ऑस्ट्रेलिया के कंगारू


कंगारू मुख्य रूप से ऑस्ट्रेलियाई महाद्वीप व पापुआ न्यू गिनी के कुछ भागों के मूल पशु हैं। कंगारूओं की कुछ प्रजातियां तो ऐसी हैं जो कि केवल ऑस्ट्रेलिया में ही पाई जाती हैं, और कहीं भी नहीं। कंगारुओं की 60 से भी अधिक प्रजातियों की गणना लातीनी में मैक्रोपोडिडे ह्यांच्रेपेददिाएहृ कहे जाने वाले परिवार में की जाती है। आम–तौर से भाषा में इस शब्द का अर्थ बनता है – वे जीव जिनके पैर बहुत बड़े हों, वस्तुतः कंगारूओं के पीछे के पैर बहुत बड़े और शक्तिशाली तो होते ही हैं।

वैसे तो विदेशों में ऑस्ट्रेलिया की छाप यहां पाए जाने वाले कंगारू होते हैं, पर शायद बहुत से लोग इस बात से अनभिज्ञ होंगे कि मैक्रोपोडिडे परिवार में कई छोटे आकार के ऐसे सदस्य भी हैं जो पूरे विश्व–भर में मात्र ऑस्ट्रेलिया में, और वह भी बहुतायत में पाए जाते हैं।

वल्लाबी, वल्लारू, पैडेमिलान, ऑपोसम और कई अन्य अनोखे जीव आपको रात में ऑस्ट्रेलियाई शहरों के उपनगरों की सड़कों और पेड़ों के झुरमुटों में घूमते–विचरते मिल जाएंगे। ऑस्ट्रेलिया, न्यू ज़ीलैंड व न्यू गिनी के द्वीप लाखों–करोड़ों सालों तक गोंडवानालैंड के अन्य भू–भागों से अलग–थलग पड़े रहे, जिसके चलते इन स्थानों पर जीव–जंतुओं के जैविक–विकास का ऐसा अनोखा क्रम विकसित हुआ जो और कहीं भी देखने को नहीं मिलता। सहस्त्राब्दियों तक किसी भक्षक पशु या मानव की छेड़–छाड़ से विमुक्त निर्बाध घूमने वाले इन पशुओं में भय का सहजज्ञान आज तक भी विकसित नहीं हो पाया है, इसलिए थोड़ा सा भी पुचकारने पर यह मनमोहक पशु निर्भय हो कर सीधे आपके पास खिंचे चले आएंगे।

ऑस्ट्रेलिया के अलग–अलग जलवायु प्रदेशों में अलग–अलग प्रजातियों के कंगारू देखने को मिलते हैं। यदि उत्तरी राज्य क्षेत्र व क्वीन्सलैंड के उष्ण–कटिबंधीय वृष्टि–वनों में रहने वाले छोटे आकार के कंगारू पेड़ों पर रहते हैं, तो दक्षिण ऑस्ट्रेलिया की मरूभूमि व विक्टोरिया के हिम–क्षेत्रों में रहने वाले वृहदाकारी पूर्वी स्लेटी कंगारू निर्जन भूमि पर दौड़ लगाते मिलेंगे। वैसे सभी कंगारू शाकाहारी होते हैं – इनके भोजन में घास, फूल–पत्तियों और झाड़–झंखाड़ से ले कर फंगस तक भी शामिल हो सकती है। अधिकांशतः कंगारू रात में ही बाहर निकलते हैं, पर कुछेक प्रजातियां सुबह तड़के या फिर दोपहर में भी खाने की तलाश में बाहर निकलती हंै। सभी प्रजातियों के कंगारुओं के पीछे के पैर बहुत लंबे व शक्तिशाली होते हैं, जिनकी सहायता से वे छलांगे भर कर काफ़ी लंबी दूरियां तय करने में सक्षम होते हैं। इस प्रक्रिया में पूंछ संतुलन बनाए रखने में काम आती है, और जब कंगारू ज़मीन पर धीमी गति से चल रहे होते हैं, तो यही पूंछ एक प्रकार से पांचवे पद की तरह काम करती है।

सभी मादा कंगारूओं के वक्षस्थल के नीचे आगे की ओर खुलने वाली एक थैली होती है जिसमें शिशु–कंगारू ह्यजिसे जोइ कहा जाता हैहृ अपने जन्म के पहले कुछ महीनों में रहता है। अन्य पशुओं के विपरीत कंगारूओं का कोई विशेष जनन–काल नहीं होता है और अधिकांश मादाएं पूरे साल भर प्रजनन करने की क्षमता रखती हैं। इस कारण कंगारूओं की संख्या किसी अच्छे साल में पांच गुना तक बढ़ सकती है और ऑस्ट्रेलियाई सरकार को यहां की बची–खुची हरीतिमा की रक्षा करने के लिए कंगारुओं का नियोजन करना पड़ता है।

हज़ारों वर्षों से कंगारू ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों द्वारा एक अमूल्य प्राकृतिक धरोहर के रूप में माने जाते रहे हैं और वे इनके मांस से पोषण व खाल से वस्त्रादि प्राप्त करते रहे हैं। जब श्वेत उपनिवेशकों ने 19वीं शताब्दी में ऑस्ट्रेलिया में पदार्पण किया, तो आरंभ में वे भी अपने भोजनादि के लिए कंगारूओं पर निर्भर बने रहे। पर अब ऑस्ट्रेलियाई जनसमुदाय कंगारुओं का उपयोग किसी और ही उद्देश्य से करता है – भूमि को बंजर होने से बचाने के लिए। सरकार के कड़े नियंत्रण के तहत प्रतिवर्ष कंगारुओं की करीब 20 प्रतिशत आबादी का शिकार कर लिया जाता है।

ऑस्ट्रेलियाई महाद्वीप में बहुतायत में पाई जाने वाली कुछेक प्रजातियों व तस्मानिया में पाए जाने वाले वल्लाबियों की केवल एक प्रजाति का ही वैधानिक शिकार किया जाता है। कारण यह है कि यूरोपीय उपनिवेशकों के आगमन के बाद से कंगारूओं की संख्या अतिशय रूप से बढ़ गई है। ऑस्ट्रेलिया के भू–भाग के रेगिस्तानी इलाकों में उपनिवेशकों ने पशु–पालन व खेती के लिए सिंचाई हेतु नहरें बनाई, और इसका अप्रत्यक्ष परिणाम यह हुआ कि कंगारूओं व अन्य जंगली जीव–जंतुओं को पीने के पानी के नये स्रोत उपलब्ध हो गए। इसलिए पहले सूखे के कारण जहां जंगली जानवर नहीं पाए जाते थे, वहां अब इंसानो के बजाए यह जानवर बहुतायत में फलते–फूलते मिलते हैं। यही कारण है कि अब ऑस्ट्रेलियाई पारिस्थितिक–तंत्र को बचाने व कई लोगों को रोज़गार देने के लिए सरकार ने इनके मांस का व्यवसायिक उद्योग स्थापित कर लिया है।

शिकार की जाने वाली चार प्रजातियों में मुख्यतः लाल कंगारू, पूर्वी स्लेटी कंगारू व पश्चिमी स्लेटी कंगारू शामिल हैं। पिछले बीस सालों में इन चार प्रजातियों की संख्या डेढ़ करोड़ से लेकर पांच करोड़ के बीच तक घटती–बढ़ती रही है, जो कि ऑस्ट्रेलिया की दो करोड़ की मानव–जनसंख्या के ढाई गुना तक बढ़. सकती है। इसलिए प्रतिवर्ष सरकार शिकार के लिए एक कोटा निर्धारित करती है जिसकी यह कोटा कंगारुओं की संख्या व दीर्घकालीन मौसम सूचना के आधार पर निश्चित किया जाता है। ऑस्ट्रेलिया में कंगारू–पालन के कोई फ़ार्म नहीं हैं।

ऑस्ट्रेलियाई क्वैरैंटीन व इंस्पेक्शन सेवा ह्यए क्यू आई एसहृ के अधिकारियों की पैनी नज़र के तहत निर्यात हेतु कंगारू–उत्पादों का निरीक्षण किया जाता है। सरकारी नियमों के पालन में किसी भी गड़बड़ी के होने पर लाखों डॉलरों का जुर्माना या दस साल की सज़ा या फ़िर दोनों दंड दिए जा सकते हैं। केवल लाईसेंसधारी आखेटक ही कंगारुओं का शिकार कर सकते हैं। इसके अलावा कंगारू के गोश्त–उत्पादन संयन्त्रों को विशेष प्रमाण–पत्र प्राप्त करने की आवश्यकता होती है व आयात करने वाले देशों के कड़े नियमों का पालन भी करना पड़ता है। जीवित कंगारुओं का निर्यात 1999 के पर्यावरण व जैव–विविधता संरक्षण अधिनियम के तहत निषिद्ध है। अपवादस्वरूप कभी–कभी चिड़ियाघरों व अन्य अव्यावसायिक प्रयोजनों के लिए विदेशों में जीवित कंगारुओं का निर्यात भी किया जा सकता है।

यूरोप के बाज़ारों में जंगली गोश्त की बढ़ती हुई मांग के प्रत्युत्तर में ऑस्ट्रेलिया से कंगारू के मांस का निर्यात सन 1959 में आरंभ हुआ। एक सरकारी अनुमान के अनुसार आज कंगारू का मांस, चर्म व खाल पूरी दुनिया भर में 55 से भी अधिक देशों में निर्यात किया जाता है। कंगारू के गोश्त की लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है और स्वास्थ्य की दृष्टि से यह बहुत ही स्वादिष्ट व वसामुक्त होता है। अन्य प्रकार के गोश्त की तुलना में इसमें प्रोटीन, ज़िंक और लोहे का अनुपात काफ़ी अधिक होता है।

आज यूरोपीय समुदाय के देश और रूस कंगारू के मांस के सबसे बड़े ग्राहक हैं और संयुक्त राज्य अमरीका व एशिया के अनेकानेक देशों में भी इसकी लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। साथ ही कंगारू की खालÊ फ़र व चर्म की मांग में भी काफ़ी विस्तार हुआ है। कंगारू चर्म बहुत ही टिकाऊ, मज़बूत व कम भार का होता है व इसका उपयोग जूते बनाने के लिए व अन्य चर्म–उत्पादों के निर्माण में किया जाता है।

ऑस्ट्रेलिया की इस अमूल्य पशु–धरोहर ने न केवल यहां पर्यटन व जैव–संरक्षण के प्रयोजनों को एक विशिष्ट दिशा प्रदान की है, बल्कि सरकार ने इसका व्यवसायिक रूप से उपयोग कर यहां के नागरिकों को रोज़गार व अतिरिक्त आय का साधन भी दिया है।

ऊपर चित्रः पेड़ पर रहने वाला कंगारू
 

 

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