निशाने पर जनजातियाँ


उद्योगीकरण की आँधी में अब तक लगभग एक करोड़ आदिवासी अपनी जड़ों से कट चुके हैं। सलवा जुडूम के नाम पर यातनाओं का दौर खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। अतिक्रमण, हत्याएँ, बलात्कार और लूट, सब कुछ धड़ल्ले से चल रहा है। शान्ति के नाम पर सेना और पुलिस ने स्थानीय लोगों में कहर का ऐसा ज्वार खड़ा कर दिया है, जिसकी टीस युगों-युगों तक महसूस की जा सकेगी। शान्ति स्थापना का नारा देकर क्या यही सब कुछ अमेरिकी सेना अफगानिस्तान और इराक में नहीं कर रही है? यह तो साफ लग रहा है कि लोकतंत्र के नाम पर यह खिलवाड़ इस नवउदारवादी दौर में और तेज होगा।।

एक ओर जल, जंगल और जमीन की लड़ाई की धार तेज होती जा रही है, वहीं देश के तमाम हिस्सों में आदिवासी समाज की दिक्कतें आजादी के लगभग साठ साल बाद भी कम होने के बजाय और बढ़ती चली जा रही हैं। हाल ही में झारखण्ड की राजधानी राँची में ‘क्रान्तिकारी आदिवासी महिला मुक्ति मंच’ के एक सेमिनार में जो बात प्रमुख रूप से उभर कर सामने आई, उसमें आदिवासी समाज, विशेषकर इसकी महिला आबादी के भीतर उत्पीड़न से मुक्ति की छटपटाहट साफ देखी जा सकती थी। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि आदिवासी महिलाओं का जीवन समाज की आम महिलाओं की तरह नहीं बीतता है। इन महिलाओं को अपने परिवार की गाड़ी खींचने के लिये हाड़तोड़ मेहनत करनी होती है।

दंडकारण्य सहित तमाम जंगलों और जनजातीय इलाकों में सामूहिक जीवन बिताने वाले आदिवासियों को आज भी बड़े पैमाने पर शारीरिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। लगभग सभी सरकारों ने देश की कुल आबादी की लगभग आठ फीसद आदिवासी जनता की न सिर्फ उपेक्षा की है, बल्कि उसका अपमान भी किया है। उनके लिये मूलभूत स्वास्थ्य की जरूरतें आज तक मुहैया नहीं कराई जा सकी हैं। विकास के तमाम दावों के बावजूद ‘सिकल सेल’ जैसी मामूली बीमारी इस आबादी के लिये अब भी असाध्य बनी हुई है। भोजन की कमी और दूषित वातावरण के कारण उत्पन्न होने वाली बीमारियों के कहर का कोई जवाब दंडकारण्य इलाके में नहीं ढूँढा जा सका है।

यह इलाका पूर्व और दक्षिण में सिलेरू, गोदावरी और प्राणहिता नदी, उत्तर में रायपुर और पश्चिम में चंद्रपुर की सीमा से लगा हुआ है। महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के कुछ भागों में फैला जंगल इस क्षेत्रा की व्यापकता को दर्शाता है। इन इलाकों में तपेदिक और कोढ़ जैसी बीमारी के कारण बैगा और अबूझमाड़ जैसे कई आदिवासी समुदाय तेजी से लुप्त होते जा रहे हैं। झारखण्ड की पहाड़िया जनजाति का आस्तित्व भी खतरे में है।

वन्य-जीवन जीने वाले ये आदिवासी अपने क्षेत्रों में तेजी से औद्योगिक प्रसार के परिणामस्वरूप कई संकटों से जूझ रहे हैं। इससे विस्थापन की दर में इजाफा हो रहा है। इनके जल, जंगल और जमीन पर बाहरी लोग जबरदस्ती अधिकार जमा रहे हैं। पल्लेमाडीऔर कुव्वेमारा की खदानों से कच्चा माल हासिल करने के लिये किये जा रहे विस्फोटों ने उनके आधार को हिला कर रख दिया है। खदानों या उद्योगों से इस उत्सर्जित जहरीली गैस और अन्य पदार्थों से इस इलाके में रहने वाले आदिवासी साँस की बीमारियों से जूझरहे हैं।

दूसरी ओर, अकेले बस्तर से प्रतिवर्ष 1,100 करोड़ रुपए से ज्यादा कमाने के लिये बड़ी-बड़ी देशी और विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ प्रतिस्पर्धारत हैं। इनमें टाटा, एस्सार, जिंदल, निको, रिलायंस, गोदावरी इस्पात और रायपुर लीड्स कम्पनियाँ प्रमुख हैं। उड़ीसा सरकार ने स्थानीय विरोध की अनसुनी करके कलिंगनगर में कोरियाई कम्पनी पॉस्को को खनन और उत्पादन की इजाजत दे दी है। वहाँ इस विरोध को कुचलने के लिये की गई सरकारी हिंसा में 13 लोगों की जान गई, लेकिन कुव्वेमारा, चारागाँव और रावघाट की जनता के जबर्दस्त प्रतिरोध के कारण फिलहाल वहाँ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को शोषण करने का सिलसिला रोकना पड़ा है।

झारखण्ड में भी इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को मुँह की खानी पड़ी है। आदिवासी-बहुल इलाकों में प्रचुर मात्रा में पाये जाने वाले कच्चे माल पर इन कम्पनियों की निगाह है और सरकार की इजाजत से फल-फूल रही ये कम्पनियाँ अपने अकूत मुनाफे का कोई भी अंश आदिवासियों के बीच नहीं बाँटना चाहती हैं। मुनाफा कमाने की अन्धी होड़ में ये कम्पनियाँ आदिवासी समाज की भाषा-बोली, संस्कृति और जीने के सारे साधनों को तबाह कर देना चाहती हैं।

उद्योगीकरण की आँधी में अब तक लगभग एक करोड़ आदिवासी अपनी जड़ों से कट चुके हैं। सलवा जुडूम के नाम पर यातनाओं का दौर खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। अतिक्रमण, हत्याएँ, बलात्कार और लूट, सब कुछ धड़ल्ले से चल रहा है। शान्ति के नाम पर सेना और पुलिस ने स्थानीय लोगों में कहर का ऐसा ज्वार खड़ा कर दिया है, जिसकी टीस युगों-युगों तक महसूस की जा सकेगी। शान्ति स्थापना का नारा देकर क्या यही सब कुछ अमेरिकी सेना अफगानिस्तान और इराक में नहीं कर रही है? यह तो साफ लग रहा है कि लोकतंत्र के नाम पर यह खिलवाड़ इस नवउदारवादी दौर में और तेज होगा। इससे मोर्चा लेने के लिये आदिवासी समुदाय की लड़ाई को मुख्य धारा की लड़ाई से जोड़ने की जरूरत है। यह चुनौती आज देश और समाज के सामने मुँह बाए खड़ी है कि समूची जनजातीय अस्मिता को बचाने के लिये एकजुट होकर संघर्ष किया जाये।

 

जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

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क्रम

अध्याय

 

पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

1

चाहत मुनाफा उगाने की

2

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे झुकती सरकार

3

खेती को उद्योग बनने से बचाएँ

4

लबालब पानी वाले देश में विचार का सूखा

5

उदारीकरण में उदारता किसके लिये

6

डूबता टिहरी, तैरते सवाल

7

मीठी नदी का कोप

8

कहाँ जाएँ किसान

9

पुनर्वास की हो राष्ट्रीय नीति

10

उड़ीसा में अधिकार माँगते आदिवासी

11

बाढ़ की उल्टी गंगा

12

पुनर्वास के नाम पर एक नई आस

13

पर्यावरण आंदोलन की हकीकत

14

वनवासियों की व्यथा

15

बाढ़ का शहरीकरण

16

बोतलबन्द पानी और निजीकरण

17

तभी मिलेगा नदियों में साफ पानी

18

बड़े शहरों में घेंघा के बढ़ते खतरे

19

केन-बेतवा से जुड़े प्रश्न

20

बार-बार छले जाते हैं आदिवासी

21

हजारों करोड़ बहा दिये, गंगा फिर भी मैली

22

उजड़ने की कीमत पर विकास

23

वन अधिनियम के उड़ते परखचे

24

अस्तित्व के लिये लड़ रहे हैं आदिवासी

25

निशाने पर जनजातियाँ

26

किसान अब क्या करें

27

संकट के बाँध

28

लूटने के नए बहाने

29

बाढ़, सुखाड़ और आबादी

30

पानी सहेजने की कहानी

31

यज्ञ नहीं, यत्न से मिलेगा पानी

32

संसाधनों का असंतुलित दोहन: सोच का अकाल

33

पानी की पुरानी परंपरा ही दिलाएगी राहत

34

स्थानीय विरोध झेलते विशेष आर्थिक क्षेत्र

35

बड़े बाँध निर्माताओं से कुछ सवाल

36

बाढ़ को विकराल हमने बनाया

 


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