नर्मदा के घाट पर

Narmada river
Narmada river
एक महिला मिली, जो स्थानीय थी। नर्मदा तट के किनारे की प्लास्टिक की पन्नियां बीन रही थी। मैंने जिज्ञासावश पूछ लिया, आप सफाई कर रही हैं, किसकी तरफ से? हमारा घाट है, हमारी नर्मदा है, हम सफाई करते रहते हैं। उसकी बात सुनकर मन श्रद्धा से भर गया। नर्मदा किनारे दोनों तरफ बड़ी संख्या में माझी, केवट और कहार लोग रहते हैं जो मछली पकड़ने व नर्मदा की रेत में तरबूज-खरबूज की खेती करते थे। तरबूज-खरबूज की खेती तो अब नहीं हो पाती लेकिन मछली अब भी पकड़ी जाती है। जब नर्मदा के तटों पर भीड़ नहीं होती, उसका एक अनूठा सौंदर्य दिखाई देता है। स्केटिंग की तरह धीरे-धीरे सरकती, डूबती उतराती, कहीं इठलाती, बलखाती जलधारा, सूर्य की किरणों का सुनहरा प्रतिबिंब, आकाश में उड़ते पंछी दल, दूर-दूर तक शांत, सौम्य नर्मदा। कुछ ऐसा वातावरण बनाते हैं तो मन चहक-चहक पड़ता है। परसों जब मैं अपने परिवार के साथ नर्मदा गया तो दिन भर नर्मदा के इस अपूर्व सौंदर्य के दर्शन करते रहा। वैसे तो सांडिया हमारा जाना होता रहता है, लेकिन पिछले एक वर्ष से हम नहीं जा पाए थे। जब शहर की भीड़-भाड़ से मन उचड़ता है और तब हमें नदियां, जंगल और पहाड़ ही याद आते हैं, जहां हमें सुकून और शांति मिलती है। पिपरिया जहां मैं रहता हूं, यहां से पचमढ़ी पास है और सांडिया भी, जहां से नर्मदा गुजरती है। ऐसा संयोग बना कि पचमढ़ी व सतपुड़ा के जंगल तो कई बार गए, सांडिया न जा पाए। नर्मदा की रेत में हम दोपहर से शाम तक बैठे रहे। यहां हमने कई छवियां देखी। नर्मदा की अनोखी छटा तो निहारते रहे उसके साथ यहां का जन-जीवन से भी साक्षात्कार हुआ। जिसमें पशु-पक्षी, मनुष्य, पुराने जमाने में पानी में चलने वाली नावें, पुल पर से सरपट दौड़ने वाली कारें और आसपास का मनमोहन वातावरण।

एक साथ प्राचीन से नवीन, आदिम से आधुनिक। नर्मदा साक्षी भी है इसकी। इसके किनारे प्राचीन पुरातात्विक महत्व के कई साक्ष्य मिले हैं। वहां नर्मदा तट पर बहुत दिनों बाद काफी सारे कौए देखे। नर्मदा में एक सारस भी जलक्रीड़ा में मगन था। और भी पक्षी आकाश में उड़ते हुए पानी पीने उतरते और फिर उड़ जाते। यहां कुत्तों का झुंड भी मौजूद था जिनमें से कुछ कुत्ते ठंडी रेत में बैठे थे तो कुछ भोजन की तलाश में इधर-उधर घूमकर कुछ खा रहे थे। कुछ आपस में लड़ते हुए भोंक रहे थे। मंथर गति से नावें चल रही थी, शांत जल में इन्हें देखना मोह रहा था। दो वर्ष पहले जब मैं कार्तिक की पूर्णिमा पर मेला आया था तब मेरे बेटे ने नाव में बैठने की इच्छा जताई और हम उसमें बैठे, तब नाविक ने थोड़ी दूर जाकर कह दिया था कि अब नाव आगे नहीं जाएगी, क्योंकि रेत में नाव नहीं चलती।

इक्का-दुक्का श्रद्धालु स्नान करने भी आ-जा रहे थे। पैदल, मोटरसाइकिल और साइकिल से। जो पैदल थे वे शायद स्थानीय होंगे। मोटर साइकिल वाले बाहर के थे। अपनी मांओं के साथ जो बच्चे आए थे, वे बहुत मजे से नहा रहे थे। छोटी बच्चियां अपनी नाक बंद करके डुबकी लगा रही थी। वे रेत में दूर से दौड़ती आती और नदी की छिर में कूद जाती। उन्हें बार-बार गहरे पानी में न जाने की हिदायत देते। ये खेल घंटों चलता रहा। कुछ ने रेत में कई तरह की आकृतियां बनाई थीं। महिलाएं आपस में अपने दुख-सुख बांटती रही। कुछ लड़कियां नदी तट से बाढ़ के साथ आने वाली लकड़ियां बीन रही थीं। अपनी-अपनी टोकरियों में उन्होंने लकड़ियों को बड़े सुंदर ढंग से सजाया था। टोकनियों में उनकी लकड़ियां कमल के फूल की तरह लग रही थी।

नर्मदा नदीकुछ बच्चियां पानी में गिरी चीजों को बीनते घूम रही थी, उनके पानी में रहने से उनके कपड़े गीले थे। लेकिन उन्हें इसकी परवाह नहीं थी। एक दो लड़कियां तट के किनारे पानी की खाली बोतलें इकट्ठी कर रही थीं। पिछले बार जब हम आए थे तब कुछ लड़कियों ने बताया था कि वे स्कूल से आने के बाद नर्मदा घाट पर आ जाती हैं और जो लोग पुल से नर्मदा में पैसे चढ़ाते हैं उन्हें वे बीन लेते हैं। इससे उन्हें अपने खर्च के लिए कुछ पैसे मिल जाते हैं। ये बच्चे तैरने में इतने कुशल होते हैं कि दूर-दूर तक तैरते हुए निकल जाते हैं। योग साधु की तरह नर्मदा में ध्यानस्थ हो जाती हैं। इनके कौशल व करतबों को घंटों देखते रहो तो देखते ही रहो।

एक महिला मिली, जो स्थानीय थी। नर्मदा तट के किनारे की प्लास्टिक की पन्नियां बीन रही थी। मैंने जिज्ञासावश पूछ लिया, आप सफाई कर रही हैं, किसकी तरफ से? हमारा घाट है, हमारी नर्मदा है, हम सफाई करते रहते हैं। उसकी बात सुनकर मन श्रद्धा से भर गया। नर्मदा किनारे दोनों तरफ बड़ी संख्या में माझी, केवट और कहार लोग रहते हैं जो मछली पकड़ने व नर्मदा की रेत में तरबूज-खरबूज की खेती करते थे। तरबूज-खरबूज की खेती तो अब नहीं हो पाती लेकिन मछली अब भी पकड़ी जाती है। सांडिया में भी मछुआरा बस्ती है। उनके पास नावें और जाल हैं। इन बस्तियों में मछुआरे खुद ही जाल बुनते हैं।

नर्मदा नदीकार्तिक की पूर्णिमा पर सांडिया में बड़ा मेला लगता है। अभी से इसकी तैयारियां शुरू हो गई हैं। लोगों को इसका इंतजार है। कई तरह की दुकानें और बच्चों के लिए रंग-बिरंगे गुब्बारे और बांसुरियां व मिट्टी के खिलौने आकर्षण के केन्द्र होते हैं। तट के किनारे हाल ही में आई भीषण बाढ़ के निशान मौजूद हैं। इस बार बाढ़ ने भारी तबाही मचाई थी। पुल के ऊपर से नर्मदा जा रही थी। अधिक बारिश और ऊपर बरगी बांध से पानी एक साथ छोड़े जाने के कारण बाढ़ आई थी, ऐसा लोगों का कहना है। वैसे तो मैं नर्मदा के कई घाटों पर गया हूं लेकिन पुरानी स्मृतियों में मेरी बुआ का गांव ही मन में बसा है। और वह खुनिया बरहा। यहां मैं अपने पिता के साथ बचपन में जाया करता था। नर्मदा पल्लेपार जाने के लिए पुल नहीं बना था। सांडिया का पुल बाद में बना है। कच्चा पुल बनता था, लेकिन हम लोग खैरा घाट से झादे से जाया करते थे। कभी छोटी डोंगियों से जाते थे।

केतोघान में मेला लगता था। बड़ी संख्या में श्रद्धालु जुड़ते थे। रास्ते में बैलगाड़ियों की लाइन लगी रहती थी। बैलों के गले और सीगों में रंग-बिरंगे फीते बांधे जाते थे। पूरा परिवार साथ आता था। एक-दो दिन रूककर मेले में घूमते थे। जहां रोज़ाना इस्तेमाल की चीजों से लेकर घर संजाने के लिए सामान मिलते थे। कुल मिलाकर, आज मेरी पुरानी स्मृतियाँ ताजा हो गईं। इस बीच जो प्रगति हुई उसकी भी झलक मिल गई। नाव जो हमें प्राचीन युग की याद दिलाती हैं वहीं कारें आधुनिकता का बोध कराती हैं। नर्मदा जीवनदायिनी है। लेकिन अब नर्मदा खुद संकट में है। उसका पेट भरने वाली उसकी सहायक नदियां सूख रही हैं। बहरहाल, सांडिया की यात्रा आनंददायी रही। इस आशा के साथ हम घर लौट आए कि जल्द ही फिर नर्मदा दर्शन होंगे।

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