पानी अक्षय नहीं अमूल्य


भारत में वर्षा मौसमी होती है तथा कुल वार्षिक औसतन 1170 मि.मी. होती है वह भी केवल तीन महीने में। बरसात अपना पूरा कार्यक्रम 200 घंटे में निबटा लेती है और इसका आधा हिस्सा बीस से तीन घंटों में संपन्न हो जाता है। यही कारण है कि बारिश का बहुत सारा पानी व्यर्थ बह जाता है।

हमारे जीवन में पानी के महत्त्व को रेखांकित करने की आवश्यकता नहीं, वह तो सर्वविदित है। जल ही हमारा रक्षक है, जल से प्रारंभ है और प्रारब्ध भी। जल सृष्टि का आदि तत्व है, वह न केवल जीवन को धारण करता है, बल्कि स्वयं जीवन है। लेकिन हमारे यहाँ पानी पुराण तब प्रारंभ होता है जब गर्मी के मौसम में पानी की किल्लत जोर-जोर से हमारे कानों में दस्तक देने लगती है।

जल एक चक्र है, नदियों का जल सागर में बहता है वे सागर को सागर से जोड़ती हैं, मेघ वाष्प बनकर आकाश में छा जाते हैं और बरसात करते हैं, यही वर्षा का जल पुनः नदियों को मिलता है। आदिकाल से यह चक्र अनवरत जारी है। अर्थात वर्षा के रूप में बरसना और भाप बनकर उड़ जाना, बादल बनाना और फिर बरस पड़ना यही उसका क्रम है। यही जलचक्र समस्त जीवनक्रियाओं का मूल है। फिर क्या कारण है कि आज धरती का पानी मर रहा है और मरता हुआ पानी जीते जी आदमी को भी मार रहा है। यह त्रासदी ही कही जाएगी कि पृथ्वी का तीन हिस्सा पानी से ढका है फिर भी पृथ्वी प्यासी है।

आज जल संकट एक ज्वलंत समस्या बन चुका है। घर परिवार से लेकर शहर, देश-विदेश हर स्थान पर पानी की समस्या प्रमुखता से उपस्थित है। प्रश्न है कि यह बरसता पानी आखिर कहाँ चला जाता है? हम मंगल ग्रह पर पानी की तलाश का अभियान चला रहे हैं लेकिन धरती पर उपलब्ध पानी के समुचित प्रबंध के बारे में गंभीरतापूर्वक नहीं सोच रहे, क्यों?

पेड़ों को, जंगलों को साफ कर, पानी गिरने का रास्ता और पानी रोकने का रास्ता पहले ही हमने रोक रखा है। पानी की प्रचुर उपलब्धता को देखते हुए हमने उसके महत्व और कमी का सही रूप में आकलन नहीं किया और पानी की तरह पानी बहाते रहे। ऐसा करते हुए एक दिन बूँद-बूँद पानी के लिये तरसने की नौबत आ जाएगी, ऐसा सोचा भी नहीं था।

धरती पर उपलब्ध सारा पानी पीने योग्य नहीं है यानी 3 प्रतिशत ही पीने योग्य है। बाकी 97 प्रतिशत खारा पानी है। इसलिए जल की प्रत्येक बूँद अनमोल है अतएव उसका मोल पहचानते हुए उसे व्यर्थ होने से बचाना भी हमारा परम और अहम कर्तव्य है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि सन 2020 तक अभी की अपेक्षा 17 प्रतिशत अधिक पानी की जरूरत होगी और तब तक कोई समाधान नहीं निकल पाया तो 2025 तक संसार की दो-तिहाई आबादी पानी की समस्या से बुरी तरह दो-चार हो रही होगी। वैसे भी पानी की उपलब्धता विगत वर्षों से निरंतर घट रही है। सन 1951 में 5177 क्यूबिक मीटर से 2001 में 1869 क्यूबिक मीटर तक आ पहुँची है और अनुमान है कि 2025 में यह और गिरकर 1341 क्यू.मी. तक आ पहुँचेगी तथा 2030 में 1000 क्यू.मी. तो 2050 में 800 क्यू.मी. तक पहुँच जाएगी।

पानी को एक अक्षय नहीं अमूल्य निधि समझकर इसे भूमि के अंदर सुरक्षित बैंक लॉकर में रखना आज की महती आवश्यकता है अन्यथा हमारा बैंक बैलेंस निरंक होने से किसी प्रकार भूमि से वापस प्राप्त होना मुमकिन नहीं होगा।

लेखक परिचय


डॉ. सेवा नन्दवाल
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