निरंतर बढ़ रहा प्रकृति का प्रकोप आत्मघाती होगी खतरे की अनदेखी

भारत में प्राकृतिक आपदाएं,वीडियो क्रेडिट- विकिपीडिया
भारत में प्राकृतिक आपदाएं,वीडियो क्रेडिट- विकिपीडिया

बेमौसम हुई भारी बारिश, ओलावृष्टि और तेज हवाओं ने कई राज्यों में किसानों की उम्मीद पर पानी फेर दिया है। विशेषकर मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में लाखों हेक्टेयर से अधिक गेहूं की फसल को प्रभावित किया है, जिससे किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। पहले फरवरी में असामान्य गर्मी और फिर मार्च के महीने में बारिश और ओलावृष्टि ने पुनः जलवायु परिवर्तन और उसके विनाशकारी दुष्परिणाम के प्रति आगाह किया है। आगामी महीनों में विशेषज्ञ जहां अत्यधिक गर्मी पड़ने की आशंका जता रहे हैं, वहीं कुछ पूर्वानुमानों के अनुसार इस बार सामान्य से कम बारिश होने की भी आशंका है। भूकंप और भूस्खलन भी अब नियमित घटना बनते जा रहे हैं। ऐसे में जिन कारणों से प्रकृति का कोप बढ़ रहा है, उनका निवारण करने की नितांत आवश्यकता है।

लखनऊ शहर में जहां 80 और 90 के दशक में औसत भूजल स्तर सात से दस मीटर की गहराई पर होता था, वह आज 30 मीटर एवं उससे अधिक की गहराई तक जा चुका है। यदि यही हाल रहा तो भविष्य में पेयजल आपूर्ति के लिए नहरों और नदी की मदद लेनी पड़ सकती है। लेकिन यदि लखनऊ की जीवनरेखा गोमती और उसकी कुकरैल जैसी सहायक नदियों कापुरसाहाल देखें तो भविष्य में क्या होगा, यह सोच कर चिंता की गहरी लकीरें खींच जाती हैं।

यदि जलवायु परिवर्तन के कारणों पर विचार करें तो धरती का बढ़ता तापमान इसका एक प्रमुख कारण है जिसे ग्लोबल वार्मिंग के प्रचलित नाम से जाना जाता है। निरंतर गर्म हो रही धरती का प्रमुख कारण मानवीय गतिविधियां ही हैं। प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध और अविवेकपूर्ण दोहन से हालात सुधरने के बजाए दिनोंदिन बिगड़ते जा रहे हैं। जीवन का पर्याय समझे जाने वाले जल का दोहन इसका एक प्रमुख उदाहरण है। यदि भारत की ही बात करें तो बीते दशकों में हमने नदियों को नाला बना दिया, तालाब पोखर आदि को पाट दिया। अब जल जरूरतों की पूर्ति के लिए भूजल स्रोतों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है, बिना इस बात पर विचार किए कि जिस दिन भूजल भंडार समाप्त हो जाएंगे, उस दिन हमारा और हमारी आने वाली पीढ़ियों का क्या होगा। स्थिति कितनी भयावह है इसे उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के उदाहरण से समझा जा सकता है। भूजल दोहन के मामले में प्रदेष में लखनऊ का शहरी क्षेत्र सबसे आगे है। भूगर्भ वैज्ञानिकों का कहना है कि लखनऊ में हर दिन 140  करोड़ लीटर भूजल 100  मीटर तक की गहराई के स्रोतों से निकाला जा रहा है। अत्यधिक दोहन के कारण 100  मीटर गहराई का प्रथमभूजल एक्यूफर समूह लगभग सूख चुका है और विभिन्न क्षेत्रों में भूजल स्ट्रैटा में खाई नुमा संरचना विकसित हो गई है जो बड़े खतरे का संकेत है। लखनऊ शहर में जहां 80  और 60 के दशक में औसत भूजल स्तर सात से दस मीटर की गहराई पर होता था, वह आज 30  मीटर एवं उससे अधिक की गहराई तक जा चुका है। यदि यही हाल रहा कि तो भविष्य में पेयजल आपूर्ति के लिए नहरों और नदी की मदद लेनी पड़ सकती है। लेकिन यदि लखनऊ की जीवनरेखा गोमती और उसकी कुकरैल जैसी सहायक नदियों का पुरसाहाल देखें तो भविष्य में क्या होगा, यह सोच कर चिंता की गहरी लकीरें खींच जाती हैं।

प्रकृति-पर्यावरण का संरक्षण और जलवायु परिवर्तन की चुनौती के समुचित समाधान के लिए आवश्यक है कि सरकार और नागरिक समाज दोनों ही इसकी महत्ता समझें। प्रकृति खतरे की घंटी बार-बार बजा रही है। हम जितना सभी उसे सुनकर आवश्यक उपाय करेंगे, क्षति का परिमाण भी उतना ही कम होगा। लोक भारती समाज से मिलकर जल उत्सव अभियान एवं हरियाली माह आदि कार्यक्रमों के माध्यम से नदी पुनर्जीवन, पौधरोपण और प्राकृतिक खेती के विस्तार के काम में जुटी हुई है। प्रत्येक नागरिक और संगठन को ऐसे प्रयासों में अपनी भागीदारी बढ़ाने की आवश्यकता है।

जब मानव और पशु-पक्षियों की प्यास बुझाने का संकट सामने है तो फसलों को पानी कैसे उपलब्ध कराया जा सकेगा, यह और भी बड़ी चिंता का विषय है। भारत गेहूं के प्रमुख उत्पादकों में से एक है और इस तरह की क्षति वैश्विक स्तर पर लगातार उच्च मुद्रास्फीति और खाद्य सुरक्षा संकट जैसे हालात पैदा कर सकती है। पिछले दो हफ्तों से, प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्यों पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में पश्चिमी विक्षोभ के कारण आंधी, ओलावृष्टि और तेज हवा के साथ बेमौसम बारिश अभी कुछ और दिनों तक जारी रहने की आशंका भी है। खराब मौसम की वजह से गेहूं की फसल को भारी नुकसान हुआ है। कई जगहों के बारे में जानकार आशंकित हैं कि 20  क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज इस बार घटकर 10-11 क्विंटल प्रति एकड़ रह जाएगी। तेज हवाओं के कारण कई जगह फसल पूरी तरह से चौपट हो चुकी है। बेमौसम बारिश और तेज हवाओं के कारण गेहूं की फसल में कई जगह औसतन 50  प्रतिशत उपज का नुकसान हो सकता है। यह क्षति इस कारण हुई क्योंकि तैयार फसल के  समय खेत पानी में डूब गए। आगामी महीनों में इसके विपरीत हालात देखने को मिल सकते हैं जब बारिश के मौसम में जब खेती के लिए पानी की जरूरत होगी, तब वर्षा का इंतजार खत्म ही नहीं होगा। 

समय आ गया है कि हम अपनी गलती सुधारें और हमारी गतिविधियों के कारण प्रकृति में जो असंतुलन उत्पन्न हुआ है उसे सुधारने के काम में युद्धस्तर पर जुट जाएं। वनों को बढ़ावा देने के साथ ही यदि नदी, तालाब और कुएं जैसे प्राकृतिक जलस्रोतों की दशा सुधार कर वर्षा जल का अधिकाधिक संग्रह किया जाए तो हालात में सुधार होना आरंभ हो सकता है। प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना भी प्रकृति, मृदा एवं जल संरक्षण का एक प्रमुख उपाय है, जिसे जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने में अपनी सार्थकता साबित करने के बाद सरकार ने बढ़ावा देने के गंभीर प्रयास आरम्भ किए हैं। नदियों को प्रदूषण मुक्त करने और शहरों के नियोजन पर भी विशेष ध्यान दिया जा रहा है। लेकिन भारत जैसे आबादी के बोझ से दबे देश में सरकारी प्रयासों की एक सीमा है। प्रकृति - पर्यावरण का संरक्षण और जलवायु परिवर्तन की चुनौती के समुचित समाधान के लिए आवश्यक है कि सरकार और नागरिक समाज दोनों ही इसकी महत्ता समझें। प्रकृति खतरे की घंटी बार-बार बजा रही है। हम जितना सभी उसे सुनकर आवश्यक उपाय करेंगे, क्षति का परिमाण भी उतना ही कम होगा। लोक भारती समाज से मिलकर जल उत्सव अभियान एवं हरियाली माह आदि कार्यक्रमों के माध्यम से नदी पुनर्जीवन, पौधरोपण और प्राकृतिक खेती के विस्तार के काम में जुटी हुई है। प्रत्येक नागरिक और संगठन को ऐसे प्रयासों में अपनी भागीदारी बढ़ाने की आवश्यकता है। तभी धरती और हमारी पीढ़ियों पर मंडरा रहे प्राकृतिक अनिष्ट को टाला जा सकता है।

सोर्स- लोक सम्मान 

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