इस बार सोमवती पूर्णिमा पर स्नान के लिए नर्मदा गए। अमावस्या पर भी गए थे। आज छोटा मेला भी लगा था। काफी रौनक थी। भीड़ भी थी।
जब हम पहुँचे तब दोपहर हो चुकी थी। बहुत दिनों बाद निकली धूप बहुत भा रही थी। रेत में लम्बवत् दुकानें लगी हुई थी। नारियल, चिरौंजी और अगरबत्ती के अलावा समोसे और चाय भी दुकानों पर उपलब्ध थी। कागज की चकरी और लाल पनीवाला चश्मा आकर्षण का केन्द्र था। बच्चों की टोली उनके पीछे-पीछे घूम रही थी।
साण्डिया में हम सीताराम घाट पर गए। शान्त, सौम्य और नीरव नर्मदा बह रही थी। कुछ नाविक नावों में आवाजाही कर रहे थे। दूर माइक से मधुर बम्बुलियाँ (लोकगीत) सुनाई दे रही थी-
मोरी नरबदा मैया, पार कर दइयो नैया।
मेरा बेटा, जो चित्रकार है, अब एक ऊँचे स्थान पर बैठकर नर्मदा को जलरंग में उतारने लग गया है। मैं अपने कवि मित्र वीरेन्द्र के साथ बैठ कर नर्मदा को अविराम देख रहा था। साथ में हम लोग नर्मदा के प्रदूषण, श्रद्धालुओं का बड़ी संख्या में स्नान करने आना, मछुआरों के जीवन और नर्मदा कछार की खेती पर बातें कर रहे थे।
धूप खिली हुई थी। एक बच्चों की टोली नर्मदा की छिर में चढौत्री के लिए डाले गए सिक्के, नारियल बीनने में जुटी हुई थी। उनमें 10-12 साल की लड़कियाँ भी थी। वे तैरने में सिद्धहस्त थे। जब कोई नारियल चढ़ाता, वे दौड़ पड़ते और उसे ले आते।
मेला में रौनक बढ़ने लगी थी। रेत में दुकानों में भीड़ थी। कुछ लोग नर्मदा में स्नान कर रहे थे। मैंने भी डुबकी लगाई। कुछ लोग कण्डों (गोबर के उपले) की अंगीठी लगाकर बाटी बनाने में लग गए थे। कुछ लोग पंगत में भोजन कर रहे थे। नर्मदा में बाटी-भर्ता का आनन्द ही अलग है।
श्रद्धालुओं के आने का सिलसिला जारी था। पैदल, मोटरसाइकिल, जीप और ट्रैक्टर से लोग आ रहे थे। एक परिवार रसोई गैस भी लाया था, जिसने वहाँ भण्डारा किया। बहुत लोगों को भोजन कराए।
मुझे यह दृश्य देखकर बचपन याद आ गया जब हम अपनी बुआ, जिसका घर नर्मदा किनारे था, आया करते थे। खासतौर से केतोघान के मेले के समय बहुत भीड़ हुआ करती थी। उस जमाने में मोटर साइकिल और निजी वाहन ज्यादा नहीं थे।
बैलगाड़ियों से लोग मेला में आते थे। बैलों के सींगों और माथे पर में रंग-बिरंगी मुछेड़ी होती थी। चू-चर्र के साथ बैलगाड़ियों का रैला चला आता था। परिवार के साथ दो-तीन दिन मेला में रूकने की तैयारियों से लोग आते थे।
मेले में रामलीला, सर्कस, नौटंकी और बच्चों के लिए डमडमा और रंगीन चष्मा आकर्षण का केन्द्र हुआ करता था। नर्मदा अथाह होती थी और बड़े झादों में बैठकर लोग नर्मदा पार करते थे। इसके अलावा, छोटी-छोटी डोंगियाँ भी चला करती थीं। मेले में लोगों का उत्साह देखते ही बनता था।
धीरे-धीरे शाम होने लगी थी। लौटने का समय हो गया था। हम बेटे के इन्तजार में थे, वह हमें ऊँचाई के कारण दिखाई नहीं दे रहा था। थोड़ी देर में हमने उसे ढूँढ लिया, वह एक खेत में ऊँचे स्थान पर बैठकर नर्मदा के सौन्दर्य को अपने जलरंगों में समेट रहा था। वह बताने लगा यहाँ आसमान साफ है, दूसरे बड़े शहरों में दूरी के साथ धुँधलापन बढ़ते जाता है जिससे रंग फीके दिखाई देते हैं पर यहाँ दूर की चीज साफ और स्पष्ट दिखाई देती है। इसका मतलब यह है कि यहाँ का वातावरण स्वच्छ और साफ-सुथरा है जिसमें रंगों की विविधता देखने को मिलती है, दूसरी जगह नहीं।
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Post By: Shivendra