नोएडा-ग्रेनो बिल्डर्स भूजल दोहन स्थगनादेश

building construction affects groundwater
building construction affects groundwater

आज नोएडा, नोएडा एक्सटेंशन, ग्रेटर नोएडा के इलाकों में सैंकड़ों बिल्डर्स भूजल को मुफ्त का समझकर अंधाधुंध खींच रहे हैं। मुफ्त पानी से निर्माण की लागत घटती है, बिल्डर्स का मुनाफ़ा बढ़ता है; लेकिन मकान खरीदने वाले का कोई फायदा नहीं होता। उसे घाटा ही घाटा है। हम क्यों भूल जाते हैं कि इससे ग्रेटर नोएडा व नोएडा का भूजल उतरकर कई फीट और गहरे चला जाने वाला है। कल को यही इलाके पानी की कमी वाले इलाकों में तब्दील होने वाले हैं। बिल्डर्स तो इमारत बनाकर और मुनाफ़ा कमाकर चले जायेंगे, आगे चलकर इन बहुमंजिली इमारतों में रहने वालों को पानी कहां से मिलेगा?

नोएडा और ग्रेटर नोएडा के सभी बिल्डर्स पर निर्माण या किसी अन्य उद्देश्य हेतु भूमिगत जल निकालने पर जारी स्थगनादेश जल संरक्षण की गुहार बनकर एक बार फिर सामने है। जी हां! तब तक यह गुहार ही रहेगी, जब तक इसकी अनुपालना सुनिश्चित नहीं हो जाती। यूं तो 11 जनवरी, 2013 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने स्थगनादेश जारी कर दिया है। ट्रिब्यूनल के अगले निर्णय तक यह स्थगनादेश बरकरार भी रहेगा। इस स्थगनादेश की अनुपालना कराने की जिम्मेदारी भारत सरकार के केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण की है। उसने नोएडा व ग्रेटर नोएडा के स्थानीय प्रशासन तथा विकास प्राधिकरणों को उक्त स्थगनादेश की पालना सुनिश्चित कराने का एक आदेश भेजने के अलावा अखबारों में एक सार्वजनिक सूचना भी जारी कर दी है। स्थगनादेश की पालना न करने वाले बिल्डर्स की बिजली आपूर्ति आदि बंद कर देने की कार्रवाई का अधिकार भी इस आदेश का हिस्सा है। लेकिन क्या कागज़ पर दर्ज इन आदेशों को जारी कर देने मात्र से इन इलाकों में चल रहे अंधाधुंध जलदोहन पर रोक लग जायेगी? क्या इतने भर से भूजल प्राधिकरण के कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है?? कतई नहीं! किंतु अब तक होता तो यही रहा है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दूसरा खास औद्योगिक इलाक़ा-गुड़गाँव इसका गवाह है।

प्रतिबंध भी: उल्लंघन भी


गुड़गाँव में भी जलदोहन नियंत्रण प्रतिबंध लागू हैं। बावजूद इसके गुड़गांव में बेलगाम जलदोहन जारी है। दिखावे के लिए बिल्डर्स ‘हुडा’ द्वारा प्रदत टैंकर का पानी खरीदते ज़रूर हैं; लेकिन वास्तव में वे असल काम छोटे-छोटे बोरों से पानी निकालकर ही करते हैं। निर्माण की जरूरत के लिए दो-ढाई हजार रुपये प्रति टैंकर खर्च करने की जहमत उठाना उन्हें वाजिब नहीं लगता। जांच टीमों की सूचना उनके आने से पहले ही बिल्डर्स तक पहुंच जाती है। ऐसी स्थिति में वे छोटे बोरों को खत्म कर देते हैं। बाद में पुनः खोद लेते हैं। इसी तरह हो रही है प्रतिबंध की अनुपालना! बिल्डर चाहे बादशाहपुर में 35 मंज़िली अनोखी इमारत बना रहे ‘प्रतिभा’ जैसा बड़ा हो या कोई छोटा.... यह किसी एक बिल्डर्स की कहानी नहीं है; यह प्रेक्टिस यहां आम है। जाहिर है कि ऐसे तो नहीं ही बचेगा गुड़गाँव वासियों के लिए भविष्य का पानी। गुड़गाँव का पानी लगातार और साल-दर-साल तेजी से उतर रहा है। गरीब मज़दूरों व किसानों को छोड़कर बाकी लोग आज ही खरीदकर बोतलबंद पानी पी रहे हैं। आगे चलकर यह इलाका पूरी तरह पानी के व्यावसायीकरण के कब्जे में होगा। जिस दाम मिलेगा, उसी दाम खरीदकर पीना पड़ेगा; चाहे जेब इसकी इजाज़त दे या न दे। सोचिए! क्या यह अच्छा होगा?

भावी पानी बचाने को ही है प्रतिबंध


स्पष्ट है कि नोएडा तथा ग्रेटर नोएडा वासियों का हित ग्रीन ट्रिब्यूनल स्थगनादेश की अनुपालना में ही है। सच यही है कि यदि पूरी तरह लागू हो सके, तो बिल्डर्स पर लगा यह प्रतिबंध ही आगे चलकर आबादी के लिए पानी बचाने वाले साबित होगा। आज नोएडा, नोएडा एक्सटेंशन, ग्रेटर नोएडा के इलाकों में सैंकड़ों बिल्डर्स भूजल को मुफ्त का समझकर अंधाधुंध खींच रहे हैं। मुफ्त पानी से निर्माण की लागत घटती है, बिल्डर्स का मुनाफ़ा बढ़ता है; लेकिन मकान खरीदने वाले का कोई फायदा नहीं होता। उसे घाटा ही घाटा है। हम क्यों भूल जाते हैं कि इससे ग्रेटर नोएडा व नोएडा का भूजल उतरकर कई फीट और गहरे चला जाने वाला है। कल को यही इलाके पानी की कमी वाले इलाकों में तब्दील होने वाले हैं। बिल्डर्स तो इमारत बनाकर और मुनाफ़ा कमाकर चले जायेंगे, आगे चलकर इन बहुमंजिली इमारतों में रहने वालों को पानी कहां से मिलेगा? पानी जितना गहरे से खींचकर ऊपर आयेगा, उतनी गहराई पर स्थित हानिकर तत्व उसके साथ ऊपर आएंगे ही। देश में फ्लोराइड और आर्सेनिक जैसे हानिकर तत्वों से ग्रस्त पानी वाले इलाकों की बढ़ती संख्या दोहन की ऐसी अति का ही परिणाम है।

प्राधिकरण दफ्तरी : जिम्मेदारी संभाले नागरिक


भूजल बर्बाद करते बिल्डर्सभूजल बर्बाद करते बिल्डर्सग्रेटर नोएडा, नोएडा और गुड़गाँव आज राष्ट्रीय ख्याति के औद्योगिक-रिहायशी क्षेत्र हैं। “मन में है इक सुंदर सपना: नोएडा में भी हो घर इक अपना’’ यह सपना लेने वाले क्या चाहेंगे कि कल को उनका आवास क्षेत्र बीमार पानी के इलाकों में तब्दील हो जायें? उनकी पीढ़ियाँ जो कमायें, बीमारी उसे लूटकर ले जाये? कोई नहीं चाहेगा कि ऐसा हो। इसीलिए जरूरी है कि अंधाधुंध भूजल के दोहन पर लगी रोक की पालना सुनिश्चित कराने के लिए इलाके के निवासी खुद आगे आयें। वे आगे आयें, जिन्होंने इन इमारतों में अपने मकान बुक कराये हैं.... जो भविष्य में इन इलाकों के निवासी होने वाले हैं। इसके लिए बिल्डर्स, भूजल प्राधिकरण, विकास प्राधिकरण या प्रशासन से अपेक्षा करने मात्र से काम चलेगा नहीं। यदि भूजल प्राधिकरण ने अपनी ज़िम्मेदारी निभाई होती, तो ग्रीन ट्रिब्यूनल को दखल देने की जरूरत ही क्यों पड़ती!

उल्लेखनीय है कि पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 की धारा 3(3) की अधिसूचना एस. ओ. 38 ई दिनांक 14 जनवरी, 1997 के तहत केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण की स्थापना करते वक्त अपेक्षा की गई थी कि भूजल प्राधिकरण देश में अंधाधुंध बोरिंग आदि पर लगाम लगाकर भूजल दोहन को विनियमित करेगा। भूजल का संरक्षित व सुरक्षित करने के दृष्टिकोण से आवश्यक विनियामक दिशा-निर्देशों जारी करेगा। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति हेतु ही केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण की स्थापना की गई थी। किंतु दुर्भाग्य से प्रदूषण के लिए स्थापित केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की तरह भूजल प्राधिकरण भी कागजी रिकार्ड रखने वाले दफ्तरी से ज्यादा कुछ साबित नहीं हुआ। इन दोनों के पास आज अनुसंधान हैं, आंकड़ें हैं, बजट है, अमला है। सब कुछ है, लेकिन ज़मीनी कार्रवाई नहीं है। इसीलिए जरूरी है कि नोएडा और ग्रेटर नोएडा ही नहीं, तमाम ऐसे इलाके जहां पानी का अति दोहन चुनौती बनकर सामने खड़े होने की आशंका है, वहां के निवासी खुद लामबंद होकर ऐसे आदेशों की पालना करायें। जन निगरानी का स्थायी और सशक्त तंत्र बनायें। यह तभी संभव है, जब नागरिक पहले खुद पानी के अनुशासित उपयोग को अपनी आदत बनायें। क्या नोएडा-ग्रेनो वासी ऐसा करेंगे?

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