नर्मदा की गंभीर बीमारी के मायने

Narmada
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एक तरफ मध्यप्रदेश की सरकार नर्मदा को जीवित इकाई माने जाने का संकल्प आगामी विधानसभा सत्र में ले चुकी है। नर्मदा के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिये नमामि देवी नर्मदे यात्रा निकाल रही है तो दूसरी तरफ नर्मदा की बीमारी बढ़ती ही जा रही है। नर्मदा की बीमारी अब गंभीर रूप लेने लगी है। नर्मदा के जलस्तर में तेजी से गिरावट आ रही है। कुछ दिनों पहले तक नर्मदा नदी में इतनी बड़ी तादाद में अजोला घास फ़ैल गई थी कि लोगों को स्नान और आचमन करने में भी परेशानी होने लगी थी।

हमें अब इस बात पर शिद्दत से विचार करने की ज़रूरत है कि आखिर नर्मदा की गंभीर बीमारी के मायने क्या है। इसकी गंभीरता को कौन से कारक बढ़ा रहे हैं। इनमें कुछ तो पुराने हैं और कुछ एकदम नए। कुछ खतरे हमारे तथाकथित विकास की उपज है तो कुछ हमारी जागरूकता और पर्यावरण की भयावह अनदेखी के परिणाम हैं। वे कौन से खतरे हैं, जिनके प्रति पर्यावरणविद लगातार आगाह कर रहे हैं। क्या हम उन्हें विस्मृत कर नदी का नुकसान तो नहीं कर रहे हैं। अब यह खतरे चेतावनियों से आगे निकलकर जमीनी हकीकत में हमें सामने नजर आने लगे हैं। मध्यप्रदेश से जहाँ नर्मदा सबसे बड़े भूभाग पर बहती है। वहाँ के हालात खासे चिंताजनक होते जा रहे हैं।

नर्मदा को बरसों से जानने वाले बताते हैं कि जो नर्मदा आज से बीस–तीस साल पहले तक हुआ करती थी, वह अब नहीं रही। न तो वैसा प्राकृतिक सौन्दर्य बचा है और न ही वैसा प्रवाह। जगह–जगह बाँध बन जाने से अब कुछ स्थानों पर तो नर्मदा ठहरे हुए पानी की झील की तरह दिखती है। नर्मदा में दिनो-दिन प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। हालाँकि अभी यह गंगा–यमुना की तरह दूषित नहीं हुई है लेकिन खेतों से कीटनाशक और रासायनिक खाद, शहरों और कस्बों की सीवर, गंदे नालों और प्रदूषित छोटी नदियों तथा कारखानों के उत्सर्जित पदार्थों के साथ सारी गंदगी और पूजन सामग्री के नदी में प्रवाहित करने से प्रदूषण का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। यहाँ तक कि अब इसके पानी में कोलीफॉर्म जीवाणु भी मिलने लगे हैं जो मानव मल की वजह से है। बीते सालों में नर्मदा के आस-पास पाँच गुना से ज़्यादा आबादी बढ़ी है।

नर्मदा नदी इसके पानी का अत्यधिक दोहन किया जा रहा है। तीस से सवा दो सौ किमी तक दूर शहरों के लिये नर्मदा का पानी भेजा जा रहा है। इसके मीठे पानी का उपयोग बड़े पैमाने पर खेती और उद्योगों में किया जाने लगा है। बात इतनी ही नहीं है, इससे भी बड़ी बात यह है कि नर्मदा और उसके आस-पास जंगलों की कमी के चलते उसके जल ग्रहण क्षेत्र में बारिश लगातार कम हो रही है।

बीते महीने नदी के पानी में अजोला घास और कुछ स्थानों पर जलकुंभी इतनी बड़ी तादाद में फ़ैल गई थी कि सतह पर पानी कम और हरी घास ज़्यादा नजर आ रही थी, जो नदी की प्राकृतिक सुंदरता को खतरा है। फिलहाल तो गर्मी बढ़ जाने से इसकी तादाद कम हो गई है लेकिन अगले सालों में इसका खतरा फिर से बढ़ सकता है। बीते महीने जबलपुर से लेकर ओंकारेश्वर तक नर्मदा में घास फैली होने से पानी हरा हो गया था। होशंगाबाद, हरदा और देवास जिले में इसका असर ज़्यादा रहा है। होशंगाबाद में तो करीब 15 से 20 किमी क्षेत्र में पानी की सतह पर घास ही घास नजर आती है।

वनस्पति वैज्ञानिक डॉ. जगदीश शर्मा बताते हैं कि जल्दी ही इसका निदान नहीं हुआ तो अगले सालों में अजोला नर्मदा में मोटी परत बना लेगा। इससे नदी तंत्र को सबसे बड़ा नुकसान जलीय जीव–जंतुओं के लिये ज़रूरी ऑक्सीजन के खत्म हो जाने का खतरा है। उन्होंने बताया कि टेरिफाइडा समूह की यह वनस्पति प्राकृतिक खाद के रूप में काम आती है। यह बड़ी चिंता की बात है कि नदी के पानी में यह कैसे पहुँची। इसका बड़ा कारण सीवर, रासायनिक खाद और सहायक छोटी नदियों के जल प्रवाह के साथ पहुँचना है। यह कम तापमान पर विकसित होती है। एक बार इसके बीज आ जाने से अगले सालों में भी ठंड के दिनों में इसका विस्तार फिर से हो सकता है।

बीते इकतीस सालों से नर्मदा घाटी में नर्मदा बचाने की लड़ाई को धारदार बनाने वाली सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर इन दिनों नदी से रेत खनन के मुद्दे पर सरकार और प्रशासन को कटघरे में खड़ा कर रही हैं। उन्होंने अब इस मामले में अदालती लड़ाई भी तेज कर दी है। वे कहती हैं कि नदी के तल से हर दिन हजारों बड़े डंपर और हाइवा से रेती निकालते रहने से पानी दूषित हो रहा है और इसके प्रवाह में भी कमी आती जा रही है। उनके मुताबिक यह किसी एक जगह नहीं बल्कि पूरे मध्यप्रदेश में पूरे नर्मदा बेल्ट में हो रहा है। अब तो रेत माफियाओं ने इसमें सबसे ज़्यादा मुनाफे को देखते हुए एक संगठित गिरोह बना लिया है। नदी तंत्र की परवाह किए बिना रेती निकाल कर नर्मदा को खोखला किया जा रहा है। अवैध रेत खनन में मध्यप्रदेश देश में महाराष्ट्र के बाद दूसरे नंबर पर आता है। यहाँ सर्वाधिक रेत खनन किया जा रहा है। उधर लकड़ी के लालच में जंगल तबाह हो रहे हैं। सरकार रेती खनन और लकड़ी माफिया पर अंकुश लगाने में अक्षम साबित हुई है। यह सब नदी के लिये खतरे का संकेत है।

नर्मदा नदीप्रवाह में कमी का बड़ा कारण जंगलों की कमी के साथ सहायक नदियों के प्रदूषित होने, उन पर बाँध बन जाने और जल्दी सूख जाने के साथ खुद नर्मदा घाटी में छोटे–बड़े बाँध बन जाने और अत्यधिक रेत खनन माने जाते हैं। इससे जलीय जैव विविधता को भी खतरा हुआ है। नदी के आस-पास सदियों से रहते आए आदिवासी समाज जो कभी नर्मदा को अपनी माँ की तरह पूजता रहा और अपनी रियायतों के मुताबिक उसका संरक्षण करता रहा, बीते कुछ सालों में उन्हें वहाँ से बेदखल कर दिया गया है।

नर्मदा पर पाँच बड़े बाँध बने हैं जबकि पाँच प्रस्तावित हैं। सहायक नदियों के प्रस्तावित बीस बाँधों में से आठ बनकर तैयार हो चुके हैं। मास्टर प्लान में नर्मदा घाटी में 30 बड़े, 135 मीडियम और तीन हजार छोटे बाँध प्रस्तावित हैं। इनमें अब तक 277 बन भी चुके हैं। इतना ही नहीं नर्मदा किनारे स्थापित खंडवा के सिंगाजी थर्मल पॉवर प्लांट सहित पाँच थर्मल और न्यूक्लियर प्लांट शुरू हो चुके हैं तो कुछ होने की तैयारी में है। करीब डेढ़ दर्जन ऐसे प्लांट लगाए जाने की तैयारी है। इन संयंत्रों में पानी की खपत के साथ नर्मदा का पानी भी दूषित होगा। यही दूषित जल आगे पूरी नदी को प्रदूषित करेगा। इसके अलावा नदी किनारे आबादी के आस-पास प्रदूषण और राखड के पहाड़ बन जाते हैं।

इन कारणों की पड़ताल करते हुए लगता है कि नर्मदा इन दिनों गंभीर बीमारी के दौर से गुजर रही है और यदि समय रहते इनका निदान नहीं किया गया तो यह नर्मदा की सेहत के लिये ख़ासी चिंताजनक स्थिति बन सकती है। नर्मदा को सिर्फ़ जीवित इकाई मान लेने या जागरूकता के लिये यात्रा से ज़्यादा ज़रूरी यह भी है कि इसे प्रदूषित होने से बचाया जाए। इसके लिये कड़े क़ानून बनाकर उन पर सख्ती से अमल कराया जाए। विकास के नाम पर नदी के पर्यावरण तंत्र को विचलित नहीं किया जाए और कथित विकास की धारणा भी बदलनी होगी। यह सरकारों के साथ समाज की भी जिम्मेदारी है कि आस्था के साथ नदी को स्वच्छ और सदानीरा बनाए रखने में सक्रिय योगदान करें। नर्मदा बची रही तो ही हम बचे रह सकेंगे।

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