नरबदा अरे माता तो लगै हो . . .

प्राचीनता


नर्मदाघाटी के भू स्तरों की खोजों से पता चलता है कि नर्मदाघाटी की सभ्यता सिन्धुघाटी की सभ्यता से बहुत पुरानी है। नर्मदाघाटी में प्राप्त भैंसा, घोड़े, रिनोसिरस, हिप्पोपोटेमस, हाथी और मगर की हड्डियों तथा प्रस्तर-उद्योग से पता चलता है कि यह भूभाग आदिम मानव का निवास था। इसी क्षेत्र में 1872 ई. में खोजी गयी स्फटिक चट्टान से निर्मित एक तराशी प्रस्तर कुल्हाड़ी को भारत में प्राप्त प्रागैतिहासिक चिन्हों में सबसे प्राचीन बताया गया है। और उसे पूर्व-चिलयन युग का माना गया है।1 इसी प्रकार जबलपुर के भेड़ाघाट में पुरापाषाण युग के अनेक वृहत् जीवाश्म और प्रस्तरास्त्र मिले हैं।2 सागर की दक्षिणी पेटी से डब्ल्यूए. विलसन ने 1866 ई. में प्रागैतिहासिक सामग्री एकत्रित की थी, जो कलकत्ता म्यूजियम में सुरक्षित है।3 होशंगाबाद की आदमगढ़ गुहा तथा सागर के आबचंद औऱ नरयावली के क्षेत्रों के गुहाचित्रों में मानव की कलाभिव्यक्ति प्राचीनता की साक्षी है। तात्पर्य यह है कि बुन्देलखण्ड का इतिहास और संस्कृति उतनी ही प्राचीन है, जितना आदिमानव।

सिंधु और गंगा के अंचलों में पाषाणकालीन संस्कृति के चिन्ह प्रायः नहीं मिलते, जबकि बुन्देलखण्ड में नर्मदा-चम्बल की घाटियों और बीच के पठार में पाषाणास्त्र अधिक मात्रा में प्राप्त हुए हैं। मध्यपाषाण और उत्तरपाषाण युग के छोटे पाषाणस्त्र एवं उन पर पालिश करने की कला के नमूने भी मिले हैं। उत्तरपाषाण काल के चिकनाये अस्त्र उत्तर में हमीरपुर से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक प्राप्त हुए हैं। इस युग में मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग भी होने लगा था। एरण की खुदाई में प्राप्त मृण्मय भाण्डों के अलंकरण से स्पष्ट है कि इस जनपद में ज्यामिति रेखांकन से परिष्कृत अलंकृतियाँ लिखी जाने लगी थीं। वैदिककाल में यहाँ आर्य संस्कृति का प्रवेश नहीं हुआ था। उत्तरवैदिक साहित्य में नर्मदा नदी का नाम मिलता है4 , जबकि नर्मदा और वेत्रवती बुन्देलखण्ड की माताएँ थीं।

बाण ने अपनी ऐतिहासिक महत्व की कृति ‘हर्षचरित’ में विन्ध्याटवी के एक वन्य ग्राम का वर्णन किया है, जिसे डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने ‘हर्षचरित-एक सांस्कृतिक अध्ययन’ में ‘जंगली देहात की आदिमकालीन जीवन के उस रूप का चित्रण है, जो शिकारी और किसानी के बीच का है। अनेक छोटे-बड़े जानवरों का शिकार कर जीविका चलाते थे, जिसे शिकारी जीवन कह सकते हैं। कुछ थोड़ी जगह में हल-बैल की खेती करते थे, जिसे किसानी जीवन मानना उपयुक्त है। बीच वाले जीवन में हल-बैल के बिना कुदाल से धरती गोड़कर बीज बोने का काम होता था, जिसमें कम जगह ही उपयोग में लायी जाती थी।

‘हर्षचरित’ के गाँव की प्रमुखताएँ संक्षेप में इस प्रकार हैं- गाँवों की सुरक्षा के लिए एक बाड़ा बनाते थे, जिसमें आक्रामक बाघ को फँसाने के लिए जाल रहता था। किसानी कुदाली से जमीन गोड़कर खेत का टुकड़ा बना लेते थे और उसके पास एक ऊँचा मचान खड़ा करते थे, जहाँ बैठकर रखवाली की जा सके। कुड़बी लोग काष्ठ-संग्रह से जीवनयापन करते थे। वनोपज में शहद, मोम, रुई, अलसी, सन, मोरपंख, खस, कत्थे की लकड़ी गन्ना, ईख, बाँस, सहजन, मखाना, जंगली फल, वन्य औषधियाँ बेचकर आवश्यक वस्तुएँ क्रय करते थे। जंगली जानवरों से रक्षा के लिए घरों के चारों ओर बाड़ (बारी) लगाते थे। पेड़ों के झुरमुट में कुइयाँ खोदकर नागफनी से घेर देते थे और प्याऊ की मड़ैया बनाकर प्याऊ रखते थे। साथ ही सत्तू और लाल शर्करा कुल्हड़ों में देने की व्यवस्था करते थे। घनौचियों पर मिट्टी की गगरियाँ रहती थीं और कंटकित कर्करी में काँटे जैसी बुंदकियों की सजावट होती थी, जो लोककला कि प्रमुख विशेषता थी।

विन्ध्याटवी में शबरों (सौंरों) की बस्तियाँ थीं। बाण ने निर्घात नामक शबर युवक के उपमान में काला पहाड़ और खराद पर उतारा लोहे का खंभा चुने हैं। बाँह पर फूल-पत्तियों का गोदना गुदा था, जो लोककला की परम्परा के अपनाने के कारण उसका श्रृँगार था। धनुष-बाण से शिकार करने का चाव था, इसलिए खरगोश और तीतर भुजा पर टंगे थे। इस जंगल में विविध वृक्षों, पक्षियों और पशुओं के नामों का उल्लेख है, जिनको काव्यात्मक पंक्तियों में अंकित करना और मौलिक बिम्बों की रचना महाकवि बाण की विशेषता है।

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