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए कि आने वाले समय में शायद झीलें नीलाम होंगी। तालाबों पर ‘पानी’ के उद्योगपतियों का कब्जा होगा। नदियो के घाटों पर अलग-अलग कम्पनियों के नामपट्ट और चेतावनी लिखी रहेगी कि यह घाट और इसका पानी अमुक की सम्पत्ति है। तब नदी स्थान और अनुष्ठान धरे रह जाएगें। यह धन आदमी को चींटा बनाकर कहाँ और किस तरह दबोचेगा, यह गाफिल आदमी को पता नहीं है। आज रेलवे स्टेशन के नलों में पानी मिल रहा है, कल को क्या निश्चित है कि यह शीतल धार आदमी को अँजुरी में आने के बजाय बोतल में बंद होकर प्यास को ललचाएगी। आपकी गाँठ में पैसा है तो खरीदिए, अन्यथा मर जाइए। वैसे भी धरती पर बहुत भार बढ़ गया है। और फिर गरीब को क्या पानी औऱ क्या मौत? महत्ता तो धनपतियों की है। खासकर उनकी, जो नव-धनाढ्य हैं। जिनके पास पानी के माध्यम से पैसा पानी-सा बह रहा है। जो दूसरों के जीवन का पानी मारकर अपना पानी बचाने में लगे हैं। जो इस षड़यंत्र में शामिल हैं कि धरती पर सहज उपलब्ध पेयजल गंदा हो जाए या कम हो जाए औऱ उनके द्वारा तैयार किया गया बोतलबंद और पाउच का पानी खरीद कर पीने और जीने के लिए मजबूर हो जाएँ। यह जल-माफिया चम्बल के बीहड़ों में नहीं महानगरों के जंगलों में डकार रहा है।

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