नरेगा से आगे जहां और भी है

नरेगा - 'राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना' ने कांग्रेस गठबंधन को सत्ता में फिर से लाने में मदद कर दी । यह दावा कांग्रेस के नेता करते हैं लेकिन इससे यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि सचमुच सारे गांव और ग्रामीण बहुत खुशहाल हो गए हैं । ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी संख्या में गरीब मजदूरों को थोड़ी राहत मिली है । वह भी साल में एक सौ दिन की मजदूरी लेकिन खेती करने वाले किसानों की हालत निरंतर खराब होती जा रही है । अंग्रेजीदां नेता, अफसर और मीडिया का एक प्रभावशाली वर्ग किसानों के असली दुख-दर्द को नहीं समझ पा रहा है। नए वित्तीय वर्ष में ग्रामीण क्षेत्र के लिए विपुल धनराशि का प्रावधान भले ही हो, किसानों की समस्याओं के निदान के कार्यक्रम और उनके क्रियान्वयन की कोई झलक नहीं दिखती । किसानों को आर्थिक सहयोग के मोटे-मोटे आंकड़े सुनाए-पढ़ाए जा रहे हैं । तथ्य इसके विपरीत है । असलियत यह है कि कृषि क्षेत्र में ऋण की राशि कम होती चली गई है। कृषक समुदाय में छोटे और मध्यम श्रेणी के किसान ८४ प्रतिशत हैं । १९९० के दशक तक २५ हजार रुपए तक का ऋण लगभग ५८.७ प्रतिशत किसानों को मिल रहा था । १९९५ तक यह आंकड़ा ५२ प्रतिशत हुआ । सन २००० में यह २३.५ प्रतिशत हो गया । सन २००६ के बाद यह १३.३ प्रतिशत पहुंच गया है । इस तरह २० वर्षों में यह ७५ प्रतिशत कम हो गया । जबकि बड़े किसानों को एक करोड़ रुपए से अधिक का कर्ज देने की स्थिति में चार गुना बढ़ोतरी हो गई है । इसलिए उदार अर्थव्यवस्था वाली सरकार आंकड़ों की बाजीगरी कर क्या देश के ७० करोड़ किसानों के साथ छल नहीं कर रही है ?

बड़े बाबुओं द्वारा चलाई जा रही सरकार के कर्मचारियों की तनख्वाहें निरंतर बढ़ती गई हैं । इस पर सरकारी खजाने से लगभग ५० हजार करोड़ रुपए खर्च होने लगे हैं । कर्मचारियों के न्यूनतम वेतन और भत्तों में प्रतिमाह लगभग १० हजार रुपए तक की बढ़ोतरी हो चुकी है । अधिकारियों का वेतन २०० प्रतिशत बढ़ा दिया गया । इसी तरह औद्योगिक क्षेत्र में सुविधाओं और कर्ज में ४५ प्रतिशत तक की वृद्धि हो गई । दूसरी तरफ सामान्य किसानों की औसत आय निरंतर कम हुई है । सरकार के अपने अर्जुन सेन गुप्ता आयोग की रिपोर्ट के अनुसार छोटे किसानों की औसतन मासिक आय केवल १,५७८ रुपए और बड़े किसानों की आय सिर्फ ८,३२१ रुपए है । कर्मचारियों और अधिकारियों की समस्याओं और आंदोलनों के लिए श्रम संगठन हैं तथा मंत्री ही नहीं प्रधानमंत्री तक उनसे बात कर लेते हैं । उद्योगपतियों और व्यापारियों के लिए फिक्की, एसोचेम, सीआईआई जैसे कई प्रभावशाली संगठन हैं। ताम-झाम और ग्लैमर वाले इन संस्थानों में प्रधानमंत्री तक साल में चार-पांच बार चले जाते हैं लेकिन छोटे और मध्यम वर्ग के किसानों के लिए पिछले ५ वर्षों में एक बार भी प्रधानमंत्री ने क्या कोई समय दिया? मजेदार बात यह है कि राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने अवश्य किसान प्रतिनिधि मंडलों को मिलने के लिए अवसर दिए । राष्ट्रपति अपनी चिंता सरकार को सूचित मात्र कर सकती हैं । असली काम तो सरकार को करना है । पूर्व प्रधानमंत्रियों पं. जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और श्रीमती इंदिरा गांधी के सत्ताकाल में किसानों की ओर जितना ध्यान दिया गया, पिछले १० वर्षों में ढोल अधिक पीटे गए हैं, छोटे और मध्यम किसानों को निराशा अधिक मिली है ।

भारतीय किसानों के संगठनों के महासंघ से जुड़े पी. चेंगल रेड्डी ने कुछ अर्से से किसानों की आवाज उठाने का अभियान चलाया है । उनकी बातें व्यावहारिक हैं । रेड्डी के अनुसार 'नरेगा तात्कालिक राहत है, किसानों को परेशान कर रही 'बीमारियों' का निदान नहीं है ।' ग्रामीण मजदूरों को केवल एक सौ रुपया देने के लिए छोटी-मोटी मजदूरी का काम देने की अपेक्षा किसानों और गांव को अधिक समर्थ बनाने पर धनराशि देने से मजदूरों को सही लाभ मिलेगा । सूखाग्रस्त, आदिवासी अंचल तथा पिछड़े क्षेत्रों में 'नरेगा' को प्राथमिकता दी जा सकती है । पंचायतों के माध्यम से कृषि योजनाओं के कार्यक्रमों का व्यापक क्रियान्वयन करने के लिए प्रशासन का विकेंद्रीकरण आवश्यक है । इसमें कोई शक नहीं कि कृषि और सिंचाई को राज्य सरकारों के अंतर्गत कहकर केंद्र अपनी जिम्मेदारियों से बच जाता है । इस मुद्दे पर संसद को गंभीरता से विचार कर राष्ट्रीय स्तर पर समान रूप से कृषि तथा सिंचाई को प्राथमिकता देकर कार्यक्रम क्रियान्वित करने का संकल्प लेना चाहिए। जिस तरह औद्योगिक क्षेत्र के लिए भारी पूंजी का निवेश हो रहा है, कृषि क्षेत्र में भी निजी पूंजी लगवाने का प्रयास हो सकता है । उद्योग, शिक्षा, परिवहन, विमानन जैसे क्षेत्रों के लिए उच्च स्तरीय सलाहकार परिषदें हो सकती हैं तो किसानों के लिए प्रधानमंत्री से जुड़ी उच्चस्तरीय सलाहकार परिषद क्यों नहीं गठित हो सकती ? फिर ऐसी सलाहकार परिषद की सिफारिशें प्रधानमंत्री अनिवार्य रूप से लागू क्यों नहीं करवा सकते ?

ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार के साथ शिक्षा की ओर ध्यान देने की अधिक आवश्यकता है । चुनाव के बाद आए बजट में कोई संकेत नहीं है कि सरकार साक्षरता अभियान को आगे चलाएगी जबकि देश के २६ प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में परिवार का मुखिया अब भी निरक्षर है । निरक्षर आबादी को शिक्षित किए बिना सही अर्थों में ग्रामीण विकास नहीं हो सकता । केंद्र सरकार का सर्वाधिक ध्यान अब उच्चशिक्षा और विदेशी शैक्षणिक संस्थानों पर है । ग्रामीणों के लिए बीमा योजना, बैंकिंग सुविधा की घोषणाएं हो रही हैं । निरक्षर ग्रामीण ऐसी योजनाओं का कितना लाभ उठा सकेंगे ? आदिवासी बहुल राज्यों में खदानें निजी क्षेत्र को सौंपी जा रही हैं । मजदूर निरक्षर होंगे तो उनका शोषण निश्चित बढ़ेगा । इससे उपजा असंतोष देर-सबेर हिंसा का रूप लेगा । एक अनुमान के अनुसार देश में १० करोड़ ३० लाख परिवार हैं । वे ११ करोड़ २० लाख हेक्टेयर में फैले ११ करोड़ खेतों में मेहनत करके पेट पालते हैं।

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