‘स्वच्छ भारत अभियान’ भारत में खुले में शौच समस्या के समाधान की दिशा में काम कर रहा है, पर अगली चुनौती लोगों के व्यवहार में बदलाव लाना है। खुले में शौच जहाँ महिलाओं के लिये निजता का सवाल होता है वहीं यह पर्यावरण के नजरिए से भी बेहतर नहीं है। खुले में मल त्याग से भू और जल दोनों प्रदूषित होता है। इतना ही नहीं। भारत में हर साली पाँच वर्ष से कम आयु के एक लाख 40 हजार बच्चे दस्त से मर जाते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर केन्द्र सरकार द्वारा देश में जोर-शोर से चलाए जा रहे स्वच्छता अभियान के बावजूद खुले में शौच करने के मामले में भारत के लोग दुनिया में नम्बर वन हैं। बीते महीने संसद में पेश आर्थिक समीक्षा में खुले में शौच को पूरी तरह खत्म करने को एक बड़ी चुनौती बताते हुए कहा गया है कि ग्रामीण भारत में 61 प्रतिशत से अधिक लोग खुले में मलत्याग करते हैं जो विश्व में सर्वाधिक है।
वाटर एड की ‘इट्स नो जोक स्टेट ऑफ द वर्ल्डस टॉयलेट’ शीर्षक वाली रिपोर्ट में कहा गया है, अगर भारत में घरेलू शौचालय के लिये इन्तजार कर रहे सभी 77.4 करोड़ लोगों को एक कतार में खड़ा कर दिया गया तो यह कतार धरती से लेकर चन्द्रमा तक और उससे भी आगे चली जाएगी। यह स्थिति तब है, जब सरकार ने पिछले एक साल में 80 लाख शौचालयों का निर्माण कराया।
सर्वेक्षण में इसका भी जिक्र है कि खुले में शौच के कारण कई तरह की बीमारियाँ होती हैं। आय की कमी को खुले में शौच का मुख्य कारण नहीं माना गया। खैर, विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ के संयुक्त मॉनीटरिंग के 2015 के आँकड़ों के मुताबिक भारत की स्थिति दुनिया में सबसे गरीब माने जाने वाले सब सहारा देशों से भी बदतर है।
इन देशों के ग्रामीण इलाकों में केवल 32 प्रतिशत लोग ही खुले में शौच जाते हैं। खुले में शौच के मामले में पड़ोसी देशों की स्थिति भारत से कहीं अधिक बेहतर है। श्रीलंका में यह समस्या पूरी तरह खत्म हो गई है जबकि अत्यधिक जनसंख्या घनत्व वाले बांग्लादेश भी इससे लगभग निजात पा चुका है। पाकिस्तान के ग्रामीण इलाकों में 21.4 प्रतिशत, नेपाल में 37.5 प्रतिशत और भूटान में 3.8 प्रतिशत लोग ही खुले में मल त्याग करते हैं।
सफाई के मामले में बहुत पिछड़े अफगानिस्तान में भी 17 प्रतिशत और अफ्रीकी देश केन्या में 15 प्रतिशत लोग ही ग्रामीण इलाकों में खुले में शौच करते हैं। देश के ग्रामीण इलाकों में कई परिवारों में शौचालय होने के बावजूद लोग खुले में शौच करते हैं। इससे साफ है कि खुले में शौच का आर्थिक सम्पन्नता से लेना-देना नहीं है।
आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि देश में खुले में शौच करने की प्रवृत्ति में एक प्रतिशत सालाना की दर से कमी हो रही है और अगर यही हाल रहा तो 2030 तक इस समस्या को पूरी तरह समाप्त करने का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकेगा। अगर इस लक्ष्य को हासिल करना है तो मौजूदा दर तो तीन गुना करना होगा और इसे 15 साल तक लगातार बरकरार रखना होगा।
शोध से पता चलता है कि ग्रामीण भारत में लोगों ने विश्व स्वास्थ्य संगठन और भारत सरकार द्वारा प्रोत्साहित किये जा रहे शौचालयों को आंशिक रूप से खारिज कर दिया है क्योंकि उनके गड्ढों को कुछ वर्षों बाद खाली करने की जरूरत पड़ती है। दूसरे देशों में ऐसे गड्ढों को खाली करना आम बात है लेकिन भारत में अस्पृश्यता के इतिहास के कारण मल का निपटान एक निकृष्ट काम माना जाता है।
यही वजह है कि लोगों ने इस तरह के शौचालय को खुले दिल से स्वीकार नहीं किया है। खुले में मल त्याग से वातावरण में कीटाणु फैलते हैं और बच्चों में डायरिया तथा इंटेरोपैथी जैसी बीमारियाँ पैदा करते हैं। इनके कारण बच्चों का विकास रुक जाता है। कई अध्ययनों से पता चला है कि जिन गाँवों में खुले शौच की समस्या ज्यादा बड़ी होती है वहाँ बच्चों की लम्बाई उम्र के मुताबिक नहीं बढ़ पाती है। वहीं दूसरी तरफ गौर करने वाली बात यह है कि 2010 में आई यूनाइटेड नेशंस (यूएन) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लोग शौचालय से ज्यादा मोबाईल फोन का इस्तेमाल करते हैं।
36 करोड़ 60 लाख लोग (आबादी का 31 प्रतिशत) शौचालयों का उपयोग करते हैं, जबकि 54 करोड़ 50 लाख लोग मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं। ये एक विडम्बना ही है कि भारत में, जहाँ लोगों के पास इतना पैसा है कि आधी आबादी के पास मोबाइल फोन की सुविधा है, वहाँ आधे लोगों के पास शौचालयों की सुविधा मौजूद नहीं है।
यूएन की रिपोर्ट के प्रकाशित होने और 2011 की जनगणना के बाद लगभग वैसी ही स्थिति पाये जाने पर भारत सरकार और तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने स्लोगन दिया था- शौचालय नहीं तो वधू नहीं। उन्होंने माता-पिताओं से भी आग्रह किया कि वे ऐसे परिवार में बेटी न दें, जिस घर में शौचालय न हो।
हालांकि आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि पीएम मोदी द्वारा शुरू किया गया ‘स्वच्छ भारत अभियान’ भारत में खुले में शौच समस्या के समाधान की दिशा में काम कर रहा है, पर अगली चुनौती लोगों की व्यवहार में बदलाव लाना है। खुले में शौच जहाँ महिलाओं के लिये निजता का सवाल होता है वहीं यह पर्यावरण के नजरिए से भी बेहतर नहीं है। खुले में मल त्याग से भू और जल दोनों प्रदूषित होता है। इतना ही नहीं भारत में हर साल पाँच वर्ष से कम आयु के एक लाख 40 हजार बच्चे दस्त से मर जाते हैं।
इतना ही नहीं भारत में शौचालय रहित लोगों में राज्यवार अन्तर तो है ही, शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में भी बहुत अधिक अन्तर है। केरल की स्थिति सबसे अच्छी है तो झारखण्ड की सबसे बुरी। बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, उड़ीसा और राजस्थान ऐसे राज्य हैं, जहाँ ग्रामीण क्षेत्रों में 80 फीसद से अधिक लोग शौचालय सुविधा से वंचित हैं।
भारत की 2011 की जनगणना के आँकड़ों के अनुसार विगत दस वर्षों में हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा व गोआ में ग्रामीण क्षेत्रों में 20 फीसद से अधिक परिवारों को शौचालय सुविधा उपलब्ध कराई गई है और शहरी क्षेत्रों में गोआ, दमन और दीव व पुडुचेरी के शहरी क्षेत्रों में 15 फीसद से अधिक परिवारों को शौचालय सुविधा उपलब्ध कराई गई है। यानि कि इस दिशा में पिछड़े राज्यों ने अभी भी इस कार्य को वांछित प्राथमिकता नहीं दी है जो खेदप्रद है।
हालांकि भारत सरकार ने ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के अन्तर्गत सन 2019 तक सभी को शौचालय उपलब्ध कराने का लक्ष्य निर्धारित किया है लेकिन यह लक्ष्य हम हासिल कर पाते हैं या नहीं यह तो समय ही बताएगा। सब को शौचालय सुविधा उपलब्ध कराने में पर्याप्त पानी की व्यवस्था करना सबसे बड़ी चुनौती है। काम में लिये गये पानी को शुद्ध कर पुनर्चक्रित करना ही इसका एकमात्र उपाय नजर आता है।
गौरतलब है कि भारत सरकार द्वारा भी इस समस्या को दूर करने की दिशा में लगातार प्रयास किये जा रहे हैं, 1986 में केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम शुरू किया गया था। जिसका 1999 में नाम बदल कर सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान कर दिया गया, निर्मल भारत अभियान के अन्तर्गत घर में शौचालय बनाने के लिये राशि दी जाती है। शहरी क्षेत्रों के लिये 2008 में राष्ट्रीय शहरी स्वच्छता नीति लाई गई। वह 12वीं पंचवर्षीय योजना में 2017 तक खुले में शौच से मुक्त करने का संकल्प लिया है।
देश के प्रधानमंत्री का भी नारा है कि ‘देश में मन्दिर बाद में बनें, पहले शौचालय बनाया जाये। इसी कड़ी में 2014 से स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत हुई है और सरकार द्वारा स्वच्छता अभियान के लिये अलग-अलग मदों में 52 हजार करोड़ रुपए का बजट रखा गया है। इतना ही नहीं सरकार द्वारा विभिन्न माध्यमों का उपयोग करते हुए स्वच्छता को लेकर जागरुकता लाने, लोगों में शौचालय बनवाने और उसका उपयोग करने की लेकर व्यवहार परिवर्तन का प्रयास किया जा रहा है।
लेकिन ऐसा क्यों है कि इतने सब प्रयासों के बाद भी आज देश की आधी से ज्यादा आबादी खुले में शौच करने को मजबूर है, इसका कारण सरकार और समाज की दूरी। इसके लिये सरकार को समाज के साथ भी काम करना होगा, लोगों की मानसिकता को बदलना होगा, खासकर पुरुषों के, क्योंकि वे तो कभी भी शौच के लिये घर से बाहर जा सकते थे इस कारण वो महिलाओं की परेशानी को समझ नहीं सकते।
घर में शौचालय बनाने को लेकर जो मिथक हैं उसे दूर करना होगा। साथ ही उन शौचालय का उपयोग भी करने की समझ बनानी होगी। सरकार द्वारा शौचालय निर्माण के लिये दी जाने वाली राशि को भी बढ़ाना होगा और इन सेवाओं के कार्यान्वयन, निरीक्षण और मूल्यांकन में स्थानीय लोगों की भागीदारी होनी आवश्यक है।
(लेखक, सीइएफएस में रिसर्च एसोशिएट हैं)
Path Alias
/articles/nairamala-sankalapa-sae-banaegaa-ghara-ghara-saaucaalaya
Post By: RuralWater