निकालनी पड़ेगी मृत संजीवनी

जल सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व संहार का मूल आधार है। जब भी धरती पर ‘आदिम मानव’ की सृष्टि हुई, उसके जन्म के साथ जल जुड़ा रहा। जब भी उसे भूख महसूस हुई तो इसी जल ने वनस्पतियों को उगाया, जिससे उसने पेट भरा और जमकर पानी पिया। जब भी प्रलय अथवा कयामत की कल्पना की गई तो उसका आधार बना भूकंप या जलजला। सारी धरती प्रलय काल में जलमग्न हो जाएगी।चारो तरफ पानी ही पानी।

यह दर्शन कितना वैज्ञानिक है और कितना यथार्थ है, इसका अंदाजा आज भी धरती पर मौजूद दो तिहाई जल से लगाया जा सकता है। पौराणिक गाथाओं के अनुसार ताल, तलैयों, पोखरों, तड़ागों, वापियों का कितना महत्व था, यह इस बात से ही स्पष्ट होता है कि सभी धर्मो के महापुरुषों ने अपने नामों से जल स्रोतों का नामकरण किया, जो जल संरक्षण का महत्वपूर्ण उदाहरण हो सकता है।

हिंदू माइथोलॉजी में तो सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के कमंडल का जल, जगतपालक विष्णु का महासागर में शयन करना और संहारक शिव के जटाजूट से गंगा का प्रवाहित होना स्वयं में जल-दर्शन का उत्कृष्ट उदाहरण है।

ऐसी परंपरा और मान्यता के बावजूद आज हमारा जल संकट में है। चूंकि जल संकट में है तो इसके कारण हमारा जीवन भी संकट में है। बढ़ती जनसंख्या, औद्योगीकरण और भारी मांग के चलते भू-जल दोहन भयावह हालत में पहुंचता जा रहा है।

जहां उत्तर प्रदेश में सन् 2000 में मात्र 22 विकास खंडों को अतिदोहित या क्रिटिकल घोषित किया गया था, वहीं 2009 आते-आते इनकी संख्या में पांच गुनी वृद्धि दर्ज की गई है। आज उत्तर प्रदेश में कुल 108 ब्लॉक अति दोहित या क्रिटिकल श्रेणी में आ चुके हैं। यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक और भयावह है। इसका प्रमुख कारण ग्राउंड वाटर रिचार्ज का न होना ही है।

ग्राउंड वाटर रिचार्ज वनस्पतियों और वृक्षों द्वारा होता रहा है। लेकिन अब इनकी संख्या में लगातार कमी आती जा रही है। इसके अलावा रिचार्ज के सबसे बड़े संसाधन थे हमारे तालाब, पोखर, ताल-तलैया, नद और नदियां।

तालाबों की दयनीय हालत के मद्देनजर ही सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार प्राकृतिक जल स्रोतों को उनके मूल स्वरूप में लाना राज्य सरकारों का दायित्व है। इन्हें मूल स्वरूप में लाकर पूर्ववत् वाटर रिचार्ज करना हमारा लक्ष्य था। लेकिन इस आदेश का परिपालन कहीं भी ठीक ढंग से नहीं हो रहा है।

उदाहरण के लिए प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले की स्थिति देखें तो यह अत्यंत दयनीय है। जनपद के 1200 तालाब आज भी अतिक्रमणकारियों के कब्जे में हैं, जिन्हें मुक्त कराने में जिला प्रशासन हीला-हवाली करता आ रहा है।

सैकड़ों ग्राम सभाओं ने 122वी के मुकदमे दर्ज कर इन तालाबों को मुक्त कराने की पहल तो की, परंतु आज भी वे सारे मुकदमे विभिन्न नायबों अथवा तहसीलदारों की आलमारियों की धूल चाट रहे हैं। ये वे तालाब हैं, जो अपने क्षेत्र के पूरे गांव के जलस्तर को बरकरार रखते थे।

जहां उत्तर प्रदेश में सन् 2000 में मात्र 22 विकास खंडों को अतिदोहित या क्रिटिकल घोषित किया गया था, वहीं 2009 आते-आते इनकी संख्या में पांच गुनी वृद्धि दर्ज की गई है। आज उत्तर प्रदेश में कुल 108 ब्लॉक अति दोहित या क्रिटिकल श्रेणी में आ चुके हैं। यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक और भयावह है। इसका प्रमुख कारण ग्राउंड वाटर रिचार्ज का न होना ही है। ग्राउंड वाटर रिचार्ज वनस्पतियों और वृक्षों द्वारा होता रहा है। लेकिन अब इनकी संख्या में लगातार कमी आती जा रही है।अब मनरेगा में ऐसे तालाब बन रहे हैं, जिनमें भारी वर्षा के बावजूद पानी नहीं रुक पा रहा है। दरअसल, जरूरत है एक सतत ईमानदार कोशिश की। एक भी लोक प्रशासक यदि चाह ले तो पूरे जिले के तालाबों को अतिक्रमणकारियों के हलक में हाथ डालकर प्राकृतिक जल स्रोत की मृत संजीवनी बाहर निकाल लेगा।

अपने-अपने गांव की जिम्मेदारी भी कुछ जागरूक लोग ले लें, तब भी यह काम आसानी से हो सकता है। प्रतापगढ़ स्थित गांव पूरे तोरई में वर्तमान राजस्व रिकार्ड में कुल नौ तालाब दर्ज हैं, लेकिन दो तालाबों को छोड़ दें तो बाकी पर कब्जा हो गया था।

यही नहीं, इन तालाबों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया था। इनमें से एक भयहरणनाथ नाथ धाम मंदिर के पीछे स्थित पौराणिक तालाब को 2010 में काफी जद्दोजहद के बाद खोदवाया गया। फिर 2012 में ग्राम पंचायत भवन के पास स्थित तालाब को खोदा गया।

अभी पिछले 29 दिसंबर से अमर जनता इंटर कॉलेज के पास स्थित तालाब को खोदा जा रहा है। इन तालाबों की खुदाई मनरेगा योजना से जिला प्रशासन के निर्देश पर विकास खंड मानधाता द्वारा ग्राम पंचायत की सहभागिता से की जा रही है।

बारी-बारी से बाकी बचे अन्य सभी तालाबों को खोदे जाने और उनके पुनरुद्धार की योजना है। सभी ग्रामवासी और जागरूक लोग भी संकल्पबद्ध हैं कि सबसे पहले अपने गांव के तालाबों को उनका खोया वजूद वापस लौटाएंगे।

खासकर अगर गांवों के सभी जागरूक नौजवान अपने इलाके के प्राकृतिक जल स्रोतों को बचाने के लिए संकल्पवान होकर पहल करें तो अपने आस-पास की प्रकृति और पर्यावरण को जीवन देने वाली मृत संजीवनी यानी ताल-तलैयों को फिर से उनका गौरव लौटाया जा सकता है। तब प्रशासन भी प्राकृतिक संपदा को बचाने में सहभागिता के लिए निश्चित ही बाध्य होगा।

ईमेल- samajshekhar1978@gmail.com

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