जिस मालवा में ‘पग-पग रोटी, पग-पग नीर’ के संरक्षण की कहावत चलती है; जिस मध्य प्रदेश में स्वावलंबन के नारों पर खर्च कम नहीं हुआ; उसी मध्य प्रदेश में क्षिप्रा को सदानीरा बनाने के बेहतर, कम खर्चीले और स्वावलंबी विकल्पों को अपनाने की जगह पाइप लाइन लिंक की क्या जरूरत थी? यदि पाइप लाइनों से ही नदियों को सदानीरा बनाया जा सकता, तो अब तक देश की सभी नदियां सदानीरा हो गईं होती। अगर पाइप लाइन से ही सभी को पानी पिलाया जा सकता, तो फिर जल संकट होता ही नहीं। 25 फरवरी, 2014 को पूर्व उप प्रधानमंत्री व भाजपा नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी ने नर्मदा-क्षिप्रा लिंक को मालवा को समर्पित कर दिया। 23 से 25 फरवरी, तीन दिनों तक अखबारों में इस पाइप लाइन लिंक के एक पेजी विज्ञापन चमकते रहे। दिलचस्प है कि इससे चुनावी लाभ मिलने की संभावना को लेकर जहां एक ओर मालवा के भाजपा नेताओं में उत्साह का परिदृश्य है तो दूसरी ओर निमाड़ के किसानों द्वारा इस लिंक का संचालन और उद्घाटन रोकने को लेकर उच्च न्यायालय में गुहार की चित्र।
किसानों का विरोध है कि निमाड़ की नहरों का काम रोककर इस पाइप लाइन परियोजना को आगे बढ़ाया जा रहा है। बड़वानी स्थित मंथन अध्ययन केन्द्र के मुताबिक इस परियोजना का पैसा भी ओंकारेश्वर नहर परियोजना से लिया गया है।
प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या सचमुच नर्मदा क्षिप्रा लिंक ने निमाड़-मालवा जल विवाद की नींव रख दी है? मालवा को किया गया यह समर्पण क्या सचमुच राजनीतिक फांस बनकर लोगों के दिल में चुभ गया है या यह सिर्फ कुछ संगठनों का नजरिया है? आइए, जाने।
शासकीय चित्र का दावा है कि नर्मदा-क्षिप्रा लिंक संपन्न हुआ भारत का पहला जोड़ है। कहा जा रहा है कि 47 किलोमीटर लंबी एक पाइप लाइन छोटे सिसलिया टैंक से नर्मदा का पानी लेकर 5 क्युमेक्स यानी 5000 लीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार से क्षिप्रा में पहुँचेगा, इस जोड़ के जरिए क्षिप्रा नदी जलमय हो जाएगी। इससे देवास और उज्जैन के अलावा क्षिप्रातट के 250 गाँवों को भी पानी मिलेगा। भूजल स्तर ऊंचा उठेगा। सैंड्रप के मुताबिक तो एक प्रेस विज्ञप्ति में शासन ने इस परियोजना के जरिए नर्मदा का पानी इलाहाबाद की गंगा में पहुंचाने तक का दावा किया गया था। ऐसे दावों पर सवाल उठाते हुए अध्ययनकर्ता कुछ और कहते हैं।
अध्ययनकर्ताओं के मुताबिक इसे भारत का पहला संपन्न जोड़ कहना ही गलत है। मध्य प्रदेश शासन की इसी पाइप लाइन योजना के तहत् बहुत पहले से नर्मदा बेसिन का पानी लेकर इंदौर और भोपाल को दिया जा रहा है। 5000 लीटर प्रति सेकेंड यानी 362 एम एल डी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) पानी के दावे को भी वे खारिज करते हैं। कहते हैं कि दिल्ली मुंबई इंडस्ट्रियल काॅरीडोर के साथ हुए करार के अनुसार इसमें से 25 प्रतिशत यानी 90 एमएलडी पानी तो हर रोज इंडस्ट्रियल काॅरीडोर को ही जाने वाला है। इसके लिए लिंक से 28 किलोमीटर दूर सिमरौल तक पानी ले जाने की घोषणा 16 अप्रैल, 2013 को ही कर दी गई थी। इस लिंक से पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र को पानी देने की भी योजना है। सिसोलिया टैंक से उज्जयिनी गांव तक के इस लिंक में काफी पानी तो वाष्पित होकर उड़ जाने वाला है। वे कहते हैं कि सूखी नदी व एक्यूफर में रिसाव का आकलन और कर लें तो एक चौथाई पानी ही अपने गंतव्य तक पहुंचने वाला है। यूं यदि उज्जैन और देवास में पानी की खपत का आंकड़ा देखें तो यह जलराशि ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ जैसी ही साबित होने वाली है। अतः रिहायशी क्षेत्रों के हाथ कुछ अधिक नहीं लगने वाला; असल उद्देश्य तो उद्योगों को पानी देना है। आप पूछ सकते हैं कि यदि इस पाइप लाइन लिंक का असल उद्देश्य उद्योगों को पानी देना है तो इसमें बुरा क्या है?
यह सच है कि उद्योगों को पानी देना कतई बुरा नहीं है। उद्योगों को पानी मिलना ही चाहिए; शर्त है कि उपयोग करने के बाद वे अवजल को शोधित करके ही बाहर निकालें। इस शर्त की पालना का न करना बुरा है। इसी अनुभव के आधार पर अध्ययनकर्ता कहते हैं कि उद्योगों को जितना अधिक पानी मिलेगा, वे उतना अधिक गैर शोधित अवजल क्षिप्रा में बहाएंगे। क्षिप्रा और मैली होगी। बुरा गाँवों और शहरों को पानी का सपना दिखाना और हकीकत को छिपाना भी है। कुदरत ने जिस नदी को जहां-जितना पानी देना है; दिया है। अतः बुरा इस किसी नदी का पानी छीनकर दूसरी नदी को देना भी है। अच्छा है तो कुदरत के दिए पानी को संरक्षित करना।
खैर! अध्ययनकर्ता मानते हैं कि काॅरीडोर को मिलने वाले पानी की आंकी गई लागत 26 रुपए प्रति एक हजार लीटर से अधिक होगी। माडीबांध से इंदौर शहर को पानी देने वक्त यह लागत 35 रुपए बताई गई थी, परियोजना पूरी होने पर इसे 42 रुपए पाया गया।
अध्ययनकर्ताओं की आपत्ति है कि इस परियोजना के लिए शासन ने न तो पर्यावरणीय प्रभाव अध्ययन सार्वजनिक किया और न ही कानूनी तौर पर इसके लिए जरूरी पर्यावरणीय मंजूरी ली। वे कहते हैं कि इस पाइप लाइन लिंक को पानी देने का स्रोत नर्मदा पर बना ओंकारेश्वर बांध का रिजर्वायर ही है। नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण के फैसले के मुताबिक ओंकारेश्वर और इंदिरा सागर परियोजना से पानी बँटवारे के निर्णय का अधिकार सरदार सरोवर रिजर्वायर रेगलुटरी कमेटी ही कर सकती है। मध्य प्रदेश शासन अकेले इस बँटवारे का निर्णय नहीं कर सकता। इसके लिए राजस्थान गुजरात और महाराष्ट्र की सहमति भी जरूरी है। नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण नर्मदा घाटी के विकास के लिए बनी थी, नर्मदा जल के मालवा विकास में प्रयोग करना भी उन्हें अखरता है।
अध्ययनकर्ताओं की आपत्तियां जायज हैं या नाजायज; इसका निर्णय पाठक स्वयं करें। मेरी आपत्ति तो इस बात को लेकर है कि जिस मध्य प्रदेश का देवास माॅडल से प्रेरित होकर आज दूसरे राज्यों के कलेक्टर, किसान व संगठन तालाब निर्माण की नई इबारतें लिख रहे हैं; जिस मालवा में ‘पग-पग रोटी, पग-पग नीर’ के संरक्षण की कहावत चलती है; जिस मध्य प्रदेश में स्वावलंबन के नारों पर खर्च कम नहीं हुआ; उसी मध्य प्रदेश में क्षिप्रा को सदानीरा बनाने के बेहतर, कम खर्चीले और स्वावलंबी विकल्पों को अपनाने की जगह पाइप लाइन लिंक की क्या जरूरत थी? यदि पाइप लाइनों से ही नदियों को सदानीरा बनाया जा सकता, तो अब तक देश की सभी नदियां सदानीरा हो गईं होती।
यदि पाइप लाइन से ही सभी को पानी पिलाया जा सकता, तो फिर जल संकट होता ही नहीं। पाइप लाइन का मतलब है कर्ज, खर्च और बिना पैसे पानी की अनुपलब्धता। मध्य प्रदेश शासन को यह समझना ही होगा कि बारिश की बूंदे ही हमें हमारी जन-जरूरत का पानी उपलब्ध करा सकती हैं, पाइप लाइन नहीं।
किसानों का विरोध है कि निमाड़ की नहरों का काम रोककर इस पाइप लाइन परियोजना को आगे बढ़ाया जा रहा है। बड़वानी स्थित मंथन अध्ययन केन्द्र के मुताबिक इस परियोजना का पैसा भी ओंकारेश्वर नहर परियोजना से लिया गया है।
प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या सचमुच नर्मदा क्षिप्रा लिंक ने निमाड़-मालवा जल विवाद की नींव रख दी है? मालवा को किया गया यह समर्पण क्या सचमुच राजनीतिक फांस बनकर लोगों के दिल में चुभ गया है या यह सिर्फ कुछ संगठनों का नजरिया है? आइए, जाने।
शासकीय दावे
शासकीय चित्र का दावा है कि नर्मदा-क्षिप्रा लिंक संपन्न हुआ भारत का पहला जोड़ है। कहा जा रहा है कि 47 किलोमीटर लंबी एक पाइप लाइन छोटे सिसलिया टैंक से नर्मदा का पानी लेकर 5 क्युमेक्स यानी 5000 लीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार से क्षिप्रा में पहुँचेगा, इस जोड़ के जरिए क्षिप्रा नदी जलमय हो जाएगी। इससे देवास और उज्जैन के अलावा क्षिप्रातट के 250 गाँवों को भी पानी मिलेगा। भूजल स्तर ऊंचा उठेगा। सैंड्रप के मुताबिक तो एक प्रेस विज्ञप्ति में शासन ने इस परियोजना के जरिए नर्मदा का पानी इलाहाबाद की गंगा में पहुंचाने तक का दावा किया गया था। ऐसे दावों पर सवाल उठाते हुए अध्ययनकर्ता कुछ और कहते हैं।
अध्ययनकर्ताओं की आपत्तियां
अध्ययनकर्ताओं के मुताबिक इसे भारत का पहला संपन्न जोड़ कहना ही गलत है। मध्य प्रदेश शासन की इसी पाइप लाइन योजना के तहत् बहुत पहले से नर्मदा बेसिन का पानी लेकर इंदौर और भोपाल को दिया जा रहा है। 5000 लीटर प्रति सेकेंड यानी 362 एम एल डी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) पानी के दावे को भी वे खारिज करते हैं। कहते हैं कि दिल्ली मुंबई इंडस्ट्रियल काॅरीडोर के साथ हुए करार के अनुसार इसमें से 25 प्रतिशत यानी 90 एमएलडी पानी तो हर रोज इंडस्ट्रियल काॅरीडोर को ही जाने वाला है। इसके लिए लिंक से 28 किलोमीटर दूर सिमरौल तक पानी ले जाने की घोषणा 16 अप्रैल, 2013 को ही कर दी गई थी। इस लिंक से पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र को पानी देने की भी योजना है। सिसोलिया टैंक से उज्जयिनी गांव तक के इस लिंक में काफी पानी तो वाष्पित होकर उड़ जाने वाला है। वे कहते हैं कि सूखी नदी व एक्यूफर में रिसाव का आकलन और कर लें तो एक चौथाई पानी ही अपने गंतव्य तक पहुंचने वाला है। यूं यदि उज्जैन और देवास में पानी की खपत का आंकड़ा देखें तो यह जलराशि ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ जैसी ही साबित होने वाली है। अतः रिहायशी क्षेत्रों के हाथ कुछ अधिक नहीं लगने वाला; असल उद्देश्य तो उद्योगों को पानी देना है। आप पूछ सकते हैं कि यदि इस पाइप लाइन लिंक का असल उद्देश्य उद्योगों को पानी देना है तो इसमें बुरा क्या है?
उद्योगों को पानी देने में बुरा क्या?
यह सच है कि उद्योगों को पानी देना कतई बुरा नहीं है। उद्योगों को पानी मिलना ही चाहिए; शर्त है कि उपयोग करने के बाद वे अवजल को शोधित करके ही बाहर निकालें। इस शर्त की पालना का न करना बुरा है। इसी अनुभव के आधार पर अध्ययनकर्ता कहते हैं कि उद्योगों को जितना अधिक पानी मिलेगा, वे उतना अधिक गैर शोधित अवजल क्षिप्रा में बहाएंगे। क्षिप्रा और मैली होगी। बुरा गाँवों और शहरों को पानी का सपना दिखाना और हकीकत को छिपाना भी है। कुदरत ने जिस नदी को जहां-जितना पानी देना है; दिया है। अतः बुरा इस किसी नदी का पानी छीनकर दूसरी नदी को देना भी है। अच्छा है तो कुदरत के दिए पानी को संरक्षित करना।
खैर! अध्ययनकर्ता मानते हैं कि काॅरीडोर को मिलने वाले पानी की आंकी गई लागत 26 रुपए प्रति एक हजार लीटर से अधिक होगी। माडीबांध से इंदौर शहर को पानी देने वक्त यह लागत 35 रुपए बताई गई थी, परियोजना पूरी होने पर इसे 42 रुपए पाया गया।
न पर्यावरणीय मंजूरी, न अध्ययन
अध्ययनकर्ताओं की आपत्ति है कि इस परियोजना के लिए शासन ने न तो पर्यावरणीय प्रभाव अध्ययन सार्वजनिक किया और न ही कानूनी तौर पर इसके लिए जरूरी पर्यावरणीय मंजूरी ली। वे कहते हैं कि इस पाइप लाइन लिंक को पानी देने का स्रोत नर्मदा पर बना ओंकारेश्वर बांध का रिजर्वायर ही है। नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण के फैसले के मुताबिक ओंकारेश्वर और इंदिरा सागर परियोजना से पानी बँटवारे के निर्णय का अधिकार सरदार सरोवर रिजर्वायर रेगलुटरी कमेटी ही कर सकती है। मध्य प्रदेश शासन अकेले इस बँटवारे का निर्णय नहीं कर सकता। इसके लिए राजस्थान गुजरात और महाराष्ट्र की सहमति भी जरूरी है। नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण नर्मदा घाटी के विकास के लिए बनी थी, नर्मदा जल के मालवा विकास में प्रयोग करना भी उन्हें अखरता है।
तालाबों के प्रदेश में पाइप पर पैसा क्यों?
अध्ययनकर्ताओं की आपत्तियां जायज हैं या नाजायज; इसका निर्णय पाठक स्वयं करें। मेरी आपत्ति तो इस बात को लेकर है कि जिस मध्य प्रदेश का देवास माॅडल से प्रेरित होकर आज दूसरे राज्यों के कलेक्टर, किसान व संगठन तालाब निर्माण की नई इबारतें लिख रहे हैं; जिस मालवा में ‘पग-पग रोटी, पग-पग नीर’ के संरक्षण की कहावत चलती है; जिस मध्य प्रदेश में स्वावलंबन के नारों पर खर्च कम नहीं हुआ; उसी मध्य प्रदेश में क्षिप्रा को सदानीरा बनाने के बेहतर, कम खर्चीले और स्वावलंबी विकल्पों को अपनाने की जगह पाइप लाइन लिंक की क्या जरूरत थी? यदि पाइप लाइनों से ही नदियों को सदानीरा बनाया जा सकता, तो अब तक देश की सभी नदियां सदानीरा हो गईं होती।
यदि पाइप लाइन से ही सभी को पानी पिलाया जा सकता, तो फिर जल संकट होता ही नहीं। पाइप लाइन का मतलब है कर्ज, खर्च और बिना पैसे पानी की अनुपलब्धता। मध्य प्रदेश शासन को यह समझना ही होगा कि बारिश की बूंदे ही हमें हमारी जन-जरूरत का पानी उपलब्ध करा सकती हैं, पाइप लाइन नहीं।
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