नजीर और नसीहत

डीआरडीओ : सैनिटेशन मॉडल


सरकार के रक्षा अनुसंधान विकास संगठन (डीआरडीओ) द्वारा विकसित सेनिटेशन मॉडल ठोस मल को तरल में बदल कर उपयोगी बना देता है। यह मॉडल सेप्टिक टैंक में पांच खड़े छन्ने लगाता है। हर छन्ने में अलग तरह का जीवाणु मल से कुश्ती करता है। पांचवी स्टेज के बाद ठोस मल पौष्टिक तरल में बदल जाता है। इस कारनामे की पहली शर्त है कि शौच का टैंक अलग हो और नहाने-धोने और अन्य किसी भी प्रकार के रसायन मिले पानी का टैंक अलग। जीवाणुओं को भोजन लगातार मिले, ताकि वे जिंदा रहें और प्रजनन करते रहें। मूलत: इस मॉडल का प्रयोग सर्वप्रथम सियाचिन ग्लेशियर में तैनात फौजियों के शौच निस्तारण में आई दिक्कत से निपटने के लिए किया गया। बाद में इसे अन्य स्थितियों में उपयोग की दृष्टि से विकसित किया गया। डीआरडीओ ऐसी कई जनोपयोगी अनुसंधानों के लिए जाना जाता है।

नसीहत :


बजाय सारा मल एक जगह इकट्ठा करके उसे साफ किया जाए एकल और विकेन्द्रित मल शोधन प्रणालियों में शुद्धता की गारंटी संभव है। कचरे का निस्तारण उसके स्रोत पर ही हो। यही सर्वश्रेष्ठ। अविष्कारों को प्रयोगशालाओं से बाहर निकालकर न्यूनतम लागत पर जनोपयोग में लगाने की जरूरत। कचरा निष्पादन के लिए औद्योगिक क्षेत्र कम लागत प्रणालियों की ओर निहार रहा है।

बायोसैनिटाइजर


नासिक म्युनिस्पलिटी से लेकर गोवा के होटलों तक ‘बायोसैनिटाइजर’ नाम से प्रचलित प्राकृतिक क्रिस्टल के प्रयोग पर जनक दफ्तरी का दावा है कि यह नाइट्रेट से लेकर फ्लोराइड और आर्सेनिक तक की अशुद्धि को नियंत्रित करने की क्षमता रखता है। इसे सीधे पानी की टंकी में भी डाला जा सकता है। तालाबों की शुद्धि में यह उपयोगी है। कहते हैं कि इस क्रिस्टल का कभी क्षय नहीं होता; यानी ख़रीद पर खर्च एकबारगी है।

नसीहत :


प्रदूषण की समस्या का समाधान प्राकृतिक तत्वों से संभव है। आवश्यक नहीं है कि समाधान महँगा हो, तभी कारगर।

हनी शकर्स


बेंगलुरु में ‘हनी शकर्स’ के दौड़ते चार सौ से अधिक टैंकरों से बेंगलुरु का हर मोहल्ला वाकिफ है। ये घरों से पैसा लेते हैं। उनका मल उठाते हैं और खेतों में ले जाकर कंपोस्ट खाद बनाकर किसानों/ नगर निगमों बेच देते हैं। वे मल शोधन से कमाते हैं; सरकार गंवाती है।

नसीहत :


सब काम सरकार पर छोड़ने के बजाय हम स्वयं अपने कचरे के निस्तारण की प्रक्रिया शुरू करें। उसका खर्च भी खुद ही वहन करें। आखिरकार सरकार जो पैसा खर्च करती है, वह भी तो हमारा ही है।

ग्रीन टॉयलेट्स


आईआईटी कानपुर द्वारा तैयार ‘ग्रीन टॉयलेट्स’ मॉडल नदी किनारे के मेलों आदि के लिए कामयाब माना गया है। यह एक ही पानी के कई बार उपयोग तथा ठोस व तरल को अलग-अलग करने की विधि पर आधारित है। ठोस मल को अलग कर किसी टैंक या गड्डे में भेज देते हैं। शेष बचे पानी को साफ कर एक मोटर की सहायता से वापस टंकी में पहुंचा दिया जाता है। कई शौचालयों को एक साथ एक सिस्टम से जोड़ने की वजह से यह मॉडल काफी सस्ता है। फाइबर शीट और एल्युमीनियम फेम को जोड़कर इसे एक दिन में खड़ा किया जा सकता है। इस कारण नदी किनारे के मेलों व अन्यत्र ऐसे अन्य आयोजनों के लिए काफी कारगर है। गंगा सेवा अभियानम् ने इसे अपनाया है।

नसीहत :


अलग-अलग जरूरत के हिसाब से अलग-अलग स्तर पर अलग- अलग तकनीक और प्रयासों की अंजाम देने की जरूरत है।

मूर्ति विसर्जन का विकल्प


कन्नौज से कानपुर भले ही गंगा पर काला धब्बा माने जाते हों; कानपुर ने ‘देव दीपावली उत्सव’ को एक नियमित आयोजन का रूप देकर शहर को नदी से जोड़ने का एक प्रयोग शुरू किया है। इसका नतीजा यह है कि कानपुर के पंडा-पुजारी ही गंगा में मूर्ति विसर्जन न किए जाने की मांग उठाने लगे हैं। पांडु नदी की प्रदूषण मुक्ति की कवायद तेज हो गई है। कानपुर के प्रदूषण के खिलाफ सबसे ज्यादा कानपुर का ही मीडिया लिख-पढ़ रहा है। प्रशासनिक नाइत्तफाकी और स्थानीय विरोध के बावजूद फतेहपुर के स्वामी विज्ञानानंद ने गंगा में मूर्ति विसर्जन रोकने में पूरी शक्ति से जुटे हुए हैं। कोलकाता की दुर्गा पूजा और प्रति आस्था का कोई सानी नहीं; बावजूद इसके कोलकाता के संगठन विसर्जन के तुरंत बाद मूर्तियों को वापस निकल लेने के काम को बेरोकटोक करने में सफल रहे हैं।

नसीहत :


आस्था की जड़ें बहुत गहरी होती हैं। विकल्प दो हैं : जहां से नदी दिखती हो, इतनी दूरी पर मूर्ति विसर्जन हेतु एक अलग पवित्र कुंड बनाया जाए। त्योहार विशेष के मौके पर उसे नदी जल से भर दिया जाए। जब तक समाज इसे स्वीकार न करे; मूर्ति विसर्जित होने के तुरंत बाद उसे बाहर निकाल लिया जाए।

फ़ैक्टरी प्रदूषण


भनेड़ा खेमचंद-जिला सहारनपुर के ननौता तहसील का एक गांव है। निकट तीन फ़ैक्टरियों के जहरीले रसायन और कृष्णी नदी की कालिमा ने गांव का जीवन दूभर कर दिया था। इंडिया मार्का से बाहर आते पानी का रंग भी काला-संतरी हो गया था। वक्त लगा। बाहर से आकर प्रो एस. प्रकाश ने इस गांव में डेरा डाला। जलबिरादरी नामक संगठन साथ लगा। गांव ने मुट्ठी बांधी। वोट से लेकर पल्स पोलियों के बहिष्कार तक सारे टोटके आजमाए। कोर्ट गए। प्रशासन को बांधा। अंतत: विजय हुई। फैक्टरियों को अपना कचरा समेटना पड़ा। प्रशासन भी कृष्णी में पानी छोड़ने पर विवश हुआ। अमेठी की उज्जयिनी और मालती दिसम्बर आते-आते खाली हो जाया करती हैं। इन्हें जेसीबी लगाकर छील देने का उलट काम किया गया था। अमेठी के कुछ मानिंदों ने कमर कसी। कुण्ड से नदी को पानीदार बनाने की शुरुआत की। दोनों नदियों में 2-2 मीटर ऊंचे चेकडैम बनाकर जलस्तर बनाये रखने का काम शुरू हो गया है। एक सरकारी कंपनी के जहरीले रसायन ने उज्जयिनी निकट के बाशिंदों को साफ पानी से महरूम कर दिया है। कुछ लोग इसके खिलाफ भी लामबंद हो रहे हैं। कुछ होगा।

नसीहत :


बिना मरे स्वर्ग नहीं मिलता। स्वर्ग चाहिए, तो मरने की तैयारी रखिए। मिलेगा ही।

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