भारतीय जल पर बात करने के पारम्परिक दिवस कई हैं। 22 मार्च विश्व जल दिवस है, सो बात वैश्विक ही की जाए। भारत में नए विज्ञापनों में पानी की बचत के नुख्से मुँह, बर्तन, गाड़ी धोते वक्त नल खुले रखने के बजाय मग और बाल्टी के उपयोग तथा अनुशासित सिंचाई तक सीमित रहते हैं। लेकिन इस मामले में अन्तरराष्ट्रीय नजरिया बेहद बुनियादी और ज्यादा व्यापक है। यह नजरिया संयुक्त राष्ट्र द्वारा इस वर्ष विश्व जल दिवस के लिए घोषित विचार बिन्दु के भी बेहद करीब है। विश्व जल दिवस-2015 का घोषित विचार बिंदु है- पानी और टिकाऊ विकास। भौतिक विकास, टिकाऊ विकास का एक हिस्सा है। लेकिन यह सच है कि यदि प्राकृतिक संसाधनों का प्रवाह सतत बना रहे तो समग्र के बाकी पहलुओं के सतत प्रवाह की सम्भावना हमेशा बनी रहेगी।
जाहिर है कि खेती, उद्योग, निर्माण के भौतिक विकास को टिकाए रखने के लिए जरूरी है- ऊर्जा। ऊर्जा बनाने के लिए जरूरी है- पानी। पानी और ऊर्जा अलग न किए जा सकने वाले दो मित्र हैं। पानी है तो ऊर्जा है और ऊर्जा है तो पानी है। ऊर्जा बचेगी तो पानी बचेगा और पानी बचेगा तो ऊर्जा बचेगी। दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है, जो बगैर ऊर्जा के पैदा या निर्मित हो सकता हो और ऊर्जा का कोई स्रोत ऐसा नहीं, जो बिना पानी के ऊर्जा पैदा कर सकता हो। यह बात जगजाहिर है, इसके बावजूद हम न पानी के उपयोग में अनुशासन और दक्षता ला पा रहे हैं और न ही ऊर्जा के।
खेती, उद्योग, निर्माण के भौतिक विकास को टिकाए रखने के लिए जरूरी है- ऊर्जा। ऊर्जा बनाने के लिए जरूरी है- पानी। पानी और ऊर्जा अलग न किए जा सकने वाले दो मित्र हैं। पानी है तो ऊर्जा है और ऊर्जा है तो पानी है। ऊर्जा बचेगी तो पानी बचेगा और पानी बचेगा तो ऊर्जा बचेगी।असली चिन्ता सन्तुलन साधने की होनी चाहिए। प्रकृति है तो पानी है। पानी है तो प्रकृति का हर जीव है — पारिस्थितिकी है। समृद्ध जल सम्पदा के बगैर पारिस्थितिकीय समृद्धि सम्भव नहीं है। पारिस्थितिकीय समृद्धि के बगैर जल समृद्धि की कल्पना करना ही बेवकूफी है। विश्व जल दिवस के प्रणेताओं की चिन्ता है कि जलचक्र, अपना अनुशासन और तारतम्य खो रहा है। प्रकृति और इंसान की बनाए ढाँचों के बीच में सन्तुलन कैसे बने? प्रकृति को बदलने का आदेश हम दे नहीं सकते। हम अपने रहन-सहन और आदतों को प्रकृति के अनुरूप कैसे बदलें? क्या करें कि शुद्ध-स्वच्छ पानी की उपलब्धता और उस तक आबादी की पहुँच भी बनी रहे और सतत विकास प्रक्रिया भी बाधित न हो? इस वर्ष विश्व जल दिवस के घोषित लक्ष्य वाक्य की मूल चिन्ता यही है।
सवाल यह भी है कि स्लम बढ़ें या गाँव रहें? सब जानते हैं कि पानी बसाता है। सारी सभ्यताएँ पानी के किनारे ही बसीं। किन्तु यह वैश्विक आँकड़ा हमारी जानकारी और सभ्यता दोनों को मुँह चिढ़ा रहा है कि हर सप्ताह करीब 10 लाख लोग अपनी जड़ों से उखड़ कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। 7400 लाख लोगों को वह पानी मुहैया नहीं, जिसे किसी भी मुल्क के मानक पीने योग्य मानते हैं। पानी की मात्रा तो एक सवाल है ही, पानी की गुणवत्ता इससे बड़ा सवाल बनकर उभर रही है। यह समस्या इतनी बड़ी है कि यदि हम पाँच साल तक 107 बिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च करें, तब भी शायद ही इसका समाधान ढूँढ़ पाएँ।
एक स्वीमिंग पूल जितना पानी एक कार के निर्माण में खर्च हो रहा है। एक छोटी रसोई की जरूरत का पानी दो छोटी कार धोने में बर्बाद करने से हम चूक नहीं रहे। कागज का एक चार्ट बनाने में साढे़ दस लीटर, प्लास्टिक शीट बनाने में 91 लीटर पानी लगता है।दुनिया में शहरीकरण की रफ्तार इतनी तेज है कि आज दुनिया में हर दो में से एक परिवार शहरी है। 2050 तक ढाई बिलियन लोग शहरों में रहने लगेंगे। ऐसे में शहरों में आबादी भी बढ़ रही है और स्लम भी। पानी के पाइप बढ़ रहे हैं, कचरा भी और बीमारी भी। जोर इलाज पर है। बीमारी हो ही नहीं, आखिर इस पर कब जोर दिया जाएगा? पानी को भी इसी का इन्तजार है। आखिर यह कैसी सभ्यता की सदी है कि हम अपनी जड़ों से उखड़ भी रहे हैं और खुद ही जड़ों को उखाड़ भी रहे हैं। गाँव की खुली आबाद आबोहवा के बाजुओं से भागकर गन्दगी और सीलन व उमस भरे स्लम में बसने की सभ्यता को विकास कैसे कहा जा सकता है? शुक्र है कि भारत अभी भी गाँवों का देश है, किन्तु आगे कब तक ऐसा रहेगा? आगे चलकर सबसे ज्यादा तेज शहरी होते देश भारत, चीन और नाइजीरिया ही होंगे। चिन्ता इसकी भी है।
सब जानते हैं कि स्वच्छ पानी घट रहा है और जलस्रोत सिमट रहे हैं। आबादी बढ़ने के कारण जरूरत बढ़ रही है, किन्तु प्रति व्यक्ति खपत घट नहीं रही है। इसके उलट उपभोग बढ़ता जा रहा है। सन् 2000 की तुलना में सन् 2050 तक पानी की वैश्विक माँग के 400 फीसदी तक बढ़ जाने की उम्मीद है। एक स्वीमिंग पूल जितना पानी एक कार के निर्माण में खर्च हो रहा है। एक छोटी रसोई की जरूरत का पानी दो छोटी कार धोने में बर्बाद करने से हम चूक नहीं रहे। कागज का एक चार्ट बनाने में साढे़ दस लीटर, प्लास्टिक शीट बनाने में 91 लीटर पानी लगता है। कितनी लम्बी सूची पेश की जाए। हर चीज बनाने में पानी ही तो लगता है, किन्तु हम हैं कि चीजों का उपयोग से ज्यादा दुरुपयोग करने से बाज नहीं आ रहे। जेब में वह न करने की शक्ति को हमने जरूरत से ज्यादा खर्च और बर्बाद करने की आजादी समझ लिया है।
हम खाएँ इच्छा भर, किन्तु थाली में छोड़ें नहीं कण भर। यह कब सीखेंगे हम? जितनी जरूरत हो, उतना उपयोग जरूर करें, किन्तु उपभोग से दूर रहें। उपयोग और उपभोग के अन्तर को समझें। आप कोई भी वस्तु बचाएँगे तो सच मानिए कि इससे अन्तत: पानी की ही बचत होगी। हमारे जीवन में वस्तु उपयोग से जलोपयोग का अनुशासन कैसे आए, यह सोचने की जरूरत है। एक सोए हुए नन्हे बीज को जागने से लेकर पनप कर दोहरी डालियों में बदलने में करीब 15 हजार लीटर पानी लगता है। इस विश्व जल दिवस की चिन्ता यह भी है कि हमें पानी पीकर बड़ी हुई इन हरी टहनियों की चिन्ता क्यों नहीं है? विश्व जल दिवस की चिन्ता उन करोड़ों बाजुओं की भी चिन्ता है, जो आज भी अपनी दिनचर्या का 15 प्रतिशत समय पानी ढोकर लाने में खर्च करने को मजबूर हैं।
लेखक का ई-मेल : amethiarun@gmail.com
जाहिर है कि खेती, उद्योग, निर्माण के भौतिक विकास को टिकाए रखने के लिए जरूरी है- ऊर्जा। ऊर्जा बनाने के लिए जरूरी है- पानी। पानी और ऊर्जा अलग न किए जा सकने वाले दो मित्र हैं। पानी है तो ऊर्जा है और ऊर्जा है तो पानी है। ऊर्जा बचेगी तो पानी बचेगा और पानी बचेगा तो ऊर्जा बचेगी। दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है, जो बगैर ऊर्जा के पैदा या निर्मित हो सकता हो और ऊर्जा का कोई स्रोत ऐसा नहीं, जो बिना पानी के ऊर्जा पैदा कर सकता हो। यह बात जगजाहिर है, इसके बावजूद हम न पानी के उपयोग में अनुशासन और दक्षता ला पा रहे हैं और न ही ऊर्जा के।
खेती, उद्योग, निर्माण के भौतिक विकास को टिकाए रखने के लिए जरूरी है- ऊर्जा। ऊर्जा बनाने के लिए जरूरी है- पानी। पानी और ऊर्जा अलग न किए जा सकने वाले दो मित्र हैं। पानी है तो ऊर्जा है और ऊर्जा है तो पानी है। ऊर्जा बचेगी तो पानी बचेगा और पानी बचेगा तो ऊर्जा बचेगी।असली चिन्ता सन्तुलन साधने की होनी चाहिए। प्रकृति है तो पानी है। पानी है तो प्रकृति का हर जीव है — पारिस्थितिकी है। समृद्ध जल सम्पदा के बगैर पारिस्थितिकीय समृद्धि सम्भव नहीं है। पारिस्थितिकीय समृद्धि के बगैर जल समृद्धि की कल्पना करना ही बेवकूफी है। विश्व जल दिवस के प्रणेताओं की चिन्ता है कि जलचक्र, अपना अनुशासन और तारतम्य खो रहा है। प्रकृति और इंसान की बनाए ढाँचों के बीच में सन्तुलन कैसे बने? प्रकृति को बदलने का आदेश हम दे नहीं सकते। हम अपने रहन-सहन और आदतों को प्रकृति के अनुरूप कैसे बदलें? क्या करें कि शुद्ध-स्वच्छ पानी की उपलब्धता और उस तक आबादी की पहुँच भी बनी रहे और सतत विकास प्रक्रिया भी बाधित न हो? इस वर्ष विश्व जल दिवस के घोषित लक्ष्य वाक्य की मूल चिन्ता यही है।
सवाल यह भी है कि स्लम बढ़ें या गाँव रहें? सब जानते हैं कि पानी बसाता है। सारी सभ्यताएँ पानी के किनारे ही बसीं। किन्तु यह वैश्विक आँकड़ा हमारी जानकारी और सभ्यता दोनों को मुँह चिढ़ा रहा है कि हर सप्ताह करीब 10 लाख लोग अपनी जड़ों से उखड़ कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। 7400 लाख लोगों को वह पानी मुहैया नहीं, जिसे किसी भी मुल्क के मानक पीने योग्य मानते हैं। पानी की मात्रा तो एक सवाल है ही, पानी की गुणवत्ता इससे बड़ा सवाल बनकर उभर रही है। यह समस्या इतनी बड़ी है कि यदि हम पाँच साल तक 107 बिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च करें, तब भी शायद ही इसका समाधान ढूँढ़ पाएँ।
एक स्वीमिंग पूल जितना पानी एक कार के निर्माण में खर्च हो रहा है। एक छोटी रसोई की जरूरत का पानी दो छोटी कार धोने में बर्बाद करने से हम चूक नहीं रहे। कागज का एक चार्ट बनाने में साढे़ दस लीटर, प्लास्टिक शीट बनाने में 91 लीटर पानी लगता है।दुनिया में शहरीकरण की रफ्तार इतनी तेज है कि आज दुनिया में हर दो में से एक परिवार शहरी है। 2050 तक ढाई बिलियन लोग शहरों में रहने लगेंगे। ऐसे में शहरों में आबादी भी बढ़ रही है और स्लम भी। पानी के पाइप बढ़ रहे हैं, कचरा भी और बीमारी भी। जोर इलाज पर है। बीमारी हो ही नहीं, आखिर इस पर कब जोर दिया जाएगा? पानी को भी इसी का इन्तजार है। आखिर यह कैसी सभ्यता की सदी है कि हम अपनी जड़ों से उखड़ भी रहे हैं और खुद ही जड़ों को उखाड़ भी रहे हैं। गाँव की खुली आबाद आबोहवा के बाजुओं से भागकर गन्दगी और सीलन व उमस भरे स्लम में बसने की सभ्यता को विकास कैसे कहा जा सकता है? शुक्र है कि भारत अभी भी गाँवों का देश है, किन्तु आगे कब तक ऐसा रहेगा? आगे चलकर सबसे ज्यादा तेज शहरी होते देश भारत, चीन और नाइजीरिया ही होंगे। चिन्ता इसकी भी है।
सब जानते हैं कि स्वच्छ पानी घट रहा है और जलस्रोत सिमट रहे हैं। आबादी बढ़ने के कारण जरूरत बढ़ रही है, किन्तु प्रति व्यक्ति खपत घट नहीं रही है। इसके उलट उपभोग बढ़ता जा रहा है। सन् 2000 की तुलना में सन् 2050 तक पानी की वैश्विक माँग के 400 फीसदी तक बढ़ जाने की उम्मीद है। एक स्वीमिंग पूल जितना पानी एक कार के निर्माण में खर्च हो रहा है। एक छोटी रसोई की जरूरत का पानी दो छोटी कार धोने में बर्बाद करने से हम चूक नहीं रहे। कागज का एक चार्ट बनाने में साढे़ दस लीटर, प्लास्टिक शीट बनाने में 91 लीटर पानी लगता है। कितनी लम्बी सूची पेश की जाए। हर चीज बनाने में पानी ही तो लगता है, किन्तु हम हैं कि चीजों का उपयोग से ज्यादा दुरुपयोग करने से बाज नहीं आ रहे। जेब में वह न करने की शक्ति को हमने जरूरत से ज्यादा खर्च और बर्बाद करने की आजादी समझ लिया है।
हम खाएँ इच्छा भर, किन्तु थाली में छोड़ें नहीं कण भर। यह कब सीखेंगे हम? जितनी जरूरत हो, उतना उपयोग जरूर करें, किन्तु उपभोग से दूर रहें। उपयोग और उपभोग के अन्तर को समझें। आप कोई भी वस्तु बचाएँगे तो सच मानिए कि इससे अन्तत: पानी की ही बचत होगी। हमारे जीवन में वस्तु उपयोग से जलोपयोग का अनुशासन कैसे आए, यह सोचने की जरूरत है। एक सोए हुए नन्हे बीज को जागने से लेकर पनप कर दोहरी डालियों में बदलने में करीब 15 हजार लीटर पानी लगता है। इस विश्व जल दिवस की चिन्ता यह भी है कि हमें पानी पीकर बड़ी हुई इन हरी टहनियों की चिन्ता क्यों नहीं है? विश्व जल दिवस की चिन्ता उन करोड़ों बाजुओं की भी चिन्ता है, जो आज भी अपनी दिनचर्या का 15 प्रतिशत समय पानी ढोकर लाने में खर्च करने को मजबूर हैं।
लेखक का ई-मेल : amethiarun@gmail.com
Path Alias
/articles/paanai-aura-taikaau-vaikaasa-maen-kaaisae-hao-sanataulana
Post By: birendrakrgupta