चार दशक पहले जब बिंदेश्वर पाठक ने शौचालय पद्धतियों में बदलाव लाने के लिए काम शुरू किया था, तो लोगों में कई तरह की आशंकाएं थीं. आज उनका संगठन सुलभ इंटरनेशनल एक ब्रांड बन चुका है. 2009 का स्टॉकहोम वाटर प्राइज पाने वाले पाठक से भरत लाल सेठ ने उनके संगठन की कार्यप्रणाली पर बातचीत की, प्रस्तुत है उसके अंश:
सुलभ की सफलता की कहानी
1972 में रामेश्वर नाथ के साथ हुई मुलाकात कभी नहीं भूल सकता. एक आईएएस अधिकारी के रूप में उन्होंने अस्वच्छ शौचालय प्रथाओं के प्रति समाज का नजरिया बदलने के प्रस्ताव वाली हमारी फाइल को अच्छी तरह पढा, उन्होंने कहा, “एक दिन हमारा कार्यक्रम बडा प्रभाव छोडेगा. लेकिन यह शुरुआत में ही बंद होने वाला उद्यम साबित हो सकता है अगर यह अनुदान पर निर्भर रहा. इसका एक विकल्प है- ‘लाभार्थियों से पैसा जुटाना.’” और हमने यही किया. मॉडल को व्यवसायिक रूप देने से ही हमारा मॉडल सफल हो पाया।
क्या पैसे लेने से उपयोगकर्ताओं की संख्या घटी?
यह सही नहीं है. कोई भी गरीब नहीं कहलाना चाहता, लोग भुगतान कर सकते हैं और करने के लिए तैयार भी हैं. लेकिन कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो ज्यादा गरीबी में जी रहे हों. अगर कोई यह कहता है कि उसके पास पैसे नहीं हैं तो मैं उसे प्रसाधन सुविधाओं के उपयोग से वंचित नहीं कर सकता. सेनिटेशन सामाजिक प्रतिबद्धता का विषय है. अगर प्राकृतिक जरूरतों के लिए शुद्ध व्यवसायिक नजरिया अपनाया जाय तो यह गलत होगा.
क्या सुलभ शौचालयों को जल निकासी व्यवस्था से जोडा गया है?
नहीं. सुलभ शौचालय ड्रेनेज सिस्टम से नहीं जुडे हुए हैं. अगर कोई सुलभ शौचालयों को ड्रेनेज सिस्टम से जोडता है तो यह गलत है. सुलभ तकनीकों का पेटेंट नहीं कराया गया है. ऐसे में 1,000-2,000 सार्वजनिक शौचालय परिसर अन्य गैर सरकारी संगठनों और नागरिक निकायों द्वारा संचालित हो रहे हैं और वे हमारा नाम इस्तेमाल कर रहे हैं. सुलभ नाम के साथ विश्वसनीयता जुडी हुई है. लेकिन कई बार इसमें बदनामी का भी जोखिम रहता है.
अगर आप कहीं खराब रखरखाव वाला सुलभ इंटरनेशनल का शौचालय देखते हों तो मुझे सूचित करें .
क्या सुलभ इकॅलॉजिकल सेनिटेशन की शर्तें पूरी करता है?
हमारी तकनीक खुद बोलती है. मैं आपको एक उदाहरण देता हूं- आदमी के मलमूत्र से मीथेन(एक ग्रीनहाउस गैस) उत्पन्न होती है. सुलभ शौचालयों में इस गैस को रिसायकिल कर इसका इस्तेमाल खाना पकाने, लैंप जलाने या हीटर इत्यादि के लिए किया जाता है.
जहां तक मैं जानता हूं सुलभ शौचालय पर्यावरण सेनिटेशन की सभी शर्तों को पूरा करता है.
2015 तक बुनियादी सेनिटेशन सुविधा से विहीन लोगों की संख्या को आधा करने के लिए सहस्राब्दी विकास लक्ष्य के बारे में आपका क्या ख्याल है?
पिछले 35 सालों में हमने 12 लाख शौचालय स्थापित किए और भारत सरकार ने हमारे डिजाइन वाले 40 लाख सुविधाओं की स्थापना की. जाहिर है यह काफी नहीं है. दो साल पहले मैंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से कहा था कि शौचालय के लिए नई तकनीक आ गई है. लेकिन केंद्र सरकार के फंड भारत में सेनिटेशन की मांगों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. राष्ट्रीयकृत बैंकों को शौचालय बनाने के लिए ऋण देना चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे वे उर्वरक और बीज की खरीद के लिए ऋण मुहैया कराते हैं. लड़के और लड़कियों को सुलभ प्रौद्योगिकी के बारे में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए और उन्हे इन कार्यक्रमों को लागू करने के लिए कहना चाहिए.
इसे सीवर प्रणाली से जोड़ने के बारे में आपका क्या ख्याल है?
आदर्श स्थिति में शौचालय सीवरेज नेटवर्क से जरूर जोड़ा जाना चाहिए. लेकिन 2001 की जनगणना के अनुसार देश के 5,161 शहरों में केवल 232 में आंशिक कवरेज वाला सीवर नेटवर्क है. इस प्रणाली को तब तक पूरा नहीं माना जा सकता जब तक यह मलजल उपचार संयंत्र से न जुड़ा हो. अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका जैसे देशों में व्यापक सीवरेज नेटवर्क तैयार करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है.
सीवरेज आधारित शौचालय तक अधिकांश लोगों की पहुंच नहीं है, ऐसे में चुनौती यह है कि ऐसे शौचालय बनाए जाएं जो सस्ते, उन्नयन के लायक और आसानी से संचालित हो सकें.
हमारे शौचालय को यूएनडीपी का ग्लोबल बेस्ट प्रैक्टिस रिकमैंडेशन मिला है.
शंकाएं और धारणाएं बदलने के बारे में
नए विचार को लेकर हमेशा आशंकाएं रहती हैं. चार दशक पहले जब हमने शुरुआत की थी इंजीनियर हमारी प्रौद्योगिकी को लेकर संदेह कर रहे थे. मैं 1975 से ही दोहरी पिट वाले फ्लश सिस्टम को लोकप्रिय बनाने के लिए प्रयास कर रहा हूं.
सुलभ प्रौद्योगिकी एक सरल साधन है. इसमें दो गड्ढ़े होते हैं जिन्हे वैकल्पिक रूप से प्रयोग किया जाता हैं. जब एक पिट भर जाता है तो मलमूत्र को दूसरे गड्ढे में डाला जाने लगता है, ऐसे में पहले गड्ढे के मलमूत्र को बिना गंध वाले ठोस रोगाणु मुक्त खाद में बदला जाता है. इससे मलमूत्र के मैनुअल सफाई की आवश्यकता नहीं होती.
पारंपरिक 10 लीटर वाले फ्लश के मुकाबले इसे फ्लश करने में 1.5 लीटर पानी की आवश्यकता होती है. अब दुनिया इसे स्वीकार करने लगी है.
सफाई करने वालों को सरकारी मदद
अभी भी भारत में 5,00,000 सफाईकर्मी अपने हाथों से शौचालय की सफाई कर रहे हैं. सामाजिक न्याय मंत्रालय ने उनके पुनर्वास के लिए चार महीने का प्रशिक्षण का कार्यक्रम रखा है. लेकिन इतने कम समय में कैसे किसी का पुनर्वास किया जा सकता है?
उनके पुनर्वास के लिए अतिरिक्त धन की जरूरत है. लेकिन इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है. जानकारी के दरवाजे लोगों के लिए खोले जाने चाहिए.
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