कटक, 31 जुलाई (इंडिया साइंस वायर): शहरी क्षेत्रों में शिशुओं की देखभाल के लिये डिस्पोजेबल डायपर का उपयोग आमतौर पर होता है। बुढ़ापे से जुड़ी कुछ स्वास्थ्य समस्याओं के कारण अनियंत्रित मलमूत्र का सामना करने वाले वृद्ध व्यक्तियों के लिये भी डायपर का उपयोग किया जाता है। डायपर में खास अवशोषक पॉलिमर (एसएपी) होते हैं, जो बड़ी मात्रा में तरल अवशोषित कर सकते हैं। हालाँकि, वे कृत्रिम पदार्थों से बने होते हैं और जैविक रूप से उनका अपघटन नहीं हो पाता। इस कारण उपयोग किए जा चुके डायपर का सुरक्षित निपटारा एक प्रमुख पर्यावरणीय समस्या है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), मद्रास के रसायन विज्ञान विभाग के शोधकर्ताओं ने इस समस्या के समाधान के लिये काइटोसैन, सीट्रिक एसिड और यूरिया को मिलाकर सुपर एब्जोर्बेंट पॉलिमर विकसित किया है, जो जैविक रूप से अपघटित हो सकता है। काइटोसैन समुद्री खाद्य पदार्थों से प्राप्त किया गया एक प्रकार का शर्करा है। इस पॉलिमर को बनाने के लिये काइटोसैन, साइट्रिक एसिड और यूरिया को 1:2:2 के अनुपात में मिलाया गया है।
इस सुपर एब्जोर्बेंट में तरल पदार्थ को सोखने की क्षमता काफी अधिक है। प्रत्येक एक ग्राम पॉलिमर 1250 ग्राम तक पानी सोख सकता है। नये पॉलिमर की पानी सोखने की क्षमता की तुलना बाजार में बिकने वाले बेबी डायपर से करने पर इसे काफी प्रभावी पाया गया है।
इस मिश्रण को अत्यधिक चिपचिपे और छिद्रयुक्त क्रॉसलिंक्ड जैल के रूप में परिवर्तित करने के लिये एक बंद कंटेनर में 100 डिग्री सेल्सियस तापमान पर गर्म किया गया है। इसके बाद अवशिष्ट विलायक हटाने के लिये इस जैल को सुखाया गया है और आगे के अध्ययन के लिये इसे पाउडर के रूप में परिवर्तित किया गया है।
पानी को सोखने की इस नये जैल की क्षमता बाजार में आमतौर पर मिलने वाले बेबी डायपर की अपेक्षा करीब आठ गुना अधिक है। इस क्रॉसलिंक्ड पॉलिमर जैल की संरचना का विश्लेषण पाउडर एक्स-रे विवर्तन विधि का उपयोग करके किया गया है।
इसके गुणों का अध्ययन विभिन्न विश्लेषणात्मक तकनीकों जैसे- ठोस परमाणु चुंबकीय प्रतिध्वनि, फूरियर-ट्रांसफॉर्म इन्फ्रारेड स्पेक्ट्रोस्कोपी और थर्मोग्रेविमीट्रिक विश्लेषण द्वारा बड़े पैमाने पर किया गया है।
प्रमुख शोधकर्ता डॉ. राघवचारी दामोदरन ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “अपने वर्तमान स्वरूप में, हमारा बनाया गया यह मैटेरियल व्यावसायिक रूप से उपलब्ध डायपर की तरह तेजी से पानी को सोख पाने में सक्षम नहीं है, पर यह परंपरागत रूप से प्रचलित सिंथेटिक डायपर के विपरीत जैविक रूप से अपघटित हो सकता है।”
उन्होंने इस जैल के संश्लेषण प्रक्रिया को पर्यावरण हितैषी बताया है क्योंकि सिंथेटिक रसायनों के बजाय इससे जुड़े प्रयोगों में पानी का उपयोग किया गया है।
एक अन्य शोधकर्ता प्रोफेसर ए. नारायणन के अनुसार, “इस नये मैटेरियल का परीक्षण पौधों के विकास में बढ़ोत्तरी के लिये जिम्मेदार तत्व के रूप में करने पर उत्साहजनक परिणाम मिले हैं। हमने पाया कि इसके उपयोग से घर पर गमले में मिर्च जैसे पौधों को चार से पाँच दिन के अंतराल पर पानी देकर भी उगाया जा सकता है।”
शोधकर्ताओं में डॉ. राघवचारी एवं प्रोफेसर नारायणन के अलावा रविशंकर कार्तिक और एलैंकेजियान संगीता शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका कार्बोहाइड्रेट पॉलिमर्स में प्रकाशित किया गया है।
भाषांतरण : उमाशंकर मिश्र
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New absorbent may make diapers eco-friendly
By Dr Sanghamitra Deobhanj
Cuttack, July 31 (India Science Wire): The use of disposable diapers is commonplace for baby care in urban areas. Diapers are also used for the elderly persons experiencing uncontrolled urination due to certain geriatric health problems. Diapers contain super absorbing polymers (SAPs) which can absorb and retain large quantity of liquid. However, they are made of synthetic materials which are non-biodegradable. Safe disposal of used diapers is thus a major environmental problem.
In order to address the problem, scientists from the Department of Chemistry at Indian Institute of Technology, Madras have developed a biodegradable superabsorbent polymer using chitosan (a kind of sugar extracted from seafood waste), citric acid and urea. This superabsorbent has capacity – it can absorb 1250 gm of water for each gram of the polymer.
The researchers used chitosan obtained from seafood waste source, and two easily available sustainable chemicals - citric acid and urea. Water absorbing material from a commercial baby diaper was used for comparison. The materials - chitosan, citric acid and urea – were mixed in weight ratio of 1:2:2. The mixture was heated in aqueous medium to 100 degree C in a closed container to form a highly viscous and porous, cross-linked gel denoted as CHCAUR. The gel was then dried to remove residual solvent and powdered for further study.
It was found that the water absorption capacity of CHCAUR was about eight times compared to super absorbing polymers used in commercial diapers. The structure of this crosslinked polymer gel was analysed using powder x-ray diffraction method. Its properties were studied extensively by various analytical techniques like solid state nuclear magnetic resonance, Fourier-transform infrared spectroscopy and thermogravimetric analysis.
The scanning electron microscopy was used to confirm presence of macro pores in the gel surrounded by a fibrous network of chitosan molecules forming an agitated surface. The team also found that higher water absorption capacity of the gel could be due to the macro porous structure.
“In the present form, our material does not absorb water as rapidly as commercially available diaper materials, but it is biodegradable unlike fully synthetic commercial superabsorbents,” explained Dr. Raghavachari Dhamodharan, the lead researcher, while speaking to India Science Wire. He described the synthesis process as eco-friendly since water has been used in experiments instead of any synthetic chemicals.
“We have tested our material as additive to soil for the growth of some potted plants like chilly, at home, and find that it is enough if they are watered once every four to five days,” said Abathodharanan Narayanan, another team member, while commenting on the study.
The gel has also been tested for its suitability as a scaffolding material in tissue engineering. Researchers feel it can also find applications in agriculture, especially as controlled releasing agent of micro and macro nutrients to soil. The study also mentions that when applied to soil, CHCAUR was found to decrease water evaporation rate significantly.
At present, the research team is working on similar biodegradable polymers as substitute for polyurethane, polystyrene packaging materials that do not degrade.
The research team included Prof Raghavachari Dhamodharan, Abathodharanan Narayanan, Ravishankar Kartik, and Elanchezhian Sangeetha (Indian Institute of Technology, Madras). The results of the study have been published in journal Carbohydrate Polymers.
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