मध्य प्रदेश सरकार ने नर्मदा नदी का पानी क्षिप्रा में प्रवाहित करने के बाद अब कालीसिंध नदी में भी नर्मदा का पानी छोड़े जाने के फैसले को मंजूरी दे दी है। इस निर्णय के साथ ही अगले कुछ महीनों में 1400 करोड़ लागत की इस योजना पर काम भी शुरू हो जाएगा।
11 अक्टूबर 17 को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में प्रदेश मंत्रीमण्डल की बैठक में इसे हरी झंडी दे दी गई। इस तरह अब नर्मदा के पानी को कालीसिंध नदी तक लाने की योजना के मूर्त रूप लेने की राह आसान हो गई है। इससे पहले पाइपलाइन के जरिए नर्मदा के पानी को क्षिप्रा नदी में प्रवाहित किया जा चुका है। सब कुछ तय समय पर हुआ तो अगले साल जनवरी-फरवरी तक इस पर काम भी शुरू हो जाएगा।
फरवरी 17 में मध्य प्रदेश के बजट में कालीसिंध–नर्मदा लिंक परियोजना के प्रारम्भिक चरण हेतु 430 करोड़ रुपए का प्रावधान है। शुरुआती सर्वे का काम भी नर्मदा घाटी विकास अभिकरण ने पूरा कर लिया है। इससे चार जिलों के 366 गाँवों की दो लाख हेक्टेयर जमीन सिंचित हो सकेगी तथा कई गाँवों को पीने का पानी मिल सकेगा।
हालांकि इसे लेकर सवाल भी उठने लगे हैं कि कब तक और किस हद तक हम नर्मदा के पानी का दोहन करते रहेंगे और यह भी कि कालीसिंध और क्षिप्रा नदियों के प्राकृतिक नदी तंत्र को बचाना ज्यादा जरूरी है या कहीं और से पानी लाकर ही इन्हें जीवित रखने की औपचारिकता निभानी है।
पर्यावरणविद मानते हैं कि भारी-भरकम बिजली बिल और मानव संसाधन के बाद क्षिप्रा को बहुत महंगा पानी मिल रहा है। यही हालत इस परियोजना की भी हो सकती है। इतने बड़े खर्च के बाद भी लगातार पानी उलीचने के लिये पहाड़ों पर पानी चढ़ाने में बहुत पैसा खर्च होगा।
इससे भी बड़ा सवाल यह है कि कब तक मध्य प्रदेश में नर्मदा को ही जल संकट का एकमात्र विकल्प माना जाता रहेगा। जब कहीं भी पानी की बात होती है तो नर्मदा का पानी ही याद आता है। इस तरह लगातार, अन्धाधुन्ध और अत्यधिक दोहन से कहीं नर्मदा के प्रवाह क्षेत्र और नदी तंत्र पर तो विपरीत असर नहीं पड़ेगा। पहले ही हम इस पर कई बाँध बना चुके हैं। अकेले मध्य प्रदेश के पचास से अधिक शहरों और साढ़े तीन सौ से ज्यादा कस्बों सहित एक हजार गाँवों को इससे पानी दिया जा रहा है।
देवास जैसे औद्योगिक क्षेत्र में तो सवा सौ किमी दूर से नर्मदा का पानी लाया जा रहा है। इन्दौर जैसे बड़े शहर की प्यास बुझाने के लिये एक के बाद एक तीन चरण बनाकर करीब एक हजार करोड़ रुपए से ढाई सौ एमएलडी पानी ले रहे है। नर्मदा-क्षिप्रा लिंक से ही देवास के उद्योगों को भी 23 एमएलडी पानी दिया जा रहा है। हम नर्मदा पर अनजाने ही कितना बोझ बढ़ाते जा रहे हैं। अब तो राज्य सरकार नर्मदा को बुन्देलखण्ड तक पहुँचाने की भी बात कर रही है।
दरअसल प्रदेश के मालवा इलाके में कालीसिंध नदी का उद्गम नर्मदा के धाराजी तट से 38 किमी है। धाराजी तट ओंकारेश्वर बाँध परियोजना से पहले आता है और इन दिनों इस बाँध की वजह से धाराजी में लबालब पानी भरा हुआ है। यहाँ से नर्मदा नदी के पानी को दो पड़ाव पार करने होंगे। पहले घने जंगल में धाराजी से पुंजापुरा के पारस बाँध तक और फिर यहाँ से 350 मीटर ऊँचे पहाड़ी क्षेत्र में उद्वहन कर इसे कालीसिंध के उद्गम अमोदिया तक लाया जाएगा। यह रास्ता पहाड़ों पर चढ़ते हुए तय होगा। यहाँ से कालीसिंध के प्रवाह क्षेत्र के साथ नर्मदा और कालीसिंध का पानी अब साथ-साथ अपने गन्तव्य की ओर बहेगा।
कालीसिंध नदी का उद्गम विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी (करीब 723 मीटर) देवास जिले के बागली विकासखण्ड के गाँव अमोदिया से है। कालीसिंध नदी देवास जिले के बड़े हिस्से से गुजरते हुए शाजापुर, राजगढ़ होते हुए आगे राजस्थान के झालावाड़ में प्रवेश करती है। इसके बाद यह कोटा के पास चम्बल नदी में जा मिलती है। इसकी लम्बाई मध्य प्रदेश में करीब डेढ़ सौ किमी है।
इलाके के कुछ किसानों को इससे फायदा जरूर हो सकता है लेकिन पर्यावरण के जानकार बताते हैं कि कहीं यह योजना भी नर्मदा-क्षिप्रा लिंक की तरह सफेद हाथी न साबित हो जाये सरकार के लिये यह योजना बहुत महंगी पड़ रही है।
गौरतलब यह भी है कि देवास-शाजापुर जिले के कुछ किसान लम्बे समय से माँग कर रहे थे कि नर्मदा को कालीसिंध में प्रवाहित किया जा सके तो यह इलाका भी गुलजार हो सकता है। यह इलाका बीते कुछ सालों से पानी की कमी से बेहाल है। लेकिन सवाल है कि नर्मदा का पानी देने से पहले क्या कालीसिंध का नदी प्रवाह क्षेत्र सुधारा जाएगा। यदि कालीसिंध का प्रवाह क्षेत्र पर्यावरणीय दृष्टि से नहीं सुधारा जाता, तो कितना भी पानी छोड़ दिया जाये इसका कोई अपेक्षित फायदा नजर नहीं आएगा। फिलहाल कालीसिंध में कई जगह दूषित पानी मिल रहा है। नदी में कहीं भी पानी को ज्यादा दिनों तक रोक पाने का सामर्थ्य नहीं है। जगह-जगह रेत खनन किया जा रहा है।
देवास-शाजापुर जिले में कालीसिंध एक बड़े हिस्से से गुजरती है। यही वजह है कि इसका सबसे ज्यादा फायदा भी सिर्फ यहाँ के ही किसानों को मिलेगा। इससे नदी क्षेत्र के आसपास भूजल में बढ़ोत्तरी, पर्यटन की सम्भावनाएँ और लोगों की आर्थिक दशा में सुधार आने जैसे फायदे गिनाए जा रहे हैं। बीते सालों से बारिश कम होने तथा भूजल में कमी से तेजी से यह इलाका पानी के लिये मोहताज होता जा रहा है। बेहतर यह है कि कालीसिंध के नदी तंत्र को पर्यावरणीय तरीके से ठीक किया जाये ताकि ज्यादा-से-ज्यादा बरसाती पानी को वह सहेजने के काबिल बन सके।
इधर कुछ सालों में जिस तेजी से नदियों की दुर्दशा हुई है, उससे कालीसिंध भी अछूती नहीं रह सकी है। यह कभी इलाके की समृद्धि की पहचान हुआ करती थी। लेकिन बीते 20-25 सालों में बरसात जाते ही पानी कम होते-होते सर्दियों के खत्म होते ही यह सूखने लगी है। नदी के जल्दी सूखने से इलाके का जलस्तर भी कम होता चला गया और अब तो हालत यहाँ तक पहुँच गई है कि इलाके में पानी की तलाश में एक हजार से लेकर बारह सौ फीट तक खुदाई करनी पड़ रही है।
कभी डग-डग रोटी, पग-पग नीर के लिये पहचाने जाने वाले इस इलाके में अब पानी बड़ी चुनौती बन गया है। राजगढ़, शाजापुर और देवास जिले के जिस बड़े हिस्से से कालीसिंध गुजरती है, वहाँ भी पानी का बड़ा संकट है। हर साल गर्मियों में पीने के पानी का संकट यहाँ बढ़ता ही जा रहा है। इस साल तो यहाँ के लोग नवम्बर से ही पानी खरीदने को मजबूर हैं। कुछ बोरिंग वाले इन्हें दो रुपए की एक छोटी केन के हिसाब से पानी बेच रहे हैं। इनके पास पानी खरीदने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है।
जल स्तर जैसे-जैसे कम होता जा रहा है, वैसे-वैसे खेतों पर लगाए गए पुराने बोरिंग हाँफने लगते हैं और धीरे-धीरे सूख जाते हैं। इसका खामियाजा किसानों को उठाना पड़ रहा है। उन्हें हर साल नए बोरिंग करने पड़ रहे हैं। यहाँ गाँव-गाँव धरती का सीना छलनी करते हुए सैकड़ों बोरिंग हो चुके हैं। अब तो हजार-बारह सौ फीट के नीचे बात ही नहीं होती।
सबसे पहले 1995 में बागली के किसान कुरिसिंगल जोशी ने नर्मदा से कालीसिंध को जोड़ने की मुहिम शुरू की थी। उन्होंने कई मंचों से नर्मदा लाओ, मालवा बचाओ की बात को उठाया। वे बताते हैं- '1986-87 में पहली बार राज्य सरकार को इस बाबत लिखा था। तब तक मालवा के नदी-नाले अच्छी स्थिति में थे। 30 लाख रुपए से शुरुआती सर्वे में नर्मदा के पानी को कालीसिंध और क्षिप्रा के जरिए मालवा के आठ जिलों इन्दौर, देवास, शाजापुर, उज्जैन, मंदसौर, रतलाम, राजगढ़ और सीहोर के नदी नालों को सदानीरा बनाने का प्रस्ताव था। इसकी लागत उस समय करीब 17 हजार करोड़ रुपए आँकी गई थी। बताया गया था कि इससे पूरे मालवा क्षेत्र में पानी की कोई कमी नहीं रह जाएगी। इसमें नर्मदा को कालीसिंध के उद्गम और अन्य नदियों तक पहुँचने की बात थी। इससे जुड़ने वाली नदियों में प्रमुख रूप से क्षिप्रा, सरस्वती, खान, लोदरी, गम्भीर, नेवज और चामला शामिल थी। इसके अलावा इलाके के कुछ बड़े बारहमासी नाले भी इसमें जोड़े गए थे।'
वे आगे जोड़ते हैं- 'उन्हीं दिनों ही नर्मदा ट्रिब्यूनल का फैसला आया था कि मध्य प्रदेश नर्मदा के पानी का 18.25 मिलियन एकड़ फीट पानी का उपयोग कर सकता है। लेकिन प्रदेश सरकार के पास इसके उपयोग का कोई ब्लू प्रिंट नहीं था। परियोजना हेतु नर्मदा के मात्र 1.05 मिलियन एकड़ फीट पानी की ही जरूरत थी। इसके लिये कई बार किसान सम्मेलन भी हुए। दिसम्बर 1997 में सैकड़ों किसानों ने बागली में इस माँग पर अपनी मुहर लगाई। लेकिन पूरी योजना लापरवाही और प्रशासनिक अक्षमता से सालों तक फाइलों में दबी रही और 1990 आते-आते लागत भी बढ़कर 22 हजार करोड़ तक पहुँच गई। मालवा के लोग माँग-पर-माँग करते रहे। पर सरकारें नहीं जागीं। हर साल पानी के संकट के साथ ही क्षेत्र में बार-बार नर्मदा लाओ, मालवा बचाओ का नारा लगता रहा। लोग भोपाल गए, तत्कालीन सीएम और राज्यपाल से भी मिले। पत्र भी लिखे पर कुछ नहीं हुआ।'
यहाँ यह बात भी समझने की है कि 1986-87 में सर्वे के वक्त नदियों की हालत इतनी खराब नहीं हुई थी और इससे अन्य नदियों को पुनर्जीवित करने की धारणा थी लेकिन आज खासकर छोटी नदियों को लेकर जिस तरह की विषम स्थितियाँ हैं, उससे ऐसी परियोजनाओं का भविष्य फिलहाल तो आशंकाओं से घिरा ही नजर आता है। बरसों से इसकी माँग करने वाले कुरिसिंगल जोशी कहते हैं कि यह बात उनके लिये किसी सपने के सच होने जैसी है। लेकिन वे जिस महती योजना की बात कर रहे थे, यह वैसी नहीं है। सिर्फ नदियों को जोड़ने से ही बात नहीं बनने वाली, इससे भी ज्यादा जरूरी है कि हम पानी के प्राकृतिक और परम्परागत दृष्टिकोण को भी अपनाएँ और उसे समझने की कोशिश करें। कहीं ऐसा न हो कि कल को नर्मदा की अथाह जलराशि भी हमारी अन्तहीन माँग को पूरा न कर पाये। हमें अपने संसाधनों के बेहतर उपयोग और विकल्पों पर भी लौटना होगा।
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