जलापूर्ति पर निर्णय का अधिकार किसका? प्राकृतिक संसाधनों का मालिक कौन? सरकार प्राकृतिक संसाधनों की ठीक से देखभाल न करे, तो जनता क्या करे? दिल्ली-खण्डवा जलापूर्ति निजीकरण ने बहस के ये तीन मुद्दे ताजा कर दिए हैं।
मेयर मीरा अग्रवाल ने चुनौती दी है कि जलापूर्ति के बारे में कोई भी निर्णय लेने का अधिकार दिल्ली सरकार को है ही नहीं। 74वें संविधान संशोधन का हवाला उन्होने कहा है कि पेयजल जीवन की मूलभूत आवश्यकता है। इसकी पूर्ति करने का दायित्व नगर निगम का है। अतः इस पर निर्णय का अधिकार भी नगर निगम का ही है। निगम की स्थानीय समिति के अध्यक्ष योगेंद्र चंदोलिया ने एक कदम आगे बढ़ते हुए दावा पेश कर दिया है कि निगम जलापूर्ति व्यवस्था संभालने में सक्षम है। इस जवाब से उठा सवाल यह है कि यदि अधिकार उसका है, जो दायित्व पूर्ति करे; तो फिर राजस्थान का मत्स्य कानून क्यों कहता है कि नदी में गिरी हर बूंद और हर मछली सरकार की है? आखिरकार अलवर की नदी अरवरी को जिंदा करने वाले ग्रामीण समाज को मछली के अधिकार से बेदखल करते वक्त प्रशासन ने यही तो तर्क दिया था। नदी, राज्य का विषय हैं। राज्य से गुजरने वाले प्रवाह पर राज्य का अधिकार है। तो क्या इसका मतलब यह है कि उत्तराखण्ड या उ.प्र. गंगा के साथ जो करें, उस पर बिहार, झारखण्ड या प. बंगाल को आपत्ति उठाने का कोई वैधानिक अधिकार नहीं है? जानना चाहिए कि क्या एक राज्य से दूसरे राज्य में जाने वाली सभी नदियों को लेकर सभी संबंधित राज्यों के बीच संधियां है? या इन संधियों के लिए कोई सिद्धांत परिभाषित है या रेपेरियन राइट के सवाल अभी भी तात्कालिक सरकारों के बीच आपसी संबंधों व समझौते का ही विषय है? बहस चालू आहे।
उल्लेखनीय है कि दिल्ली जलबोर्ड को सौंपे जाने से पहले जलापूर्ति दिल्ली नगर निगम के पास ही थी। यह कहकर ही दिल्ली जलबोर्ड बनाया गया था कि निगम इसे संभालने में सक्षम नहीं है। अब इसका परिचालन तीन कंपनियों को सौंपे जाने के निर्णय से स्पष्ट है कि दिल्ली जलबोर्ड ने अपनी अक्षमता स्वीकार ली है। ऐसे में आगे चलकर ऐसा ही दावा जल उपभोक्ता संघ दिल्ली या खण्डवावासी भी पेश कर सकते हैं। कंपनी मालिक द्वारा हाथ खड़े करने पर श्रमिक संघों द्वारा कंपनियों का संचालन अपने हाथ में लेने के कई सफल उदारहण पहले से ही मौजूद हैं ही।
इस उभरती बहस में खड़ा दूसरा सबसे बड़ा सवाल यह है कि यदि विधायिका, कार्यपालिका या न्यायपालिका अपने दायित्व की पूर्ति में अक्षम रहती है, तो ऐसे में क्या उन्हें हक है कि अपनी जिम्मेदारी वे जिसे चाहे सौंप दे? अभी आम धारणा यह है कि सार्वजनिक जरूरतों की पूर्ति करना शासन-प्रशासन का काम है। उनके काम में दखल देना... कानून अपने हाथ में लेना है। इतिहास में इसे ‘तख्तापलट’ व ‘जनक्रांति’ जैसे शब्दों का नाम दिया गया है।
प्राचीन रोमन साम्राज्य द्वारा स्थापित पब्लिक ट्रस्टीशिप के वैधानिक सिद्धांत समेत दुनिया भर के आधुनिक ट्रस्टीशिप के सिद्धांत इसे नकारते हैं। भारतीय संविधान की धारा 21 और 32 इन सिद्धांतों को समर्थन देती हैं।
केंद्रीय मंत्री कमलनाथ की कंपनी स्पैन मोटल प्राइवेट लिमिटेड द्वारा बनाये जा रहे रिजॉर्ट के लिए हिमाचल प्रदेश में ब्यास नदी की धारा को मोड़ने के खिलाफ दायर याचिका संख्या-182 (वर्ष 1996) पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीमकोर्ट ने बाकायदा सिर्फ पब्लिक ट्रस्टीशिप सिद्धांत का हवाला दिया है, बल्कि इसे भारतीय कानून का हिस्सा भी बताया है। यह याचिका नामी वकील एम सी मेहता ने दायर की थी। वर्ष 1997(1) सुप्रीमकोर्ट मामला संख्या-388 में आदेश देते न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह और सागीर अहमद ने सरकार की भूमिका और अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या इंगित की है। पब्लिक ट्रस्टीशिप के सिद्धांत के मुताबिक जंगल, नदी, समुद्र, हवा जैसे महत्वपूर्ण संसाधनों की सरकार सिर्फ ट्रस्टी है, मालकिन नहीं। ट्रस्टी का काम देखभाल करना होता है। अदालत ने ऐसे संसाधनों को निजी कंपनी को बेचने को अन्यायपूर्ण माना है।
इस शानदार फैसले के बावजूद यह बहस तो तब तक खुली ही रहेगी, जब तक निम्न दो सवालों का जवाब नहीं मिल जाता: पहला, यह कि यदि सरकार ट्रस्टी है, तो इन संसाधनों का मालिक कौन है? सिर्फ संबंधित समुदाय या प्रकृति के समस्त स्थानीय जीव?? दूसरा, यह हक यदि मालिक समुदाय या समस्त जीव हैं, तो क्या उन्हें हक है कि वे सौंपे गये संसाधनों की ठीक से देखभाल न करने की स्थिति में सरकार को बेदखल कर, इन संसाधनों की देखभाल खुद अपने हाथ में ले ले?
मेरे जैसे पानी कार्यकर्ताओं को इन सवालों के जवाब की प्रतीक्षा है। आपके पास हों, तो हमें भी बतायें।
दिल्ली जलबोर्ड को सौंपे जाने से पहले जलापूर्ति दिल्ली नगर निगम के पास ही थी। यह कहकर ही दिल्ली जलबोर्ड बनाया गया था कि निगम इसे संभालने में सक्षम नहीं है। अब इसका परिचालन तीन कंपनियों को सौंपे जाने के निर्णय से स्पष्ट है कि दिल्ली जलबोर्ड ने अपनी अक्षमता स्वीकार ली है। ऐसे में आगे चलकर ऐसा ही दावा जल उपभोक्ता संघ दिल्ली या खण्डवावासी भी पेश कर सकते हैं।
दिलचस्प है कि खण्डवा में अप्रैल से ही जलापूर्ति के निजीकरण के खिलाफ मुहिम बुलंद है। जनता बोल रही है और उसके साथ-साथ जनता के अलग-अलग वर्गों की नुमांइदगी करने वाले संगठन व शख्सियतें भी। पानी-पर्यावरण पर काम करने वाले ‘मंथन’ जैसे प्रमुख स्वयंसेवी संगठनों के अलावा कई सामाजिक व राजनैतिक कार्यकर्ता निजीकरण के खिलाफ मुहिम में जी जान से जुटे हैं। स्थानीय मीडिया में इसकी चर्चा भी खूब है। दूसरी तरफ देश की राजधानी दिल्ली है। यहां स्थिति विपरीत है। दिल्ली में सत्ता है; पैसा है; देश के दूसरे इलाकों में जाकर आंदोलनों को रास्ता दिखाने वाले पर्यावरणविद् हैं, बड़ी आबादी है, सामाजिक कार्यकर्ता हैं और आवाज को दुनिया भर में फैलाने की कुव्वत रखने वाला राष्ट्रीय मीडिया है। बावजूद इन सबके दिल्ली की जनता चुप है। अन्ना के आंदोलन में दिल्ली के रामलीला मैदान में संकल्पित हुई भीड़ का संकल्प भी कहीं दिखाई नहीं देता। अलबत्ता उत्तरी दिल्ली नगर निगम की मेयर ने जरूर निजीकरण करने के फैसले को चुनौती देकर एक नई बहस खड़ी कर दी है।जलापूर्ति पर निर्णय का अधिकार किसका?
मेयर मीरा अग्रवाल ने चुनौती दी है कि जलापूर्ति के बारे में कोई भी निर्णय लेने का अधिकार दिल्ली सरकार को है ही नहीं। 74वें संविधान संशोधन का हवाला उन्होने कहा है कि पेयजल जीवन की मूलभूत आवश्यकता है। इसकी पूर्ति करने का दायित्व नगर निगम का है। अतः इस पर निर्णय का अधिकार भी नगर निगम का ही है। निगम की स्थानीय समिति के अध्यक्ष योगेंद्र चंदोलिया ने एक कदम आगे बढ़ते हुए दावा पेश कर दिया है कि निगम जलापूर्ति व्यवस्था संभालने में सक्षम है। इस जवाब से उठा सवाल यह है कि यदि अधिकार उसका है, जो दायित्व पूर्ति करे; तो फिर राजस्थान का मत्स्य कानून क्यों कहता है कि नदी में गिरी हर बूंद और हर मछली सरकार की है? आखिरकार अलवर की नदी अरवरी को जिंदा करने वाले ग्रामीण समाज को मछली के अधिकार से बेदखल करते वक्त प्रशासन ने यही तो तर्क दिया था। नदी, राज्य का विषय हैं। राज्य से गुजरने वाले प्रवाह पर राज्य का अधिकार है। तो क्या इसका मतलब यह है कि उत्तराखण्ड या उ.प्र. गंगा के साथ जो करें, उस पर बिहार, झारखण्ड या प. बंगाल को आपत्ति उठाने का कोई वैधानिक अधिकार नहीं है? जानना चाहिए कि क्या एक राज्य से दूसरे राज्य में जाने वाली सभी नदियों को लेकर सभी संबंधित राज्यों के बीच संधियां है? या इन संधियों के लिए कोई सिद्धांत परिभाषित है या रेपेरियन राइट के सवाल अभी भी तात्कालिक सरकारों के बीच आपसी संबंधों व समझौते का ही विषय है? बहस चालू आहे।
तो क्या जल उपभोक्ता संघ भी पेश कर सकते हैं दावा?
उल्लेखनीय है कि दिल्ली जलबोर्ड को सौंपे जाने से पहले जलापूर्ति दिल्ली नगर निगम के पास ही थी। यह कहकर ही दिल्ली जलबोर्ड बनाया गया था कि निगम इसे संभालने में सक्षम नहीं है। अब इसका परिचालन तीन कंपनियों को सौंपे जाने के निर्णय से स्पष्ट है कि दिल्ली जलबोर्ड ने अपनी अक्षमता स्वीकार ली है। ऐसे में आगे चलकर ऐसा ही दावा जल उपभोक्ता संघ दिल्ली या खण्डवावासी भी पेश कर सकते हैं। कंपनी मालिक द्वारा हाथ खड़े करने पर श्रमिक संघों द्वारा कंपनियों का संचालन अपने हाथ में लेने के कई सफल उदारहण पहले से ही मौजूद हैं ही।
सरकार द्वारा दायित्व निर्वाह न करने पर जनता क्या करे?
इस उभरती बहस में खड़ा दूसरा सबसे बड़ा सवाल यह है कि यदि विधायिका, कार्यपालिका या न्यायपालिका अपने दायित्व की पूर्ति में अक्षम रहती है, तो ऐसे में क्या उन्हें हक है कि अपनी जिम्मेदारी वे जिसे चाहे सौंप दे? अभी आम धारणा यह है कि सार्वजनिक जरूरतों की पूर्ति करना शासन-प्रशासन का काम है। उनके काम में दखल देना... कानून अपने हाथ में लेना है। इतिहास में इसे ‘तख्तापलट’ व ‘जनक्रांति’ जैसे शब्दों का नाम दिया गया है।
प्राचीन रोमन साम्राज्य द्वारा स्थापित पब्लिक ट्रस्टीशिप के वैधानिक सिद्धांत समेत दुनिया भर के आधुनिक ट्रस्टीशिप के सिद्धांत इसे नकारते हैं। भारतीय संविधान की धारा 21 और 32 इन सिद्धांतों को समर्थन देती हैं।
केंद्रीय मंत्री कमलनाथ की कंपनी स्पैन मोटल प्राइवेट लिमिटेड द्वारा बनाये जा रहे रिजॉर्ट के लिए हिमाचल प्रदेश में ब्यास नदी की धारा को मोड़ने के खिलाफ दायर याचिका संख्या-182 (वर्ष 1996) पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीमकोर्ट ने बाकायदा सिर्फ पब्लिक ट्रस्टीशिप सिद्धांत का हवाला दिया है, बल्कि इसे भारतीय कानून का हिस्सा भी बताया है। यह याचिका नामी वकील एम सी मेहता ने दायर की थी। वर्ष 1997(1) सुप्रीमकोर्ट मामला संख्या-388 में आदेश देते न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह और सागीर अहमद ने सरकार की भूमिका और अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या इंगित की है। पब्लिक ट्रस्टीशिप के सिद्धांत के मुताबिक जंगल, नदी, समुद्र, हवा जैसे महत्वपूर्ण संसाधनों की सरकार सिर्फ ट्रस्टी है, मालकिन नहीं। ट्रस्टी का काम देखभाल करना होता है। अदालत ने ऐसे संसाधनों को निजी कंपनी को बेचने को अन्यायपूर्ण माना है।
सरकार ट्रस्टी, तो मालिक कौन?
इस शानदार फैसले के बावजूद यह बहस तो तब तक खुली ही रहेगी, जब तक निम्न दो सवालों का जवाब नहीं मिल जाता: पहला, यह कि यदि सरकार ट्रस्टी है, तो इन संसाधनों का मालिक कौन है? सिर्फ संबंधित समुदाय या प्रकृति के समस्त स्थानीय जीव?? दूसरा, यह हक यदि मालिक समुदाय या समस्त जीव हैं, तो क्या उन्हें हक है कि वे सौंपे गये संसाधनों की ठीक से देखभाल न करने की स्थिति में सरकार को बेदखल कर, इन संसाधनों की देखभाल खुद अपने हाथ में ले ले?
मेरे जैसे पानी कार्यकर्ताओं को इन सवालों के जवाब की प्रतीक्षा है। आपके पास हों, तो हमें भी बतायें।
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