नर्मदा की कुमुदनी

होशंगाबाद का अभूतपूर्व पर्व बनी
नर्मदा के तट की बास्वानी व्याख्यानमाला,
तिरती तरंगों पर
कान्हा की वंशी की
सम्मोहक मूर्च्छनाएँ
दूरागत दीपों की
क्वाँरी आकांक्षाएँ
गलबहियाँ डाले
रास रचतीं शरदोत्सव का।
गर्वा की तालों पर
करतीं अठखेलियाँ
तट के नितंबों से
लहरों की करधनियाँ।
नयन श्रवण, श्रवण नयन
एक बरन, एक बयन
थकित, चकित खोए से
मेकल कुमारिका की
भावभीनी मुद्राओं में,
मंत्रमुग्ध श्रोतागण
अस्फुट आशीषों के
पुष्प बरसाते रहे
मैं भी आश्वस्त परम
वाणी के प्रसाद से
सहसा क्षुभित लहरों में
उभरी कुमुदनी एक
विह्वल टकराती दिखी
मंच के कगार से
ओढ़नी की उर्मियों को
बटती, मरोड़ती।
फिर बड़े दर्प से
संयोजक को संभ्रमित
करती-सी बोल पड़ी
मुझको भी मिलना है
साहब से,
जब तक वे कहते कुछ
हल्कोरित हंसिनी-सी
फड़फड़ाती डैनों को
उल्लसित कुरल उठी-
“मुझको पहचानते हो!”
अचकचाकर देखा तो
प्रौढ़ा-परिचारिका की
नटखट नवेली कन्या
बीती की गाथा दुहराती दिखी
तीन-चार दशकों के आर-पार।
अरे कौन रम्पो तू?
और नहीं तो क्या?
कहकर खिलखिलाती रही
केवल खिलखिलाती रही
रेवा की रवानी की
अंतहीन गाथा-सी।

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