निजी कंपनी मुनाफ़े की ख़ातिर धंधे में आती है और उन लोगों के बारे में कोई मुरव्वत नहीं करती, जो ऊंची दरें नहीं चुका सकते। उनके तो बस कनेक्शन काट दिए जाएंगे। उदाहरण के लिए, पानी की कीमत न चुका पाने के कारण गिनती में कुल आबादी के एक तिहाई यानी करीब 10 हजार लोगों के कनेक्शन काट दिए गए थे। मुख्य बात यह है कि गरीब तबकों या झुग्गियों या दूर-दराज इलाकों में रहने वालों तक पानी पहुंचाने का निजी कंपनी का कोई सामाजिक दायित्व नहीं होता, क्योंकि यह मुनाफ़े का सौदा नहीं है। निजी कंपनी का बुनियादी मकसद मुनाफ़ा होता है। यह पहला और आम तौर पर एकमात्र मकसद होता है। इसलिए जब भी कोई कंपनी नया निवेश करती है तो और ज्यादा बटोरने की आशा में ही करती है। यह निजी क्षेत्र की दिलचस्पी का बुनियादी और अकाट्च तर्क है। इसे और इसके परिणामों को साफ-साफ समझना जरूरी है।
कोई भी निजी कंपनी अपने निवेश, कर्ज और उस पर लगने वाले ब्याज और ‘समुचित’ मुनाफ़े की वसूली के अलावा यह भी चाहेगी कि डॉलर विनिमय दर में उतार-चढ़ाव जैसी दूसरी चीजों से भी वह महफूज रहे। ग़ौरतलब है कि कंपनी के वरिष्ठ अफसरों की आलीशान जीवन शैली का भुगतान भी पानी दरों में से ही होगा, भले ही उनके द्वारा बेची जानी वाली बिजली या पानी गरीब लोगों के लिए महंगे हो जाएं। इस सबका यही अर्थ है कि बिजली और पानी के दाम बढ़ जाएंगे। याद करें कि ठीक यही हाल दाभोल बिजली परियोजना में हुआ था, जिसके चलते परियोजना ही बंद हो गई और यही कहानी कोचाबांबा की थी।
निजी कंपनी मुनाफ़े की ख़ातिर धंधे में आती है और उन लोगों के बारे में कोई मुरव्वत नहीं करती, जो ऊंची दरें नहीं चुका सकते। उनके तो बस कनेक्शन काट दिए जाएंगे। उदाहरण के लिए, पानी की कीमत न चुका पाने के कारण गिनती में कुल आबादी के एक तिहाई यानी करीब 10 हजार लोगों के कनेक्शन काट दिए गए थे। मुख्य बात यह है कि गरीब तबकों या झुग्गियों या दूर-दराज इलाकों में रहने वालों तक पानी पहुंचाने का निजी कंपनी का कोई सामाजिक दायित्व नहीं होता, क्योंकि यह मुनाफ़े का सौदा नहीं है। लागत कम करने के उपायों के चलते बड़े पैमाने पर कर्मचारियों की छंटनी होगी। दरअसल, निजी कंपनियों की कार्य कुशलता का एक पैमाना सप्लाई किए गए पानी की मात्रा और कर्मचारियों की संख्या का अनुपात है। यह जितना कम होगा, कंपनी उतनी ज्यादा कार्य-कुशल कहलाएगी। कंपनियां अक्सर इसके लिए ठेका मजदूर रखने, मशीनीकरण और ठेके पर काम करवाने (outsourcing) जैसे उपाय अपनाती हैं। शायद जरूरत से ज्यादा स्टाफ को एक निश्चित सीमा तक संतुलित करने की बात मानी जा सकती है मगर कंपनियां तो इतने पर नहीं रुकेंगी।
यह असंभव ही लगता है कि निजी क्षेत्र व्यावसायिक जोखिम उन गारंटियों के बगैर उठाएगा, जो अंततः जनता के पैसे के दम पर ही मुहैया कराई जाती हैं और न ही निजी क्षेत्र ‘बिजली लो या पैसा चुकाओ’, जैसे अनुच्छेद के बिना कोई बड़ा निवेश करेगा। बिजली क्षेत्र में शुरुआत में राज्य सरकारों ने गारंटियां दी थीं। लेकिन खुद राज्य सरकारों की माली हालत खस्ता थी, इसलिए कंपनियों ने मांग की थी कि केंद्र सरकार प्रति-गारंटी दे और यह उन्हें मिल भी गई। मगर जब यह नजर आया कि केंद्र सरकार के लिए भी एक हद से ज्यादा की गारंटियां निभाना मुमकिन नहीं होगा तब एस्क्रो खाते जैसे उपाय पेश किए गए। एस्क्रो प्रक्रिया के तहत किसी सुविधा से प्राप्त आमदनी (जैसे बिजली बिलों की वसूली से प्राप्त पैसा) एक अलग खाते में रखी जाती है। इस खाते से पैसा निकालने का पहला अधिकार कंपनी का होता है, जब तक कि उसे उसका पूरा मुनाफ़ा न मिल जाए। इसका मतलब यह है कि कर्मचारियों के वेतन भुगतान से भी पहले इस खाते से कंपनी का मुनाफ़ा निकाल लिया जाएगा। लेकिन एस्क्रो खाते की सामर्थ्य (कुल आमदनी) भी सीमित है, इसलिए कंपनियां विश्व बैंक या विदेशी द्विपक्षीय फंडिंग एजेंसियों से गारंटी देने को कह रही है। ऐसी ही व्यवस्थाओं की मांग जल क्षेत्र में भी की जा रही है। उदाहरण के लिए अहमदाबाद में यह प्रस्ताव है कि निजी कंपनी को भुगतान की गारंटी ऑक्ट्राय वसूली से बने एस्क्रो खाते के जरिए दी जाए।
जल क्षेत्र के निजीकरण से जुड़ा एक अहम पहलू समझना जरूरी है। जो लोग पानी के पूरे (बढ़े हुए) दाम नहीं चुका सकते, उन्हें जल प्रदाय करने के दो प्रमुख तरीके हैं। पहला तरीका है क्रॉस सब्सिडी। इस तरीके में, जिन उपभोक्ताओं में ज्यादा चुकाने की सामर्थ्य है (मसलन उद्योग) उनसे ज्यादा पैसा वसूला जाता है और इसमें से उन लोगों को सब्सिडी दी जाती है जो पूरा दाम नहीं चुका सकते। दूसरा तरीका सीधी सब्सिडी का है। इसमें लागत मूल्य व कमजोर तबकों के लिए तय की गई कम दर के बीच के अंतर को पाटने के लिए सरकार सब्सिडी देती है। निजी कंपनियां पहले तरीके को पसंद नहीं करती, क्योंकि वे अपने सबसे अच्छे ग्राहकों से ज्यादा वसूली नहीं करना चाहतीं। निजी प्रदायकों का तर्क रहता है कि बड़े उपभोक्ताओं से कम वसूला जाना चाहिए न कि अधिक। जहां तक दूसरे तरीके का संबंध है, सरकार सब्सिडियों से पल्ला झाड़ने में लगी है और कह रही है कि उसके पास संसाधन नहीं हैं, जो अक्सर कहा नहीं जाता, वह यह है कि विश्व बैंक जैसी एजेंसियाँ सरकार पर दोनों तरह की (सीधी व क्रॉस) सब्सिडियों में कटौती करने का दबाव डाल रही हैं। अपनी बात मनवाने के लिए वे बहुधा कर्ज की शर्तों का भी इस्तेमाल करती हैं।
इसकी तार्किक परिणति यह है कि चूंकि न तो आर्थिक रूप से सक्षम उपभोक्ता और न सरकार कम आय वाले उपभोक्ताओं को रियायत देने को तैयार है, इसलिए कीमतें तो बढ़नी ही हैं और अगर कोई ऊंची कीमत अदा न कर पाए तो उसे पानी मिलना बंद हो जाएगा। संक्षेप में, क्रॉस सब्सिडी की समाप्ति, कीमतों में वृद्धि और ‘पैसा नहीं तो पानी नहीं’ का सिद्धांत निजीकरण की प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं।
इस तरह पानी क्षेत्र सामाजिक दायित्व नहीं रह जाता और पानी एक ‘सामाजिक वस्तु’ की बजाय महज एक व्यापार की वस्तु बनकर रह जाता है। यही प्रक्रिया पिछले 12 सालों से बिजली क्षेत्र में और दुनिया के कई हिस्सों में पानी के क्षेत्र में भी साफ नजर आ रही है और इसी नज़रिए की वकालत विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक विश्व व्यापार संगठन कर रहे हैं। सचमुच, दुनिया भर में निजीकरण के दबाव के चलते ‘पूरी लागत वसूली’ का यह विचार एक विचारधारा बनकर उभर रहा है।
इस तरह पानी के कंपनीकरण की प्रक्रिया में निहित है कि पानी का व्यापारीकरण होगा यानी उसे व्यापारिक माल में बदल दिया जाएगा।
जब इतना महत्वपूर्ण संसाधन निजी हाथों, वह भी विदेशी कंपनियों के हाथों में जा रहा हो, तो इसका सबसे गहरा असर नागरिकों, समुदायों और देश की संप्रभुता पर पड़ता है। आपको शायद याद होगा कि जब उड़ीसा में बिजली बनाने व बांटने का काम निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया था तो अमेरिका की एईएस कंपनी द्वारा नियंत्रित उत्पादन कंपनी ने बिल न चुकाने पर पूरे ग्रिड की बिजली काटने में कोई संकोच नहीं दिखाया था। अनिवार्य सेवा कानून (एस्मा) लगाने और कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी को गिरफ्तार करने की धमकी के बाद ही आपूर्ति बहाल हुई थी।
व्यापारीकरण और वस्तुकरण का मतलब है कि जो लोग दाम नहीं चुका सकते वे उसका उपयोग भी नहीं कर सकेंगे। पहले से हाशिए पर बसर कर रहे गरीबों को और अभावों की तरफ धकेला जाएगा। जब लोग पानी जैसे जीवनदायी संसाधन से वंचित होंगे तो सामाजिक अशांति के लिए उपजाऊ ज़मीन तैयार होगी। लेकिन बात इतनी सी नहीं है। जब पानी, बिजली, कृषि आदि हर क्षेत्र पर कॉरपोरेट भूमंडलीकरण का हमला होगा, तब क्या कुछ हो सकता है, इसका जोरदार वर्णन लेखक अरूंधती राय ने किया है:
“अर्जेन्टाइना, ब्राजील, मेक्सिको, बोलिविया, भारत जैसे देशों में कार्पोरेट भूमंडलीकरण के खिलाफ आंदोलन फैल रहा है। उसे काबू में रखने के लिए सरकारें लगाम कस रही हैं। ...लेकिन सामाजिक असंतोष की अभिव्यक्ति सिर्फ रैलियां, धरने आदि ही नहीं है। बदकिस्मती से, बढ़ते अपराध व अफरातफरी और हर तरह की नाउम्मीदी व मोहभंग भी इसी सामाजिक असंतोष की झलक है और हम इतिहास के हवाले से जानते हैं कि ये सब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, धार्मिक कट्टरता, फारसीवाद और आतंकवाद जैसी भयानक चीजों के लिए एक उपजाऊ मैदान बनाते हैं। ”
विडंबना यह है कि इसके बावजूद यह जरूरी नहीं है कि संबंधित क्षेत्र की बुनियादी समस्याएं हल हो जाएंगी। यह बात बिजली क्षेत्र के अनुभव से साफ जाहिर है क्योंकि इस बात का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि निजीकरण से इस क्षेत्र के बुनियादी मसलों का जवाब मिल सकता है।
ये आशंकाएं मनगढ़ंत नहीं हैं, बल्कि भारत में बिजली क्षेत्र व दुनिया में जल प्रदाय के निजीकरण के अनुभवों पर आधारित सचमुच के भय हैं।
कोई भी निजी कंपनी अपने निवेश, कर्ज और उस पर लगने वाले ब्याज और ‘समुचित’ मुनाफ़े की वसूली के अलावा यह भी चाहेगी कि डॉलर विनिमय दर में उतार-चढ़ाव जैसी दूसरी चीजों से भी वह महफूज रहे। ग़ौरतलब है कि कंपनी के वरिष्ठ अफसरों की आलीशान जीवन शैली का भुगतान भी पानी दरों में से ही होगा, भले ही उनके द्वारा बेची जानी वाली बिजली या पानी गरीब लोगों के लिए महंगे हो जाएं। इस सबका यही अर्थ है कि बिजली और पानी के दाम बढ़ जाएंगे। याद करें कि ठीक यही हाल दाभोल बिजली परियोजना में हुआ था, जिसके चलते परियोजना ही बंद हो गई और यही कहानी कोचाबांबा की थी।
निजी कंपनी मुनाफ़े की ख़ातिर धंधे में आती है और उन लोगों के बारे में कोई मुरव्वत नहीं करती, जो ऊंची दरें नहीं चुका सकते। उनके तो बस कनेक्शन काट दिए जाएंगे। उदाहरण के लिए, पानी की कीमत न चुका पाने के कारण गिनती में कुल आबादी के एक तिहाई यानी करीब 10 हजार लोगों के कनेक्शन काट दिए गए थे। मुख्य बात यह है कि गरीब तबकों या झुग्गियों या दूर-दराज इलाकों में रहने वालों तक पानी पहुंचाने का निजी कंपनी का कोई सामाजिक दायित्व नहीं होता, क्योंकि यह मुनाफ़े का सौदा नहीं है। लागत कम करने के उपायों के चलते बड़े पैमाने पर कर्मचारियों की छंटनी होगी। दरअसल, निजी कंपनियों की कार्य कुशलता का एक पैमाना सप्लाई किए गए पानी की मात्रा और कर्मचारियों की संख्या का अनुपात है। यह जितना कम होगा, कंपनी उतनी ज्यादा कार्य-कुशल कहलाएगी। कंपनियां अक्सर इसके लिए ठेका मजदूर रखने, मशीनीकरण और ठेके पर काम करवाने (outsourcing) जैसे उपाय अपनाती हैं। शायद जरूरत से ज्यादा स्टाफ को एक निश्चित सीमा तक संतुलित करने की बात मानी जा सकती है मगर कंपनियां तो इतने पर नहीं रुकेंगी।
यह असंभव ही लगता है कि निजी क्षेत्र व्यावसायिक जोखिम उन गारंटियों के बगैर उठाएगा, जो अंततः जनता के पैसे के दम पर ही मुहैया कराई जाती हैं और न ही निजी क्षेत्र ‘बिजली लो या पैसा चुकाओ’, जैसे अनुच्छेद के बिना कोई बड़ा निवेश करेगा। बिजली क्षेत्र में शुरुआत में राज्य सरकारों ने गारंटियां दी थीं। लेकिन खुद राज्य सरकारों की माली हालत खस्ता थी, इसलिए कंपनियों ने मांग की थी कि केंद्र सरकार प्रति-गारंटी दे और यह उन्हें मिल भी गई। मगर जब यह नजर आया कि केंद्र सरकार के लिए भी एक हद से ज्यादा की गारंटियां निभाना मुमकिन नहीं होगा तब एस्क्रो खाते जैसे उपाय पेश किए गए। एस्क्रो प्रक्रिया के तहत किसी सुविधा से प्राप्त आमदनी (जैसे बिजली बिलों की वसूली से प्राप्त पैसा) एक अलग खाते में रखी जाती है। इस खाते से पैसा निकालने का पहला अधिकार कंपनी का होता है, जब तक कि उसे उसका पूरा मुनाफ़ा न मिल जाए। इसका मतलब यह है कि कर्मचारियों के वेतन भुगतान से भी पहले इस खाते से कंपनी का मुनाफ़ा निकाल लिया जाएगा। लेकिन एस्क्रो खाते की सामर्थ्य (कुल आमदनी) भी सीमित है, इसलिए कंपनियां विश्व बैंक या विदेशी द्विपक्षीय फंडिंग एजेंसियों से गारंटी देने को कह रही है। ऐसी ही व्यवस्थाओं की मांग जल क्षेत्र में भी की जा रही है। उदाहरण के लिए अहमदाबाद में यह प्रस्ताव है कि निजी कंपनी को भुगतान की गारंटी ऑक्ट्राय वसूली से बने एस्क्रो खाते के जरिए दी जाए।
जल क्षेत्र के निजीकरण से जुड़ा एक अहम पहलू समझना जरूरी है। जो लोग पानी के पूरे (बढ़े हुए) दाम नहीं चुका सकते, उन्हें जल प्रदाय करने के दो प्रमुख तरीके हैं। पहला तरीका है क्रॉस सब्सिडी। इस तरीके में, जिन उपभोक्ताओं में ज्यादा चुकाने की सामर्थ्य है (मसलन उद्योग) उनसे ज्यादा पैसा वसूला जाता है और इसमें से उन लोगों को सब्सिडी दी जाती है जो पूरा दाम नहीं चुका सकते। दूसरा तरीका सीधी सब्सिडी का है। इसमें लागत मूल्य व कमजोर तबकों के लिए तय की गई कम दर के बीच के अंतर को पाटने के लिए सरकार सब्सिडी देती है। निजी कंपनियां पहले तरीके को पसंद नहीं करती, क्योंकि वे अपने सबसे अच्छे ग्राहकों से ज्यादा वसूली नहीं करना चाहतीं। निजी प्रदायकों का तर्क रहता है कि बड़े उपभोक्ताओं से कम वसूला जाना चाहिए न कि अधिक। जहां तक दूसरे तरीके का संबंध है, सरकार सब्सिडियों से पल्ला झाड़ने में लगी है और कह रही है कि उसके पास संसाधन नहीं हैं, जो अक्सर कहा नहीं जाता, वह यह है कि विश्व बैंक जैसी एजेंसियाँ सरकार पर दोनों तरह की (सीधी व क्रॉस) सब्सिडियों में कटौती करने का दबाव डाल रही हैं। अपनी बात मनवाने के लिए वे बहुधा कर्ज की शर्तों का भी इस्तेमाल करती हैं।
इसकी तार्किक परिणति यह है कि चूंकि न तो आर्थिक रूप से सक्षम उपभोक्ता और न सरकार कम आय वाले उपभोक्ताओं को रियायत देने को तैयार है, इसलिए कीमतें तो बढ़नी ही हैं और अगर कोई ऊंची कीमत अदा न कर पाए तो उसे पानी मिलना बंद हो जाएगा। संक्षेप में, क्रॉस सब्सिडी की समाप्ति, कीमतों में वृद्धि और ‘पैसा नहीं तो पानी नहीं’ का सिद्धांत निजीकरण की प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं।
इस तरह पानी क्षेत्र सामाजिक दायित्व नहीं रह जाता और पानी एक ‘सामाजिक वस्तु’ की बजाय महज एक व्यापार की वस्तु बनकर रह जाता है। यही प्रक्रिया पिछले 12 सालों से बिजली क्षेत्र में और दुनिया के कई हिस्सों में पानी के क्षेत्र में भी साफ नजर आ रही है और इसी नज़रिए की वकालत विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक विश्व व्यापार संगठन कर रहे हैं। सचमुच, दुनिया भर में निजीकरण के दबाव के चलते ‘पूरी लागत वसूली’ का यह विचार एक विचारधारा बनकर उभर रहा है।
इस तरह पानी के कंपनीकरण की प्रक्रिया में निहित है कि पानी का व्यापारीकरण होगा यानी उसे व्यापारिक माल में बदल दिया जाएगा।
जब इतना महत्वपूर्ण संसाधन निजी हाथों, वह भी विदेशी कंपनियों के हाथों में जा रहा हो, तो इसका सबसे गहरा असर नागरिकों, समुदायों और देश की संप्रभुता पर पड़ता है। आपको शायद याद होगा कि जब उड़ीसा में बिजली बनाने व बांटने का काम निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया था तो अमेरिका की एईएस कंपनी द्वारा नियंत्रित उत्पादन कंपनी ने बिल न चुकाने पर पूरे ग्रिड की बिजली काटने में कोई संकोच नहीं दिखाया था। अनिवार्य सेवा कानून (एस्मा) लगाने और कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी को गिरफ्तार करने की धमकी के बाद ही आपूर्ति बहाल हुई थी।
व्यापारीकरण और वस्तुकरण का मतलब है कि जो लोग दाम नहीं चुका सकते वे उसका उपयोग भी नहीं कर सकेंगे। पहले से हाशिए पर बसर कर रहे गरीबों को और अभावों की तरफ धकेला जाएगा। जब लोग पानी जैसे जीवनदायी संसाधन से वंचित होंगे तो सामाजिक अशांति के लिए उपजाऊ ज़मीन तैयार होगी। लेकिन बात इतनी सी नहीं है। जब पानी, बिजली, कृषि आदि हर क्षेत्र पर कॉरपोरेट भूमंडलीकरण का हमला होगा, तब क्या कुछ हो सकता है, इसका जोरदार वर्णन लेखक अरूंधती राय ने किया है:
“अर्जेन्टाइना, ब्राजील, मेक्सिको, बोलिविया, भारत जैसे देशों में कार्पोरेट भूमंडलीकरण के खिलाफ आंदोलन फैल रहा है। उसे काबू में रखने के लिए सरकारें लगाम कस रही हैं। ...लेकिन सामाजिक असंतोष की अभिव्यक्ति सिर्फ रैलियां, धरने आदि ही नहीं है। बदकिस्मती से, बढ़ते अपराध व अफरातफरी और हर तरह की नाउम्मीदी व मोहभंग भी इसी सामाजिक असंतोष की झलक है और हम इतिहास के हवाले से जानते हैं कि ये सब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, धार्मिक कट्टरता, फारसीवाद और आतंकवाद जैसी भयानक चीजों के लिए एक उपजाऊ मैदान बनाते हैं। ”
विडंबना यह है कि इसके बावजूद यह जरूरी नहीं है कि संबंधित क्षेत्र की बुनियादी समस्याएं हल हो जाएंगी। यह बात बिजली क्षेत्र के अनुभव से साफ जाहिर है क्योंकि इस बात का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि निजीकरण से इस क्षेत्र के बुनियादी मसलों का जवाब मिल सकता है।
ये आशंकाएं मनगढ़ंत नहीं हैं, बल्कि भारत में बिजली क्षेत्र व दुनिया में जल प्रदाय के निजीकरण के अनुभवों पर आधारित सचमुच के भय हैं।
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