पानी गटकते ताप विद्युत संयंत्र


अधिकांश मामलों में नगरों और शहरों को पानी इस उम्मीद के साथ आबंटित किया जाता है कि यह वापसी बहाव में सहायक होगा। क्योंकि घरेलू प्रयोग के बाद करीब 80 प्रतिशत पानी दोबारा नदी में मिलता है जिससे शहर के निचले इलाकों में प्रवाह बना रहता है। सैद्धान्तिक तौर पर यह रिर्टन फ्लो उपचारित जल का होना चाहिए, लेकिन अधिकांशतः यह नहीं होता लेकिन निचले क्षेत्रों में प्रवाह के लिये इसकी मौजूदगी अनिवार्य है। अतएव सीवेज को ताप विद्युत संयंत्रों की ओर मोड़ने से पहले बेसिन व उप बेसिन क्षेत्रों का आकलन कर लेना आवश्यक है। वैसे इसका इस्तेमाल सिंचाई में भी होता है। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे अकाल और पानी की बढ़ती कमी के दुःख भरे समाचार भी निरन्तर बढ़ते जा रहे हैं। ज्यादातर किस्से किसानों, पशुओं, परिस्थितियों और गाँवों, कस्बों, और शहरों में पीने के पानी की बढ़ती किल्लत पर एकाग्र हैं। परन्तु सामान्यतः उद्योगों खासकर कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्रों की स्थिति सामने नहीं आ रही है।

देश में पानी की कमी का ताप विद्युत संयंत्रों पर भी अत्यन्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इनके परिचालन में पानी की अत्यधिक आवश्यकता पड़ती है। पानी की आवश्यकता मुख्यतः उस भाप को ठंडा करने के लिये जिससे विद्युत उत्पादन होता है और कोयला जलने से पैदा हुई राख के निपटान के लिये, पड़ती है। एक सामान्य ताप विद्युत संयंत्र जिसकी उत्पादन क्षमता 1000 मेगावाट की हो, को प्रतिवर्ष 2.80 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है। जिससे कि 5,600 एकड़ कृषि भूमि की सिंचाई हो सकती है और इतना पानी करीब 5 लाख लोगों की घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पर्याप्त है।

पानी की इतनी आवश्यकता के चलते स्थानीय जल प्रणाली पर दबाव पड़ता है खासकर कम वर्षा वाले वर्षों में। इसके अलावा जिन क्षेत्रों में एक से अधिक विद्युत सयंत्र हैं वहाँ पर अक्सर स्थितियाँ प्रतिकूल बनी रहती हैं। अतएव पानी की वजह से या तो विद्युत संयंत्र बन्द हो जाते हैं अथवा इसके अन्य प्रयोग एवं उपभोक्ताओं पर असर पड़ता है। इस वर्ष ठीक ऐसा ही हुआ है।

इस वर्ष पानी की कमी की वजह से बन्द हुए ताप विद्युत संयंत्रों को अभी तक 8.7 अरब यूनिट विद्युत उत्पादन का नुकसान हो चुका है। यह आँकड़ा केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) द्वारा विद्युत संयंत्रों द्वारा प्रतिदिन किये गए उत्पादन को सार्वजनिक करने से ज्ञात हुआ है। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा महाराष्ट्र के बीड़ जिले में स्थित पारली ताप विद्युत संयंत्र का है जो कि पिछले कई वर्षों से पानी की कमी के कारण बन्द है।

यदि हम पारली को छोड़ भी दें तो पानी की कमी की वजह से संयंत्रों को 582 मिलियन यूनिट बिजली का नुकसान झेलना पड़ा है। यह आँकड़े 1 दिसम्बर 2015 से 24 अप्रैल 2016 के मध्य के हैं और इसमें पारली संयंत्र शामिल नहीं है, जो कि 1 अप्रैल 2015 से बन्द है। अन्य प्रभावित ताप विद्युत संयंत्रों में कर्नाटक के रायचुर एवं महाराष्ट्र के ईमको वारोरा ताप विद्युत संयंत्र शामिल हैं।

गौरतलब है कि वास्तविक हानि तो और अधिक होगी क्योंकि आँकड़ों में अप्रैल के आखिर तक की गणना है और पानी की वास्तविक कमी तो इसके बाद होती है जो मानसून की शुरुआत अर्थात जून के दूसरे हफ्ते तक जारी रहती है। वैसे देश में सन 2015-16 के दौरान कुल 1107 अरब यूनिट विद्युत उत्पादन हुआ। इसका अर्थ हुआ यह नुकसान देश के कुल उत्पादन का महज 0.7 प्रतिशत होता है। कुल उत्पादन के अनुपात में यह काफी कम है लेकिन किसी एक संयंत्र पर इसके अत्यन्त विपरीत वित्तीय प्रभाव पड़ते हैं।

इसके अलावा इन आँकड़ों से इतर पानी की कमी से होने वाली वास्तविक हानि बहुत अधिक होती है। इसके दो कारण हैं। पहला यह कि तमाम प्रस्तावित एवं उत्पादन के लिये पूरी तरह से तैयार संयंत्र भी पानी की कमी से प्रभावित होते हैं। इसका कारण यह है कि संयंत्र के आस-पास का क्षेत्र प्रभावित हो चुका होता है और वहाँ के जलस्रोतों पर दबाव पड़ना प्रारम्भ हो जाता है।

उदाहरणार्थ एनटीपीसी के कर्नाटक स्थित 2400 मेगावाट के कुडगि ताप विद्युत संयंत्र की पहली इकाई के मार्च 2016 में प्रारम्भ होने की सम्भावना थी। लेकिन कृष्णा नदी बेसिन में पानी की कमी के चलते और चूँकि पानी कृष्णा नदी एवं अलमाट्टी बाँध से लेना था और इनमें पानी की कमी का प्रभाव पहले ही रायचुर ताप विद्युत संयंत्र झेल रहा है, ऐसे में पानी की कमी के चलते इस संयंत्र को चालू नहीं किया जा सका।

इसी तरह एनटीपीसी के महाराष्ट्र के शोलापुर में स्थित 1320 मेगावाट के ताप विद्युत संयंत्र की पहली इकाई का संचालन (कमीशन) मई 2016 से प्रारम्भ होना था, को मार्च 2017 तक के लिये टाल दिया गया है। हालांकि इसका आधिकारिक कारण निर्माण में देरी बताया गया है लेकिन पानी की उपलब्धता भी एक गम्भीर मुद्दा है।

यह परियोजना अकाल प्रभावित क्षेत्र में स्थित है और इसे कृष्णा बेसिन में बहने वाली भीमा नदी पर स्थित उजानी बाँध से पानी देने का वायदा किया गया था। परन्तु इस वर्ष बाँध में वस्तुतः पानी का शून्य भण्डारण है। महाराष्ट्र सरकार ने सुझाव दिया है कि अब एनटीपीसी की बजाय बाँध से (शुद्ध) पानी लेने के शोलापुर नगर निगम से सीवर के उपचारित जल से संयंत्र के परिचालक करे।

यह सुझाव स्थायी इन्तजाम हेतु है न कि सिर्फ इसी वर्ष के लिये। वहीं एनटीपीसी का दावा है कि यह व्यवहार्य नहीं है क्योंकि यह काफी महंगा पड़ेगा और उपचारित जल की गुणवता जरूरतों के अनुकूल नहीं है। अतएव तकरीबन पूर्ण हो चुके संयंत्र का प्रारम्भ और परिचालन दोनों ही विलम्ब और अनिश्चितता के फेर में पड़ गए हैं। इस तरह के अन्य और भी मामले हैं।

दूसरा कारण यह है कि पानी के कमी के चलते अनेक मामलों में ताप विद्युत संयंत्र बन्द तो नहीं हुए लेकिन वे अपनी क्षमता से कम विद्युत उत्पादन कर पा रहे हैं। सीईए प्रतिदिन ‘प्रोग्राम्ड जनरेशन’ (उस दिन कितने उत्पादन की योजना बनी है) के साथ-ही-साथ वास्तविक उत्पादन के आँकड़े जारी करता है। इससे पता चलता है कि प्रोग्राम्ड जनरेशन अक्सर अधिकतम सम्भाव्य उत्पादन से काफी कम होता है। कम उत्पादन का कारण नहीं दिया जाता।

हमारा अन्देशा है कि वहाँ इतना पानी नहीं होता कि अधिकतम उत्पादन किया जा सके। इस वर्ष अभी तक पिछले वर्ष से ज्यादा का नुकसान हो चुका है। सीईए द्वारा ताप विद्युत संयंत्रों की कार्यक्षमता समीक्षा रिपोर्ट 2011-12 में बताया कि सन 2010-11 में 17 आउटेजेस (कितनी बार संयंत्र बन्द हुआ) में 3901.03 मिलियन यूनिट और सन 2011-12 में 10 आउटेजेस में पानी की कमी की वजह से 725.03 मिलियन यूनिट का नुकसान हुआ है।

दीर्घकालिक समस्याएँ-सामान्यतया प्रतीत होता है कि समस्या किसी विशिष्ट वर्ष में आई वर्षा में कमी से सम्बन्धित है। लेकिन यह एक व्यापक मूलभूत समस्या है। पानी को गटक जाने वाले इन ताप विद्युत संयंत्रों को न केवल अकाल प्रभावित क्षेत्रों में स्थापित किया गया है बल्कि इन्हें समूहों में स्थापित किया गया है। उदाहरण के लिये कर्नाटक के रायचुर में स्थित ताप विद्युत संयंत्र को इस वर्ष पानी की कमी की वजह से बन्द करना पड़ा लेकिन इसकी निकट परिधि में तीन अन्य ताप विद्युत संयंत्र 1600 मेेगावाट का यमरिस 800 मेगावाट का इडलापुर एवं 420 मेगावाट का वेड्लुट (केप्टिव) ताप विद्युत संयंत्र स्थापित हो रहे हैं।

एक अन्य उदाहरण उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित सिंगरौली क्षेत्र का है। वहाँ बड़ी संख्या में ताप विद्युत संयंत्र स्थापित हैं। इनमें से अधिकांश रिहंद जलाशय से पानी लेते हैं। केन्द्रीय जल निगम के आँकड़े दर्शाते हैं कि पिछले 10 वर्षों में मानसून के समाप्त होने पर रिहंद जलाशय में औसत भण्डारण केवल 47 प्रतिशत (अपनी क्षमता का) ही हो पाता है। इस तरह के क्षेत्रों में बड़ी संख्या में ताप संयंत्रों की स्थापना से पैदा होने वाले जल अकाल से पानी के अन्य उपयोेगकर्ताओं जैसे घरेलू उपभोक्ता और कृषि क्षेत्र का विद्युत उत्पादन क्षेत्र से संघर्ष का खतरा पैदा हो जाता है।

दुर्भाग्यवश ताप विद्युत संयंत्रों से सम्बन्धित वर्तमान नीति में पानी की कमी को ध्यान में ही नहीं रखा गया है। वास्तव में वर्तमान नीति बहुत सीमित है और काफी पुरानी पड़ चुकी है। लेखक को सूचना का अधिकार कानून के अन्तर्गत सन 1987 का एक दस्तावेज मिला जिसमें कि सिर्फ एक संयंत्र का जिक्र है। 10 पृष्ठों के इस दस्तावेज में ‘ताप विद्युत संयंत्रों हेतु पर्यावरणीय दिशानिर्देश’ को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा प्रकाशित किया गया था।

राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण द्वारा 23 मार्च 2012 को सोमपेरा ताप विद्युत संयंत्र मामले में कठोर निर्देश देने के बावजूद पर्यावरण एवं वन मंत्रालय इस नीति को सामयिक बना पाने में असफल रहा। इस मुद्दे पर एक महत्त्वपूर्ण कदम केन्द्रीय ऊर्जा मंत्रालय ने उठाया है। उनके अनुसार जहाँ तक सम्भव हो शुद्ध पानी के स्थान पर उपचारित सीवेज पानी का इस्तेमाल किया जाये। यह एक स्वागत योग्य कदम है, परन्तु इसे सावधानीपूर्वक ही उठाना पड़ेेगा क्योंकि इसमें काफी जोखिम भी है। ऐसा इसलिये क्योंकि सीवेज कचरा या फालतू चीज नहीं है।

अधिकांश मामलों में नगरों और शहरों को पानी इस उम्मीद के साथ आबंटित किया जाता है कि यह वापसी बहाव (रिटर्न फ्लो) में सहायक होगा। क्योंकि घरेलू प्रयोग के बाद करीब 80 प्रतिशत पानी दोबारा नदी में मिलता है जिससे शहर के निचले इलाकों में प्रवाह बना रहता है। सैद्धान्तिक तौर पर यह रिर्टन फ्लो उपचारित जल का होना चाहिए, लेकिन अधिकांशतः यह नहीं होता लेकिन निचले क्षेत्रों में प्रवाह के लिये इसकी मौजूदगी अनिवार्य है। अतएव सीवेज को ताप विद्युत संयंत्रों की ओर मोड़ने से पहले बेसिन व उप बेसिन क्षेत्रों का आकलन कर लेना आवश्यक है। वैसे इसका इस्तेमाल सिंचाई में भी होता है।

वास्तविकता तो यही है कि ताप विद्युत संयंत्र सीवेज या अन्य कोई भी पानी का प्रयोग करें। परन्तु वे पानी का अत्यधिक प्रयोग करते हैं अतएव पानी की कमी वाले इलाकों में इस तरह के संयंत्रों की स्थापना से बचना चाहिए। दीर्घावधि हेतु माकूल समाधान तो यही है कि कोयला आधारित संयंत्रों को सौर ऊर्जा जैसे ऊर्जा के माध्यमों से बदला जाना चाहिए। इससे न केवल पानी की बचत होगी बल्कि हमारा पर्यावरण भी विपरीत प्रभावों से बचा रह पाएगा।

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Post By: RuralWater
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