निशीथ नदी

विमल व्योम में तारा-पुंज प्रकट हो करके
नीरव अभिनय कहो कर रहे हैं ये कैसा
प्रेमी के दृगतारा से ये निर्निमेष हैं
देख रहे से रूप अलौकिक सुंदर किसका
दिशा, धरा, तरु-राजि सभी ये चिंतित से हैं।
शांत पवन स्वर्गीय स्पर्श से सुख देता है
दुखी हृदय में प्रिय-प्रतीति की विमल विभा सी
तारा-ज्योति मिली है तम में, कुछ प्रकाश है
कूल युगल में देखो कैसी यह सरिता है
चारों ओर दृश्य सब कैसे हरे – भरे हैं
बालू भी इस स्नेहपूर्ण जल के प्रभाव से
उर्वर हैं हो रहे, करारे नहीं काटते
पंकिल करते नहीं स्वच्छशीला सरिता को
तरुगण अपनी शाखाओं से इंगित करके
उसे दिखाते और मार्ग, वह ध्यान न देकर
चली जा रही है अपनी ही सीधी धुन में
उसे किसी से कुछ न द्वेष है, मोह भी नहीं
उपल-खंड से टकराने का भाव नहीं है
पंकिल या फेनिल होना भी नहीं जानती
पर्ण – कुटीरों को न बहाती भरी वेग से
क्षीणस्रोत भी नहीं हुई खर ग्रीष्म ताप से
गर्जन भी है नहीं, कहीं उत्पात नहीं है
कोमल कल-कल नाद हो रहा शांति-गीत-सा
कब यह जीवन-स्रोत मधुर ऐसा ही होगा
हृदय-कुमुद कब सौरभ से यों विकसित होकर
पूर्ण करेगा अपने परिमल से दिगंत को
शांति, चित्त को अपने शीतल लहरों से कब
शांत करेगी हर लेगी कब दु:ख-पिपासा।

‘कानन-कुसुम’ (1912-13) में संकलित

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