सैंकड़ों करोड़ रुपए खर्च होने बाद भी सरकारी व ट्रस्टों का चिकित्सा तंत्र सही इलाज नहीं कर पा रहा है। प्रायः लक्षण आधारित चिकित्सा ही चलती रही है। तिस पर गैस-पीड़ितों से काफी अपमानजनक व्यवहार भी होता है। मुआवजे, राहत व चिकित्सा सभी कार्यों में भ्रष्टाचार खूब फला-फूला है। गैस कांड से बुरी तरह त्रस्त लोगों की भलाई के कार्य का पैसा चुराया जा जा रहा है। गैस-पीड़ित जैसे मोमबत्ती पिघलकर बुझती है वैसे ही लोग दर्द सह-सहकर मर रहे हैं।
दिसंबर 1984 की भोपाल गैस त्रासदी को 27 वर्ष बीत गए, पर उस खौफनाक दिन की याद करते हुए शमशाद आज भी दहल जाती है, जिसने उनका, उनके परिवार का सारा जीवन एक दिन में बदल दिया, तबाह कर दिया। आंसुओं के बीच शमशाद ने बताया, “कई लाशें आसपास बिखरी हुई थीं। किसी के मुंह से झाग निकल रहा था तो कोई उल्टी कर रहा था। बुझा हुआ बल्ब चिंगारी की तरह दहक रहा था। बहुत से लोग भाग रहे थे। हम भी भागे, पर आखिर कब तक भागते। मेरे छः साल के प्यारे से बेटे राजा की मौत मेरे सामने हो गई। फिर मेरी सास भी मर गई। अब इन लाशों के साथ हम कहां भागते, कहां जाते?” शमशाद और उसके पति मोहम्मद सईद को सांस फूलने, सीने व आंखों में जलन जैसी समस्याओं से लगातार जूझना पड़ा। बाद में मोहम्मद सईद को बरम आ गया (पैर सूज गया), स्थिति डरावनी हो गई व डॉक्टर ने इलाज करने से इंकार कर दिया। इस तरह कई वर्ष तक अनेक गैस जनित समस्याएं झेलने के बाद मोहम्मद की भी मृत्यु हो गई।
शमशाद बी की तीन बेटियों शन्नो, तसलीम और तबस्सुम की उम्र गैस त्रासदी के समय क्रमशः 7 वर्ष, 3 वर्ष और 6 महीने थी। तब से अब तक इन तीनों बेटियों ने गैसजनित समस्याओं को झेला है। अब शन्नो की बेटी छः वर्षीय ईशा में भी ऐसे लक्षण प्रकट हो रहे हैं। गैस त्रासदी के बाद शमशाद बी के एक बच्चे का जन्म मृत अवस्था में हुआ। एक बेटी नूरजहां का भी जन्म गैस त्रासदी के बाद हुआ। वह भी गैस के दुष्परिणामों से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित है। इस तरह गैस त्रासदी के बाद उत्पन्न बच्चे भी गैस त्रासदी के दर्द को झेलने को मजबूर हैं। शमशाद के घर की सीढ़ियों पर पानी भरे कई बर्तन रखे थे। पूछने पर उसने बताया कि पीने का और अन्य पानी भरने के लिए बाहर जाना पड़ता है। इससे बहुत थक जाती हूँ और फिर लगता है कि लेटी ही रहूं। इसके बावजूद जरूरत पड़ने पर शमशाद बी गैस पीड़ितों के संघर्ष से जुड़ती रही हैं। उन्होंने कुछ शर्माते हुए कहा कि तब मैं क्रान्तिकारी हो जाती हूँ।
नन्दू (आयु लगभग 55 वर्ष) ने भी गैस से जुड़ी परेशानियों को बहुत झेला है। वह आज भी सांस फूलने, कम दिखाई देने व बरम आने से त्रस्त हैं। अपने अनुभव के आधार पर बताते हैं, “यह समस्याएं कहीं जाने वाली नहीं हैं। इन्हें तो हमने उम्र भर झेलना है।” गैस कांड से पहले ठेले पर नमकीन बेचते थे। वह रोजगार तो उसी समय बंद हो गया। आमदनी नहीं के बराबर है पर दवाओं का खर्च बढ़ता जा रहा है। सरकारी चिकित्सा तंत्र में ठीक इलाज नहीं होता है तो प्राईवेट में जाना पड़ता है। पिछले महीने परिवार में 8000 रुपए चिकित्सा व दवाओं पर ही खर्च हुआ। मुआवजे का जो थोड़ा बहुत पैसा मिला वह कब तक चलेगा? हलीमन बी और अब्दुल रहमान ऐसे कमरे में रहते हैं जो लगभग पूरी तरह खाली ही है। उनके शरीर में कोई ताकत भी नहीं बची है। हलीमन तो हड्डियों का ढांचा मात्र रह गई है जबकि पति अब्दुल रहमान को लकवा मार गया है। वह उठने, चलने में असमर्थ है।
एक समय रहमान भोपाल के स्टेशन से तांगा चलाते थे, सवारी बिठाते थे, तो क्या धूम थी। पर गैस त्रासदी के चंद मिनटों में सब कुछ बदल गया। रहमान और हलीमन ने बहुत सहा और उनके बच्चों ने भी। उनके परिवार में ऐसे बच्चों ने जन्म लिया जिनके या तो सिर ठीक से नहीं बने थे या हाथ-पैर टेढ़े-मेढ़े थे। इतने असहाय और अभाव के बीच भी उन्हें न्यूनतम पेंशन ही मिलती है। उससे गुजारा कतई नहीं हो सकता है। हलीमन कहती है, “मुझे नहीं पता कि हम क्यों जीवित हैं, या कैसे जीवित हैं।” एक तो खाने को कुछ है नहीं, यदि होता भी है भी तो निगलना कठिन है। डाक्टर ने हलीमन को कैंसर की संभावना बताई है।
गैस त्रासदी के तुरंत बाद से अब्दुल जब्बार गैस पीड़ितों की राहत और पुनर्वास के कार्य से जुड़े रहे हैं। उन्होंने रोजी-रोटी की व्यवस्था के लिए भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन की स्थापना भी की। अब्दुल जब्बार बताते हैं कि सैंकड़ों करोड़ रुपए खर्च होने पर भी सरकारी व ट्रस्टों का चिकित्सा तंत्र सही इलाज नहीं कर पाया है। प्रायः लक्षण आधारित चिकित्सा ही चलती रही है। तिस पर गैस-पीड़ितों से काफी अपमानजनक व्यवहार भी होता है। जब्बार को इस बात का गहरा दर्द है कि मुआवजे, राहत व चिकित्सा सभी कार्यों में भ्रष्टाचार खूब पनपा है। आखिर इतनी बुरी तरह से त्रस्त लोगों की भलाई के कार्य से भी पैसा कैसे चुराया जा सकता है? जब्बार कहते हैं कि यह भ्रष्टाचार तो कफनचोरी से भी बुरा है। उन्होंने व अन्य सामाजिक संगठनों ने राहत व पुनर्वास कार्य सुधारने के कई सुझाव दिए हैं। यदि इन पर कार्य न हुआ तो जब्बार मानते हैं कि गैस-पीड़ित लोग तिल-तिलकर मरते रहेंगे। वे कहते हैं कि जैसे मोमबत्ती पिघलकर बुझती है वैसे ही लोग दर्द सह-सहकर मर रहे हैं।
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