नीम्बी—अकाल पर जीत की कहानी

अकाल और सूखे से जूझते नीम्बी गाँव का समय चक्र पलट गया है। अब इस गाँव में सिंचाई किए बिना साल में दो से तीन फसलें ली जा रही हैं। जो हाथ पहले काम माँगने के लिए उठते थे, अब काम देने के लिए उठने लगे हैं। हरे चारे की उपलब्धता के कारण अब इस गाँव में पशुओं की संख्या इतनी बढ़ गई है कि दो लाख रुपए का दूध हर महीने सरकारी डेयरियों को बेचा जा रहा है। राजस्थान के जयपुर शहर से मात्र तीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित 'नीम्बी' गाँव अरावली पहाड़ियों के मध्य बसा है। इस गाँव में आज से एक दशक पहले तक स्थिति बहुत भयानक थी। पानी की बहुत कमी थी जिससे यहाँ के लोगों का जीना दूभर हो गया था। लोग सेठ-साहूकारों के कर्ज से दबे थे। अशिक्षा, गरीबी जैसी महामारी से जूझ रहे थे और पूरे गाँव में जात-पात, छुआछूत का बोलबाला था। पूरे गाँव में शराब का प्रचलन था जिस कारण ग्रामीण बर्बादी की मार झेल रहे थे। यहाँ का युवा वर्ग पूर्णतः पलायन कर चुका था। साथ ही वन विभाग का आतंक, बाल विवाह एवं पर्दा प्रथा अनेक रूढि़यों से लोग ग्रस्त थे। किसानों का चारों ओर से शोषण हो रहा था। चारों तरफ नंगे पहाड़ थे। इस क्षेत्र में वार्षिक वर्षा 60 से.मी. है। यह वर्षा भी मध्य जून से मध्य सितम्बर तक होती है। यहाँ भूमिगत जलस्तर बहुत नीचे चला जाता था। छह महीनों में ही सभी कुओं का पानी सूख जाता था। यहाँ की खेती मुख्यतया वर्षा के पानी पर आश्रित थी। वर्षा के पानी पर निर्भरता की वजह से किसान साल में एक ही फसल जिसमें ज्वार, बाजरा, मक्का एवं तिल शामिल था, उगा लेते थे। वर्षा की कमी एवं अनिश्चितता अकाल का कारण बनती थी। भौगोलिक दृष्टि से यहाँ का पूरा क्षेत्र ऊबड़-खाबड़ है।

नीम्बी-अकाल पर जीत की कहानीअकाल और सूखे से जूझते इस गाँव का समय चक्र अब पलट गया है। अब इस गाँव में सिंचाई किए बिना साल में दो से तीन फसलें ली जा रही हैं। जो हाथ पहले काम माँगने के लिए उठते थे, अब काम देने के लिए उठने लगे हैं। हरे चारे की उपलब्धता के कारण अब इस गाँव में पशुओं की संख्या इतनी बढ़ गई है कि दो लाख रुपए का दूध हर महीने सरकारी डेयरियों को बेचा जा रहा है। जिस जमीन को कोई मुफ्त लेने को तैयार नहीं था आज उसकी कीमत छह महीने के लिए लीज पर तीन हजार से चार हजार रुपए प्रति बीघा है।

खेतों के मालिक होने के बावजूद गाँव के लोग जयपुर जाकर मजदूरी करने को विवश थे। इन्हीं दिनों इस गाँव का एक 71 वर्षीय राधू गुर्जर अलवर गया जहाँ उसे जल-संग्रहण प्रयासों में मदद देने वाली 'तरुण भारत संघ' नामक संस्था के बारे में जानकारी मिली। संस्था ने उन्हें बताया कि यदि गाँव के लोग उनकी बातों का पालन करें तो उनके गाँव में भी हरियाली आ सकती है।

नीम्बी गाँव वालों के आग्रह पर तरुण भारत संघ के कुछ प्रतिनिधि उनके गाँव गए एवं गाँव वालों से हरियाली के बदले शराब छोड़ने एवं पानी संचय करने की शर्त रखी। गाँव वालों ने इस शर्त को तुरन्त स्वीकार कर लिया और अब शुरू हुआ एक ऐसा अभियान जिसने गाँव की काया पलट दी। सबसे पहले संघ ने गाँव वालों के सहयोग से डेढ़ लाख रुपए की लागत से ‘घाटबारा' नामक बाँध बनाया। इसमें चालीस हजार रुपए गाँव वालों ने दिए जबकि बाकी धनराशि संघ ने उपलब्ध कराई। नाले के तीन तरफ छोटे-छोटे बाँध बनाए गए क्योंकि इस नाले से वर्षा के दिनों में गाद बहकर खेतों में एकत्रित हो जाती थी। गाँव के लोगों ने संघ के मार्ग निर्देशन में नंगे पहाड़ों पर वृक्षारोपण का काम भी शुरू किया। घाटबारा बाँध के सकारात्मक प्रभावों को देखते हुए गाँव वालों ने वर्ष 1994 में एक दूसरा बाँध लगभग तीन लाख रुपए की लागत से बनाया। ‘पानी जहाँ इकट्ठा हो उसे वहीं रोक दो' नामक तरुण भारत संघ के सिद्धान्त पर गाँव वालों ने काम करना शुरू किया एवं जल्दी ही इसके अच्छे परिणाम सामने आने लगे। गाँव के कुओं के जलस्तर में सुधार आने लगा। शुष्क हो गए खेतों में फसलें लहलहा उठीं। सूखे के मध्य हरियाली देखते ही पता लग जाता है कि नीम्बी गाँव आ गया।

पिछले चार साल से लगातार पड़ रहे सूखे का प्रभाव नीम्बी गाँव में नहीं के समान है। यहाँ के किसान अपने कुओं से खेतों को सींच रहे हैं एवं कुछ इलाकों में भू-जल स्तर 2 फुट की गहराई पर है जहाँ बिना किसी सिंचाई के सब्जी एवं फलों की खेती हो रही है। रोजाना 25-30 ट्रक सब्जी लेकर लोग मण्डी जा रहे हैं। मजदूरों की जरूरत इतनी बढ़ गई है कि नेपाल, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार एवं उत्तर प्रदेश सहित देश के दूर-दराज प्रदेशों से लोग मजदूरी के लिए इस गाँव में आ रहे हैं। यही नहीं, दिहाड़ी मजदूरी तीस-चालीस रुपए से बढ़कर 100-120 रुपए हो गई है। हरी घास, गोबर और चारे की कीमत पाँच गुना तक बढ़ गई है। जल संचय कार्य के अलावा ग्रामीण अब जंगल और वन्य जीवों का संरक्षण भी करने लगे हैं।

पिछले सैकड़ों सालों से अकाल एवं सूखे से ग्रस्त गाँव में जल संचय कार्य के साथ ही यहाँ सम्पन्नता आने लगी। जो लोग शराब बनाने में लगे थे वे खेती करने लगे। गाँव से रोजगार की तलाश में लोगों का पलायन रुका। दूध का उत्पादन बढ़ा, लोगों के स्वास्थ्य में सुधार हुआ। पशुओं की संख्या में इजाफा हुआ, लोग अपने बच्चों को स्कूलों में पढ़ाने के लिए भेजने लगे। गाँव में तीन किलोमीटर लम्बी गहन सब्जी की खेती की पट्टी जो बिना किसी सिंचाई के हो रही है अपने-आप में देखने व सुनने वालों के लिए एक हैरानी की बात है। जल संचय की तकनीक से भूमि संतृप्त हो गई एवं दो फुट की गहराई पर भूमिगत जल उपलब्ध हो गया। गाँव वालों ने ट्रैंच बनाए, उनमें फलों के पौधे लगाए एवं बिना सिंचाई के गाँव में प्रति वर्ष तीन करोड़ रुपए की सब्जी एवं फलों की पैदावार होती है। यह अपने-आप में अकाल पर जीत की कहानी है जो जल संचय के कार्य ने साकार की है।

ग्राम निम्बी में वर्ष 1985 में गाँव के कुल क्षेत्रफल का अस्सी प्रतिशत भाग अपरदन से प्रभावित था जबकि अब केवल पाँच प्रतिशत भाग ही अपरदन से प्रभावित है। अब वन क्षेत्रफल भी 12 प्रतिशत से बढ़कर 50 प्रतिशत हो गया है। पहले गाँव में फसली प्रारूप बाजरा एवं मोटे अनाज था जो अब बदलकर गेहूँ, जौ, गन्ना, दालें एवं सब्जियाँ हो गया है। पहले 17-40 साल के आयु वर्ग के 80 प्रतिशत लोग रोजगार की तलाश में गाँव से बाहर पलायन कर जाते थे जबकि अब सभी गाँव में ही रहते हैं तथा खेती करते हैं। गाँव की लड़कियाँ अब स्कूल जाती हैं। गाँव की महिलाएँ निर्माण के कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेती हैं। गाँव के लोग अब तरुण भारत संघ के कार्यकर्ताओं के साथ आसपास के दूसरे गाँवों में जाते हैं। वहाँ के लोगों को भी अपने गाँव की तरह जल संरक्षण से होने वाले फायदों की जानकारी देते हैं।

गाँवों को आत्मनिर्भर बनाने का गाँधीजी का सपना तरुण भारत संघ के सहयोग से निम्बी गाँव में साकार हो रहा है। गाँव में विकास समिति है जो गाँव के सभी विकास कार्यों को क्रियान्वित करती है। गाँव के लोग अपनी समस्याओं को खुद सुलझाते हैं। कोर्ट आदि नहीं जाते। आसपास एवं देश-विदेश के विभिन्न हिस्सों से लगभग तीस हजार लोग प्रतिवर्ष निम्बी गाँव जाते हैं और वहाँ के विकास कार्यों एवं जल संरक्षण कार्यों को देखकर प्रेरणा लेते हैं।

महिला सशक्तिकरण की दिशा में गाँव की महिलाओं ने स्वयंसहायता समूहों का गठन किया है। इससे महिलाओं में संगठन की भावना जागृत हुई है तथा महिलाएँ आपस में सुख-दुख की बातें करने लगी हैं जिससे उनकी जिन्दगी में परिवर्तन आया है। महिलाओं को प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन में प्रशिक्षित किया जा रहा है। पहले संसाधन संरक्षण के कार्यों में महिलाओं की भूमिका नगण्य थी जिसकी वजह से आशातीत सफलता नहीं मिल रही थी लेकिन जबसे संसाधन संरक्षण कार्यों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की गई है तब से जल, जंगल एंव जमीन संरक्षण के सभी कार्यों में आशानुरूप सफलता मिलने लगी है।

(लेखक जनता स्नातकोत्तर महाविद्यालय, चरखी दादरी, हरियाणा के भूगोल विभाग में वरिष्ठ प्रवक्ता हैं)

Path Alias

/articles/naimabai-akaala-para-jaita-kai-kahaanai

×