नर्मदा अंचल की मिट्टियाँ

मिट्टी सदियों में बनती है, इसका नदियों में बह जाना अच्छी बात नहीं है। मिट्टी का बनना एक अत्यंत धीमी प्राकृतिक प्रक्रिया है । उपजाऊ मिट्टी खोना मूल्यवान संपत्ति खोने जैसा ही है क्योंकि इसी पर हमारी कृषि और अर्थव्यवस्था आधारित है । नर्मदा अंचल में पाई जाने वाली मिट्टियाँ इस अंचल की समृद्धि का आधार हैं । परन्तु वनों का घनत्व कम होते जाने और भू-क्षरण के नियंत्रण पर जरूरत से काफी कम ध्यान दे पाने के कारण नर्मदा अंचल तेजी से अपनी मूल्यवान मिट्टी खोता जा रहा ह । नर्मदा की सहायक बडी नदियाँ और उनसे जुडे अनेक नदी-नालों का जाल प्रतिवर्ष कितनी मिट्टी बहाकर नर्मदा में पहुंचा रहा है, हम उसका सही आकलन भी नहीं कर पाते । इन्हीं बिन्दुओं पर ध्यान आकृष्ट करने के लिए इस अध्याय में हम नर्मदा अंचल में पाई जाने वाली मिट्टियों के प्रकार, उनके भौगोलिक वितरण और भू-क्षरण से हो रही क्षति के कारण बांधों पर पडने वाले प्रभावों पर ध्यान देंगें और यह समझने की चेष्टा भी करेंगे कि इन सब बातों का यहाँ के जंगलों से क्या संबंध है?

नर्मदा अंचल में मिट्टियों का प्रकार -

नर्मदा अंचल में मुख्यतः तीन प्रकार की मिट्टियाँ पाई जाती हैं । इनमें सबसे अधिक विस्तार काली मिट्टी का है जिसे कपास वाली काली मिट्टी भी कहा जाता है । इसके अतिरिक्त यहाँ लाल रंग की कंकाली मिट्टी तथा जलोढ मिट्टी भी सीमित क्षेत्रों में पाई जाती हैं । मिट्टी के नीचे मौजूद आधारभूत शैल संरचना में भिन्नता के साथ अलग-अलग क्षेत्रों में में इन मिट्टियों के गुणधर्म और रंग में स्थानीय बदलाव भी देखने में आते हैं । इन तीनों प्रकार की मिट्टियों के गठन, रचना व गुणधर्मग् तथा नर्मदा अंचल में इनके वितरण के बारे में जानकारी आगे दी गई है ।

(अ) काली मिट्टियाँ - काल मिट्टियां अपने काले और गहरे रक्ताभ भूरे रंग के कारण अलग से पहचान में आ जाती हैं । ये दुमट या मटियार ;प्रकृति की चिकनी और चूनेदार मिट्टियाँ हैं जिनमें सफेद चूना बारीक सफेद कंकडों के रूप में मिश्रित रहता है । चिकनी मिट्टी का प्रतिशत अधिक होने के कारण काली मिट्टियाँ अपेक्षाकृत कम पारगम्य होती हैं और पानी सोखने की इनकी क्षमता भी कम होती है । अपने इसी गुण के कारण वर्षा ऋतु में काल मिट्टियां फूलकर काफी चिपचिपी सी हो जाती हैं जबकि गर्मी के मौसम में सूखकर ये फट जाती हैं और इनमें गहरी दरारें पड जाती हैं । रासायनिक गुणधर्म की दृष्टि से काली मिट्टियाँ क्षारीय या उदासीन होती हैं और इनमें फास्फोरस तथा पोटेशियम पर्याप्त मात्रा में मिलता है जबकि समान्यतः नाइट्रोजन की कमी पाई जाती है । नर्मदा अंचल में पाई जाने वाली काल मिट्टी को उसकी गहराई के आधार पर तीन उपवर्गों में बांटा गया है - गहरी काली मिट्टी, मध्यम काली मिट्टी तथा उथली काली मिट्टी ।

गहरी काली मिट्टी - गहरी काली मिट्टी 1.5 मीटर से लेकर 6 मीटर से अधिक गहराई वाली भी हो सकती है । गहरी काली मिट्टी मटियार प्रकृति की होती है जिसमें चिकनी मिट्टी 60 प्रतिशत से भी अधिक तथा चूने की मात्रा पर्याप्त होती है । गहरी काली मिट्टी जलोढ घाटी में पूरे क्षेत्र में पाई जाती है, परन्तु इनके बडे क्षेत्र होशंगाबाद-नरसिंहपुर के निकट तथा भडोच-बडौदा के मैदानों में पाए जाते हैं । तवा नदी की घाटी तथा सतपुडा गिरिपाद में बडी मात्रा में रेतीली मिट्टी भी मिलती है ।

मध्यम काली मिट्टी - मध्यम काली मिट्टी नर्मदा नर्मदा अंचल के काफी बडे क्षेत्र में पाई जाती है । लगभग 30 से0मी0 से लेकर 1.5 मीटर तक गहराई वाली काली मिट्टी को मध्यम काल मिट्टी माना जाता है । इनका रंग सामान्यतः गहरा भूरा या हलका काला होता है । इनमें चिकनी मिट्टी 20 से 40 प्रतिशत तक हो सकती है और ये अधिक भारी होती हैं । इस मिट्टी का अधिक विस्तार मण्डला, डिंडोरी, नरसिंहपुर, सीहोर, होशंगाबाद, हरदा, निमाड, धार, झाबुआ आदि सभी क्षेत्रों में है।

उथली काली मिट्टी - उथली काली मिट्टी की गहराई आमतौर पर 30 से0मी0 से कम होती है । इनमें चिकनी मिट्टी 30 प्रतिशत से भी कम होती है तथा रेत, बजरी, कंकड आदि का मिश्रण भी इनमें मिलता है । सतपुडा पर्वत श्रेणी के अधिकांश भाग में उथली काली मिट्टी मिलती है । आधारभूत शैल संरचना औकर ढाल के कारण उथली काली मिट्टी के गुणों में स्थानीय तौर पर विभिन्नताएं देखने में आती हैं ।

(ब) लाल कंकाली मिट्टियाँ - चिकनी मिट्टी की कमी वाली कंकड-बजरी युक्त लाल रंग की मिट्टियों में उपजाऊ तत्वों की कमी होती है और ये रासायनिक दृष्टि से अम्लीय प्रकृति की होती हैं । उपजाऊ तत्वों की कमी के कारण इनमें सामान्यतः कोदों, कुटकी, जगनी आदि फसलें उत्पन्न की जाती हैं । मण्डला व झाबुआ जिलों में इस प्रकार की मिट्टी उल्लेखनीय रूप से पाई जाती है । लाल मिट्टियों में एल्युमीनियम, मैग्नीशियम तथा लोहे के आक्साइडों की अधिकता होती है ।

(स) तटीय जलोढक - यह मिट्टी चिकनी काली मिट्टी और पुराने सम्रदी निक्षेपण के मिश्रण से बनी खारी प्रकृति की मिट्टी होती है जो कृषि के लिए उपयुक्त नहीं है । नर्मदा बेसिन में तटीय जलोढक मिट्टी केवल एक संकरी सागर तटीय पट्टी में ही सीमित है ।

मिट्टियों का स्थानीय विभाजन -

रंग, संघटन, गहराई, जल धारण क्षमता, सतल की ढाल, भूजल स्तर की गहराई तथा अन्य कई गुणों के आधार पर नर्मदा अंचल की मिट्टी को अलग-अलग क्षेत्रों में स्थानीय तौर पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है । जोशी (1972) द्वारा इन्हें चार प्रमुख वर्गों में रखा गया है।

(अ) गहरी तथा मध्यम काली मिट्टियों का वर्ग जिनमें जबलपुर, नरसिंहपुर मण्डला तथा निमाड की ’काबर‘, होशंगाबाद तथा रायसेन की जलोढ घाटी की ’मरीयर‘ और ’मुण्ड‘ बैतूल जिले की ’काली‘ तथा भडोंच-बडौदा के मैदान की ’कन्हाम‘ तथा ’क्यारी‘ मिट्टियाँ सम्मिलित हैं ।

(ब) निम्न कोटि की अपरदित काली मिट्टियों का वर्ग जिनमें सोहागपुर, बरेली, उदयपुरा, नरसिंहपुर, गाडरवारा तथा पाटन तहसीलों में पाई जाने वाली ’रांकड‘, ’पिल्होटा‘ तथा ’पटरूआ‘, मण्डला तथा बालाघाट की ’मटबर्रा‘ तथा निमाड के मैदान और सतपुडा के गिरिपाद में पाई जाने वाली ’खरडी‘ मिट्टियाँ सम्मिलित हैं ।

(स) पहाडी तथा पथरीली लाल मिट्टियों का वर्ग जिनमें मण्डला उच्च प्रदेश की भर्रा, जबलपुर तथा नरसिंहपुर के पहाडी भागों की ’भटुआ‘, होशंगाबाद जिले के दक्षिणी भाग में सतपुडा पर्वत श्रेणी के निकट मिलने वाली ’खैरी‘ तथा बालाघाट जिले के पहाडी भाग की ’बरडी‘ सम्मिलित है ।

(द) रेतीली मिट्टियों का वर्ग जिनमें बंजर तथा फेन नदी की घाटियों और सिहोरा, सोहागपुर तथा बैतूल तहसीलों में नदियों के किनारे मिलने वाली ’सेहरा‘, मण्डला तथा अन्य कई जिलों में काली मिट्टी के मिलने से बनने वाली ’दोमट्टा‘ तथा पुरानी जलोढ मिट्टी ’गोरट‘, बैतूल तथा बालाघाट जिले की -रेतारी‘ तथा नरसिंहपुर जिले की ’रितुआ‘ तथा ’झिगरा‘, सम्मिलित हैं ।

उपरोक्त स्थानीय वर्गों में बताई गई मिट्टियों के अतिरिक्त नदियों के बाढ के मैदानों में मिलने वाली जलोढ मिट्टी को मध्यप्रदेश में ’कछार‘ तथा गुजरात में ’भटा‘ के नाम से जाना जाता है।
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