पानी तेरा दास जग, तू ही जग की आस।
सब में तेरा वास है, सबमें तेरी प्यास।।
जड़-चेतन, जीवन-जगत्, सृजन और विध्वंस।
सब पानी के अंश हैं, सब पानी के वंश।।
पानी है तो प्राण हैं, पानी है तो देह।
पानी है तो आँख में, जिन्दा जग का स्नेह।।
पड़े न वृक्षों पर कभी, बुरी किसी की दृष्टि।
वृक्षों से जल, और है, जल से सारी सृष्टि।।
ताल, नदी, नाले, कुएँ, पोखर, झरने, झील।
मानव की नादानियाँ, रही सभी को लील।।
पानी का हर रूप है, जीवन का पर्याय।
आँसू, खुशियाँ, वेदना, सब इसके अध्याय।।
बचे रहें संवेदना के जग में कुछ बीज।
रखो बचाकर इसलिये, पानी-जैसी चीज।।
धरती-सा ही हो सदा, सबका हृदय विशाल।
साथ-साथ सब रह सकें, नदियाँ,झरने, ताल।।
सावन तो आया, मगर, गया न अब तक जून।
रहिमन खड़े निहारते, बिन पानी सब सून।।
ताल, नदी, नाले, कुएँ खेत और खलिहान।
पसरा सबकी देह पर, निर्मम-रेगिस्तान।।
नेताओं-सी बाँटकर, आश्वासन की खीर।
बादल आये, चल दिये, बिन बरसे बे-पीर।।
नदिया बंजारन हुई, विधवा हुई जमीन।
सूखा-सावन ले गया, सबका सब कुछ छीन।।
गुमसुम- गुमसुम से लगें, कजरी और मल्हार।
लेकर छूँछी-झोलियाँ, बरखा आई द्वार।।
गर्म रेत की सेज पर, नदिया पड़ी उदास।
सावन को सूखा लगा, कौन बुझाये प्यास।।
काजल रोया रात-भर, दिन भर रोये केश।
पुरवाई लाई नहीं, प्रियतम का संदेश।।
असमय विधवा बधू-सा, हुआ नदी का गात।
वो इठलाना-झूमना, गये दिनों की बात।।
सब में तेरा वास है, सबमें तेरी प्यास।।
जड़-चेतन, जीवन-जगत्, सृजन और विध्वंस।
सब पानी के अंश हैं, सब पानी के वंश।।
पानी है तो प्राण हैं, पानी है तो देह।
पानी है तो आँख में, जिन्दा जग का स्नेह।।
पड़े न वृक्षों पर कभी, बुरी किसी की दृष्टि।
वृक्षों से जल, और है, जल से सारी सृष्टि।।
ताल, नदी, नाले, कुएँ, पोखर, झरने, झील।
मानव की नादानियाँ, रही सभी को लील।।
पानी का हर रूप है, जीवन का पर्याय।
आँसू, खुशियाँ, वेदना, सब इसके अध्याय।।
बचे रहें संवेदना के जग में कुछ बीज।
रखो बचाकर इसलिये, पानी-जैसी चीज।।
धरती-सा ही हो सदा, सबका हृदय विशाल।
साथ-साथ सब रह सकें, नदियाँ,झरने, ताल।।
सावन तो आया, मगर, गया न अब तक जून।
रहिमन खड़े निहारते, बिन पानी सब सून।।
ताल, नदी, नाले, कुएँ खेत और खलिहान।
पसरा सबकी देह पर, निर्मम-रेगिस्तान।।
नेताओं-सी बाँटकर, आश्वासन की खीर।
बादल आये, चल दिये, बिन बरसे बे-पीर।।
नदिया बंजारन हुई, विधवा हुई जमीन।
सूखा-सावन ले गया, सबका सब कुछ छीन।।
गुमसुम- गुमसुम से लगें, कजरी और मल्हार।
लेकर छूँछी-झोलियाँ, बरखा आई द्वार।।
गर्म रेत की सेज पर, नदिया पड़ी उदास।
सावन को सूखा लगा, कौन बुझाये प्यास।।
काजल रोया रात-भर, दिन भर रोये केश।
पुरवाई लाई नहीं, प्रियतम का संदेश।।
असमय विधवा बधू-सा, हुआ नदी का गात।
वो इठलाना-झूमना, गये दिनों की बात।।
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Post By: RuralWater