890 लाख साल पहले पश्चिमी समुद्र को घाटी के निचले भागों में पसरने का मौका मिल गया। धार के मनावर के पास का यह समुद्री जीवन और बड़वाह तक के बाकी जीव इस समुद्री अतिक्रमण की चपेट में आ गए। तो कुछ उसके किनारों की ओर पलायन कर गए। इस समुद्र की गाद यहाँ के चूना पत्थरों के रूप में देखी जा सकती है। चट्टान समूह बन चुकी इस गाद में सैकड़ों तरह के समुद्री जीवों के जीवाश्म मिलते हैं। इनमें सितारा मछली के कई रिश्तेदार, सीप, शंख, केकड़े, प्रवाल आदि हैं। इनके साथ ही शार्क मछलियों के जीवाश्म भी मिले हैं। तब भी इस समुद्र के किनारों तक डायानासोर का साम्राज्य था इस बात के प्रमाण भी मिले हैं। नर्मदाघाटी के मनावर के पास जो प्रमाण मिले हैं उसके अनुसार वहाँ की नर्मदाघाटी में सौरोपोड डायनासोर, अबिलोसौराइड डायनासोर और मगरमच्छ भी रहा करते थे। बाकी के अवशेष फिलहाल नहीं मिल पाये हैं। इनके साथ ही काम ऊँचाई के कुछ जिमनोस्पर्म वृक्षों के जीवाश्म भी मिले हैं। इन्हीं भीतरी लावे के जोरदार थपेड़ों की वजह से घाटी के भूखण्ड का सबसे पश्चिमी भाग समुद्र की तरफ जा सरका। इसके साथ ही 890 लाख साल पहले पश्चिमी समुद्र को घाटी के निचले भागों में पसरने का मौका मिल गया।
मध्य प्रदेश से होकर गुजरने वाली नर्मदा नदी और उसकी घने जंगलों वाली घाटी में क्या कभी समुद्र की लहरें उछलती-मचलती रही होंगी। क्या कभी यहाँ समुद्र रहा होगा। वे क्या वजहें रहीं कि यहाँ समुद्र खुद नदी से एक मुलाकात को चला आया। नर्मदा के उसकी उत्पत्ति से लेकर आज तक 'सक्रिय भूकम्प पेटी' होने के कारण इसके भौगोलिक घाट भी पहले उसकी लहरों की तरह बनते और बिगड़ते रहे हैं। कभी नदी, कभी समुद्र और कभी झीलों के समूह के रूप में नर्मदा सदानीरा रही है।
ऐसे कई सवाल भूगर्भ वैज्ञानिकों के सामने हैं। यदि ऐसा हुआ है तो क्या हमें नदी घाटी सभ्यताओं के अतीत को नए सिरे से खंगालने की जरूरत है। क्या हमें भूगर्भ वैज्ञानिकों और जैव विज्ञानियों की इस नवीन अवधारणा और यहाँ से लगातार मिल रहे फासिल्स को आलोक में लेने की जरूरत है। क्या इससे मानव विकास क्रम को समझने और खासतौर पर नदियों की सभ्यता की समझ विकसित हो सकेगी।
दरअसल ये सवाल नर्मदा घाटी क्षेत्र में मिले कुछ महत्त्वपूर्ण जीवाश्मों के बाद उठ खड़े हुए हैं। जीवाश्मों की खोज करने वाले वैज्ञानिकों का दावा है कि करीब 830 से 890 लाख साल पहले नदी के अन्त वाले छोर से लेकर बड़वाह तक यह समुद्र हिलोर भरता था। धार, खरगोन, बड़वानी और अलीराजपुर जिले के नर्मदा घाटी वाले इलाके में नर्मदा के दोनों ओर समुद्र होने के प्रमाण चट्टानों में फँसे मिलते हैं।
ये प्रमाण जगह-जगह बिखरे से समुद्री जीव हैं जो नर्मदा की विशेषता के कारण पत्थर बन चुके हैं। इन्हीं किनारों पर जिमनोस्पर्म वृक्ष प्रजाति के गगनचुम्बी घने जंगलों में 45 फीट तक लम्बे कई प्रकार के विशालकाय डायनासोर रहा करते थे। उन्होंने इसके प्रमाण में सैकड़ों की तादाद में जीवाश्म यहाँ से इकट्ठा किये हैं।
डायनासोर की कहानी आपने किताबों और फिल्मों में तो खूब देखी होगी लेकिन आपको हैरानी होगी कि आज से करीब 650 लाख साल पहले ये विशालकाय डायनासोर मध्य प्रदेश के नर्मदा घाटी इलाके के घने जंगलों में (तब समुद्र किनारे) बड़ी तादाद में घूमते रहते थे। यह कोई कपोल कल्पित कहानी या अनुमान भर नहीं है, बल्कि वैज्ञानिकों की इस खोज को नागपुर की जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया ने भी प्रमाणित कर दिया है कि ये जीवाश्म करोड़ों साल पुराने जमीनी डायनासोर तथा शार्क सहित समुद्री जीवों के ही हैं।
नर्मदा की सात सहायक नदियों, अलीराजपुर की बाघनी से लेकर मण्डलेश्वर की कारम नदी तक की नर्मदाघाटी का अन्वेषण करने वाले वैज्ञानिक विशाल वर्मा बताते हैं कि भारत, पृथ्वी पर कभी उस सिरे पर हुआ करता था जिस सिरे पर फिलहाल ऑस्ट्रेलिया है। भीतर से पिघली धरती के लावे के थपेड़ों से भारत उस गोंडवाना सुपर महाद्वीप से अलग होकर उत्तर-पूर्व की ओर गति करने लगा। इन थपेड़ों के कारण ही मध्य पश्चिमी भारत में एक बड़े फॉल्ट समुच्चय का निर्माण हुआ जो शुरुआती नर्मदाघाटी घाटी थी।
उस समय दक्कन-मालवा के पठार नहीं थे। नर्मदाघाटी के अलग-अलग स्थानों के भूगोल का परिदृश्य अलग-अलग था। नर्मदाघाटी के मनावर के पास जो प्रमाण मिले हैं उसके अनुसार वहाँ की नर्मदाघाटी में सौरोपोड डायनासोर, अबिलोसौराइड डायनासोर और मगरमच्छ भी रहा करते थे। बाकी के अवशेष फिलहाल नहीं मिल पाये हैं। इनके साथ ही काम ऊँचाई के कुछ जिमनोस्पर्म वृक्षों के जीवाश्म भी मिले हैं।
इन्हीं भीतरी लावे के जोरदार थपेड़ों की वजह से घाटी के भूखण्ड का सबसे पश्चिमी भाग समुद्र की तरफ जा सरका। इसके साथ ही 890 लाख साल पहले पश्चिमी समुद्र को घाटी के निचले भागों में पसरने का मौका मिल गया। धार के मनावर के पास का यह समुद्री जीवन और बड़वाह तक के बाकी जीव इस समुद्री अतिक्रमण की चपेट में आ गए। तो कुछ उसके किनारों की ओर पलायन कर गए। इस समुद्र की गाद यहाँ के चूना पत्थरों के रूप में देखी जा सकती है।
चट्टान समूह बन चुकी इस गाद में सैकड़ों तरह के समुद्री जीवों के जीवाश्म मिलते हैं। इनमें सितारा मछली के कई रिश्तेदार, सीप, शंख, केकड़े, प्रवाल आदि हैं। इनके साथ ही शार्क मछलियों के जीवाश्म भी मिले हैं। तब भी इस समुद्र के किनारों तक डायानासोर का साम्राज्य था इस बात के प्रमाण भी मिले हैं। लगभग 830 लाख वर्ष पूर्व यह समुद्र भी विलुप्त हुआ। उसकी छूट गई सूखी तलहटी, नई जमीन की तरह धुप-बारिश को मुखातिब हुई।
कालान्तर में यहाँ उस समय की वनस्पति पनपने लगी। मीठे पानी की लमेटा चट्टानों का निर्माण होने लगा। जिसके उपयुक्त ठिकानों पर टाईटेनोसोर बड़ी संख्या में अंडे देने आने लगे। जमीन-पानी में दब चुके सैकड़ों अंडे अब भी नर्मदाघाटी के इस क्षेत्र से प्राप्त होते हैं। धार जिले में 4 अंडास्थलियाँ खोजी जा चुकी हैं। इनमें से एक को नेशनल फॉसिल पार्क के रूप में विकसित भी किया जा रहा है।
इन शाकाहारी डायनासोर की दुनिया के वृक्षों और उस जंगल के सर्वोच्च मांसाहारियों के जीवाश्म भी इस क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं। किन्तु ठीक 650 लाख वर्ष पूर्व कुछ पर्वताकार उल्का पिंडों के धरती से आ टकराने की वजह से पूरी धरती थरथरा गई। भूकम्पों की शृंखलाएँ और दरार पड़ती जमीन से लावे के फव्वारे पूरी नर्मदाघाटी से भी छूटने लगे।
डायनासोर और उनकी दुनिया का धीरे-धीरे सफाया हुआ। मालवा और दक्कन का पठार ही इस तरह का कड़क सूखा लावा है। बहरहाल, इन बेसाल्टिक चट्टानों के बीच में भी कुछ जलीय चट्टानें मिलती हैं जिनमें डायनासोर के अवशेष मिलना विश्व दुर्लभ है पर धार के उमरबन के पास से धरती के सबसे आखिरी डायनासोरों के जीवाश्म भी मिले हैं। हमारे पूर्वज उस युग में छोटे-छोटे छछूंदरों के सदृश्य थे। डायनासोर के खत्म होते ही उन्हें विकसित होने का मौका मिला और आज वे हमारी शक्ल में अपने पूर्वजों के अवशेष खोज रहे हैं।
1993 में स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्म जुरासिक पार्क से पहली बार लोगों के जेहन में डायनासोर की छवि सामने आई लेकिन नर्मदा नदी घाटी में कभी समुद्र होने और उनके किनारों पर विशालकाय डायनासोरों की मौजूदगी हमें चौंकाती हैं।
दरअसल अलीराजपुर, धार और खरगोन जिले के करीब 50 वर्ग किमी के नर्मदा घाटी क्षेत्र से बीते 25 सालों में स्थानीय जीवाश्म वैज्ञानिकों तथा ग्रामीण विद्यार्थियों की संस्था मंगल पंचायत ने अब तक बड़ी तादाद में डायनासोर के अंडे, घोंसले, दाँत, उनके कंकाल सहित शार्क मछली, समुद्री जीवों और वनस्पति व पेड़ों के जीवाश्म ढूँढ निकाले हैं। इनमें दो सौ अंडे और 35 घोंसलें भी शामिल हैं, जिनमें डायनासोर अंडे देता था।
इन घोंसलों में दुनिया के सबसे बड़े आकार के घोंसलें भी सम्मिलित हैं। यहाँ शाकाहारी सौरोपोड़ प्रजाति और मांसाहारी एबिलोसोराइड दोनों ही तरह के डायनासोर के जीवाश्म मिलते हैं लेकिन ज्यादातर शाकाहारी हैं, जो 20 से 30 फीट ऊँचे हुआ करते थे और रेतीले इलाकों में अंडे देने आया करते थे। इलाके में उस समय के पेड़ों के करीब 70 फीसदी फासिल्स भी सुरक्षित कर चुके हैं।
इन दुर्लभ जीवाश्मों को खोजने वाली संस्था मंगल पंचायत के विशाल वर्मा इनके महत्त्व के बारे में बताते हैं, 'बड़ी और महत्त्व की बात यह भी है कि यहाँ से इंटर ट्रेपियन डायनासोर यानी दुनिया के आखिरी डायनासोर के जीवाश्म भी मिलते हैं। इस लिहाज से यह डायनासोर के जीवाश्मों की दृष्टि से दुनिया की सबसे बेहतर जगह मानी जा रही है। यहाँ जीव विज्ञान अध्ययन और करोड़ों साल पहले के मानव जीवन के विकास सहित डायनासोर के जीवन क्रम को समझने के लिये इन जीवाश्मों का बहुत महत्त्व है, वहीं इनके अध्ययन से जीव विज्ञान की कई अनसुलझी गुत्थियों को भी सुलझाया जा सकता है।'
यह इलाका महत्त्वपूर्ण जीवाश्म उगल रहा है लेकिन यहाँ के जंगलों में खुली पड़ी इस विरासत को सहेजने के लिये अभी सरकार ने कोई बड़े जतन नहीं किये हैं। इसी वजह से यह साइट अन्तरराष्ट्रीय तस्करी का केन्द्र बनती जा रही है। इतना ही नहीं डायनासोर के जीवाश्मों की खरीद-फरोख्त के लिये दुनिया के कई देशों के तस्कर सक्रिय हैं और बाकायदा अपनी वेबसाइट पर वे इनकी नुमाइश भी करते हैं।
हालांकि यहाँ 0.897 वर्गकिमी क्षेत्र में विकसित किये जा रहे राष्ट्रीय डायनासोर जीवाश्म अभयारण्य के लिये अब केन्द्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय भारत सरकार की अधिसूचना में धार जिले के बाग कस्बे के पास प्रस्तावित अभयारण्य के लिये अधिसूचना राजपत्र में जारी की गई है।
इसके लिये आसपास ढाई सौ मीटर क्षेत्र को पारिस्थितिकी संवेदी क्षेत्र बनाकर इसमें तमाम पर्यावरण को प्रभावित करने वाली गतिविधियों जैसे खनन, पत्थर तोड़ने की मशीन, लकड़ी काटने वाली आरा मशीन, जलस्रोतों को नुकसान पहुँचने वाले उद्योगों, व्यावसायिक निर्माण, बड़ी जल परियोजनाओं या सिंचाई परियोजनाओं सहित अन्य गतिविधियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। निगरानी समिति इस पर सतत निगरानी करेगी। उद्यान के सीमांकन और सुरक्षा तार लगाने का काम पहले ही पूरा कर लिया गया है।
यहाँ पहाड़ी और नदियों के संरक्षण के लिये इलाके में जैविक खेती, सौर ऊर्जा और बारिश के पानी के सहेजने पर भी जोर दिया जाएगा। यहाँ तक कि बिजली और टेलीफोन के लिये भी भूमिगत केबल बिछाने की बात कही गई है।
इलाके के पर्यावरण प्रेमी और जीवाश्मों के शोध से जुड़े स्थानीय वैज्ञानिकों की मंगल पंचायत ने इसका स्वागत करते हुए उम्मीद जताई है कि इससे यहाँ करोड़ों साल पुराने इतिहास को खंगालने और उसके आलोक में नई शोध को प्रोत्साहित किया जा सकेगा। इससे मानव विकास और जीव विज्ञान की कई महत्त्वपूर्ण गुत्थियाँ भी सुलझाई जा सकेंगी और सबसे बड़ी बात कि जैव वैज्ञानिक, भू-गर्भीय तथा मानव समाज और सभ्यता के इतिहास की कई शोधपरक प्रामाणिक जानकारियाँ सामने आ सकेंगी।
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Post By: RuralWater