पानी पर लिखी ये कवितायें नर्मदा जल सत्याग्रह के जन-संघर्ष को समर्पित हैं और पानीदार होने का दिखावा करने वाली इस असंवेदनशील व्यवस्था के विरोध में एक बयान है। इस सत्याग्रह ने पानी को एक संघर्ष के प्रतीक में बदल दिया है...।
कहते हैं
जब कुछ नहीं था
पानी था।
और जब
नहीं बचेगा कुछ भी
तब
पानी रहेगा।
जो बह गए
हमारे खेत हैं
जो बहाए गए
हमारे घर थे
जो बह रही हैं
हमारी जमीनें हैं
ये सूरतें जो तुम्हें बेजुबान लगती हैं
अभी जिंदा हैं सत्याग्रह पर बैठी हैं
इन पसलियों में लोहा भरा है
एक तरफ
तुम्हारे मंसूबों का ऊँचा पहाड़ खड़ा है
एक तरफ
तबाही औ’ दुःख में
छिपे हैं हमारे बेकुसूर युद्ध
तुम्हारी चुनौतियां
अब नहीं डराती
आश्वासन का
अब कोई खतरा भी नहीं।
कलेजे तक चढ़ आया है पानी
सीने तक उफना रहा है
छातियों में बुलबुले भर रहा है
तलवों में पानी के छाले हैं
आँतों में पानी के निवाले हैं
पसलियां ठिठुरती हुई अभी-अभी कांपी हैं
अभी जरा-जरा तुम्हारी नीयत भांपी है
यूँ ही
कुछ देर और सही,
इक जरा सी चीख, उठे
विस्फोट अभी बाकी है
मैं उन आवाजों का गुलाम नहीं
जिन्हें रेत पर लिखा गया
और प्रपात ने मिटा दिया
मैं उन आवाजों का मुरीद हूँ
जो पानी पर चढ़कर बोल रही हैं
पाँव के घाव-घाव चीख-पुकार मचा रहे
घमासान युद्ध के अजेय-राग बजा रहे
हथेलियों पर मेंहदी के दाग सब धुल गए
आक्रोश औ’ बगावत का लहू बह रहा है
वो आवाजें
अब मिटने को कतई राजी नहीं
उन्हें एक फैसले की दरकार है
जो पानी पर इस तरह लिखी जाएँ
कि उसे तमाम तारीखें याद करें
मानो
देह में ये पानी इस कदर घुल गया है
यकीनन
संघर्ष का फलसफा सही अर्थों में मिल गया है।
पानी में
ज्वार का दबाव बढ़ रहा है
इतनी गहराई नहीं कि कंठ रुंध सके
हाँ,
सतह पर नमी जरूरत से कहीं ज्यादा है
किन्तु ये नमी देह को गला नहीं सकती
पुख्ता इक-इक ख्याल बरगला नहीं सकती
देखो ये मौजूं मछलियाँ घाव सहला रही हैं
उपेक्षाएं सहती हुई भट्ठियां सुलगा रही हैं
एक सन्देश
पानी के बहाने ठिकाने जा लगा है
बस्तियों का लावा हुकूमतें धमका रहा है
गौर से सुनो,
पानी की बुदबुदाहटें,
कहीं
अभियान का इक दस्ता सुरंगें बनाये हुए
पानी संसद की नींव तक बढ़ता जा रहा है।
जानता हूँ प्लासी के युद्ध में
सभी हथकंडे तुम्हारे थे
और हम हारे थे
किन्तु पानी की इस जंग में
युद्ध जीतेगा वही
जो इस पानी को पीना औ’ पचाना जानता है
जो पानी में रहकर दुनिया बसाना जानता है
तुम हत्यारे हो, हत्यारे ही रहोगे
हो जाओ चाहे जितने बड़े
किन्तु, तुम्हारे हथियार
पानी पर खड़ी सेनाएं काट नहीं सकते
तुम बारूदी विस्फोट से इन इरादों को पाट नहीं सकते
ये बमवर्षक उड़नखटोले पानी की इक धार से मारे जायेंगे
अगर करनी है हुकूमत पानी पर
तो हर साँस-साँस पानी का सामना करना पड़ेगा
कवच औ काई पर फिसलना, संभलना पड़ेगा
इस सरोवर में
हवा है, नमक है, आग है, और पानी है
लहरों में बहती हुई खून की रवानी है
नाव घाट पर जो लगी हैं मत समझना बेसुध इन्हें
पार जाना चाहोगे, चले जाओगे
मझधार में उतरकर साम्राज्य बनाना चाहोगे
भंवर की जरा सी चाप से कटकर बिखर जाओगे।
ये राजा-रानी की किस्सागोई नहीं
पानी की कहानी है
पानी की जुबानी है
पानी को सुनानी है
तुम्हारे महल की प्राचीरों में हों भले ही गुलाम
किन्तु इसमें नदी की देह का पानी समा नहीं सकता
ये दुर्गम पहाडियाँ और बह रहा झरना, है हमारी विरासत
साम्राज्य की चौखट औ’ गुम्बद पे माथा टिका नहीं सकता
पानी का प्रकोप अभी कहाँ देखा है तुमने
पानी का श्राप, आतंक अभी कहाँ झेला है
पानी पर रची है हमने ये दुनिया
पानी पर उतरा रहा है ब्रह्मांड सारा
पानी पर नाचती है देखो कैसे कायनात
पानी पर बज रही हैं कैसी जीवन तरंगें
हाँ
तुम्हें इस पानी का स्वाद कसैला लगेगा जरूर
मगर आस्था और न्याय से जो छू लिया तुमने
यकीन मानो तुम जिओगे हजारों बरस
मगर
नसों में ये जहर जो ठहरा हुआ है
पानी बना देगा उसे और भी जहरीला
कि तुम जीतने की होड़ में आहिस्ते-आहिस्ते
एक दिन पानी की सतह पे फूले हुए पाए जाओगे।
युद्ध के इस इतिहास में घाट औ’ किनारे न पाओगे।
कवि परिचयः
आप जे.एन.यू.से पी.एच.डी. हैं। एक कवि और लेखक के रूप में सामाजिक -राजनीतिक मुद्दों पर सक्रिय लेखन का कार्य कर रहे हैं। आप इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका अरगला के प्रधान संपादक भी हैं।
संपर्कः kaveendra@argalaa.org
पानी –I
कहते हैं
जब कुछ नहीं था
पानी था।
और जब
नहीं बचेगा कुछ भी
तब
पानी रहेगा।
पानी-II
जो बह गए
हमारे खेत हैं
जो बहाए गए
हमारे घर थे
जो बह रही हैं
हमारी जमीनें हैं
ये सूरतें जो तुम्हें बेजुबान लगती हैं
अभी जिंदा हैं सत्याग्रह पर बैठी हैं
इन पसलियों में लोहा भरा है
एक तरफ
तुम्हारे मंसूबों का ऊँचा पहाड़ खड़ा है
एक तरफ
तबाही औ’ दुःख में
छिपे हैं हमारे बेकुसूर युद्ध
तुम्हारी चुनौतियां
अब नहीं डराती
आश्वासन का
अब कोई खतरा भी नहीं।
पानी-III
कलेजे तक चढ़ आया है पानी
सीने तक उफना रहा है
छातियों में बुलबुले भर रहा है
तलवों में पानी के छाले हैं
आँतों में पानी के निवाले हैं
पसलियां ठिठुरती हुई अभी-अभी कांपी हैं
अभी जरा-जरा तुम्हारी नीयत भांपी है
यूँ ही
कुछ देर और सही,
इक जरा सी चीख, उठे
विस्फोट अभी बाकी है
पानी-IV
मैं उन आवाजों का गुलाम नहीं
जिन्हें रेत पर लिखा गया
और प्रपात ने मिटा दिया
मैं उन आवाजों का मुरीद हूँ
जो पानी पर चढ़कर बोल रही हैं
पाँव के घाव-घाव चीख-पुकार मचा रहे
घमासान युद्ध के अजेय-राग बजा रहे
हथेलियों पर मेंहदी के दाग सब धुल गए
आक्रोश औ’ बगावत का लहू बह रहा है
वो आवाजें
अब मिटने को कतई राजी नहीं
उन्हें एक फैसले की दरकार है
जो पानी पर इस तरह लिखी जाएँ
कि उसे तमाम तारीखें याद करें
मानो
देह में ये पानी इस कदर घुल गया है
यकीनन
संघर्ष का फलसफा सही अर्थों में मिल गया है।
पानी-V
पानी में
ज्वार का दबाव बढ़ रहा है
इतनी गहराई नहीं कि कंठ रुंध सके
हाँ,
सतह पर नमी जरूरत से कहीं ज्यादा है
किन्तु ये नमी देह को गला नहीं सकती
पुख्ता इक-इक ख्याल बरगला नहीं सकती
देखो ये मौजूं मछलियाँ घाव सहला रही हैं
उपेक्षाएं सहती हुई भट्ठियां सुलगा रही हैं
एक सन्देश
पानी के बहाने ठिकाने जा लगा है
बस्तियों का लावा हुकूमतें धमका रहा है
गौर से सुनो,
पानी की बुदबुदाहटें,
कहीं
अभियान का इक दस्ता सुरंगें बनाये हुए
पानी संसद की नींव तक बढ़ता जा रहा है।
पानी-VI
जानता हूँ प्लासी के युद्ध में
सभी हथकंडे तुम्हारे थे
और हम हारे थे
किन्तु पानी की इस जंग में
युद्ध जीतेगा वही
जो इस पानी को पीना औ’ पचाना जानता है
जो पानी में रहकर दुनिया बसाना जानता है
तुम हत्यारे हो, हत्यारे ही रहोगे
हो जाओ चाहे जितने बड़े
किन्तु, तुम्हारे हथियार
पानी पर खड़ी सेनाएं काट नहीं सकते
तुम बारूदी विस्फोट से इन इरादों को पाट नहीं सकते
ये बमवर्षक उड़नखटोले पानी की इक धार से मारे जायेंगे
अगर करनी है हुकूमत पानी पर
तो हर साँस-साँस पानी का सामना करना पड़ेगा
कवच औ काई पर फिसलना, संभलना पड़ेगा
इस सरोवर में
हवा है, नमक है, आग है, और पानी है
लहरों में बहती हुई खून की रवानी है
नाव घाट पर जो लगी हैं मत समझना बेसुध इन्हें
पार जाना चाहोगे, चले जाओगे
मझधार में उतरकर साम्राज्य बनाना चाहोगे
भंवर की जरा सी चाप से कटकर बिखर जाओगे।
पानी-VII
ये राजा-रानी की किस्सागोई नहीं
पानी की कहानी है
पानी की जुबानी है
पानी को सुनानी है
तुम्हारे महल की प्राचीरों में हों भले ही गुलाम
किन्तु इसमें नदी की देह का पानी समा नहीं सकता
ये दुर्गम पहाडियाँ और बह रहा झरना, है हमारी विरासत
साम्राज्य की चौखट औ’ गुम्बद पे माथा टिका नहीं सकता
पानी का प्रकोप अभी कहाँ देखा है तुमने
पानी का श्राप, आतंक अभी कहाँ झेला है
पानी पर रची है हमने ये दुनिया
पानी पर उतरा रहा है ब्रह्मांड सारा
पानी पर नाचती है देखो कैसे कायनात
पानी पर बज रही हैं कैसी जीवन तरंगें
हाँ
तुम्हें इस पानी का स्वाद कसैला लगेगा जरूर
मगर आस्था और न्याय से जो छू लिया तुमने
यकीन मानो तुम जिओगे हजारों बरस
मगर
नसों में ये जहर जो ठहरा हुआ है
पानी बना देगा उसे और भी जहरीला
कि तुम जीतने की होड़ में आहिस्ते-आहिस्ते
एक दिन पानी की सतह पे फूले हुए पाए जाओगे।
युद्ध के इस इतिहास में घाट औ’ किनारे न पाओगे।
कवि परिचयः
आप जे.एन.यू.से पी.एच.डी. हैं। एक कवि और लेखक के रूप में सामाजिक -राजनीतिक मुद्दों पर सक्रिय लेखन का कार्य कर रहे हैं। आप इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका अरगला के प्रधान संपादक भी हैं।
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