स्वामी सानंद गंगा संकल्प संवाद - 12वाँ कथन आपके समक्ष पठन, पाठन और प्रतिक्रिया के लिये प्रस्तुत है:
(स्वामी जी के गंगा संकल्प के रास्ते को लेकर शासन, प्रशासन, संत समाज की नीति, कूटनीति और राजनीति तो काफी कुछ अब तक के संवाद से स्पष्ट हो चली थी। मेरे मन में अभी भी गंगाजी ही अटकी थी। अतः मैंने बातचीत को गंगाजी की तरफ मोड़ा। मैंने स्वामी जी से गंगा की समस्या और समाधान को लेकर विस्तार से बताने का अनुरोध किया। - प्रस्तोता)
गंगा की पहली समस्या तो हरिद्वार की नहर बनी
तिवारी जी, मैं 1932 में जन्मा। 1935 के बाद मैं कम से कम हर वर्ष गंगा में आया। इसका स्वरूप देखा। एक इंजीनियर होने के नाते अध्ययन किया। 1840 से पहले गंगाजी पर कोई बाँध नहीं था; कोई नहर नहीं थी। 1840 में गंगा से पहली बार नहर निकाली गई; हरिद्वार से। 1840 से 1916 तक अपर कैनाल बननी शुरु हुई। कोटले इस नहर के मुख्य कार्यकारी इंजीनियर थे। उनके हाथ का डाटा मैंने पढ़ा है। 1841-42 का डाटा है कि जनवरी-फरवरी में सबसे कम प्रवाह होता है। तभी सिंचाई के लिये भी पानी चाहिये होता है। उन्हें हरिद्वार में 8500 क्यूसेक प्रवाह मिला। हरिद्वार से 7000 क्यूसेक प्रवाह निकालने के लिहाज से नहर का डिज़ाइन किया गया, तो आप इसका विरोधाभास देखिये। माँ के शरीर से 80 प्रतिशत निकाल लेंगे; अरे रक्तदान भी होता है, तो एक यूनिट ब्लड ही लिया जाता है। गंगा जी की समस्या तो हरिद्वार नहर है।
दूसरी नहर, नरोरा से निकलती है। 1895 में निकली। इसे लोअर गंगा कैनाल कहते हैं। वहाँ गंगा से 95 प्रतिशत पानी निकाल लिया जाता है। मैं समझता हूँ कि उस समय पूरे पश्चिमी में इसका विरोध हुआ। वह विरोध ही था, जो मेरठ से आज़ादी के विद्रोह में तब्दील हुआ। लेकिन पहला गंगा विरोध देखें, तो मदनमोहन मालवीय जी के नेतृत्व में हुआ। बहुत सारे राजा इस लड़ाई से जुड़े। लड़ाई का आधार था कि हर की पौड़ी तक गंगाजी की धारा नहीं पहुँचती। बैठक हुई। वायसराय काउंसिल का एक मेंबर..गवर्नर खुद उस बैठक में शामिल हुआ। समझौता हुआ। समझौते में लिखा है कि भविष्य में गंगाजी के साथ कोई छेड़-छाड़ हिन्दू समाज की सहमति के बगैर नहीं होगी। अंग्रेज 1947 तक भारत में रहे। उन्होंने 1947 तक इसकी पालना की। 1947 तक गंगा की किसी धारा पर कोई निर्माण नहीं हुआ। हाँ, इस बीच प्रदूषण जरूर शुरु हो गया।
प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है पाइप वाटर सप्लाई
प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण पाइप वाटर सप्लाई है। गंगाजी के किनारे के कानपुर, इलाहाबाद..किसी भी शहर में आज़ादी के बाद भी वाटर सप्लाई नहीं थी। हैण्डपम्प थे; कुँए थे। लोग पानी भरकर लाते थे। कुँआ नहीं जाता था, प्यासे के पास; प्यासा जाता था कुँए के पास। कम पानी का प्रयोग होता था। मैं तो बहुत समृद्ध परिवार का था। भाइयों की 100 एकड़ ज़मीन थी। तब भी पानी के लिये अनुशासन था। दरअसल, जहाँ पाइप वाटर सप्लाई नहीं, वहाँ पानी बचता है। जहाँ पाइप वाटर सप्लाई आई, वहाँ पानी का प्रयोग बढ़ा और एक्सट्रा पानी नाली-नदी में जाने लगा। तभी से फ्लश टाॅयलेट हुये और आगे सीवेज लाइन आई। मुजफ्फरनगर में 1990 तक सीवर नहीं थे। बनारस में जरूर 1916 से पहले पाइप लाइन पड़ गई थी। जैसे ही वाटर सप्लाई शुरु हुई, वह नाली में होते हुये गंगाजी पहुँचने लगी। एसटीपी पर बहुत पैसा खर्च होता है। यह भी झूठ है कि उससे ऊर्जा बनाते हैं।
इस तरह दो काल आये। पहला, जब गंगाजी से पानी खींचने का काम शुरु हुआ; दूसरा, जब सीवर को गंगाजी तक लाने का काम शुरु हुआ।
गंगाजी में कीड़े मारने की शक्ति थी
कहा जाता है कि 1935 में एक फ़्रेंच बाॅयोलाॅजिस्ट (जीवविज्ञानी) आये। उन्होंने देखा कि गंदे नाले में कीड़े हैं। उन्होंने पाया कि वे कीड़े जैसे ही गंगाजी के पास पहुँचते थे, वे उल्टा दौड़ पड़ते थे। इससे यह भी पता चलता है कि गंगाजी में कीड़े मारने की शक्ति थी।
मैंने 1948 में बनारस में एडमीशन लिया। 1950 तक बनारस में बीएससी में पढ़ता था। बीएचयू (बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी) में था। गंगाजी तट पर टहलने जाता था। मेरा एक घनिष्ठ मित्र था। उसे आँख की बीमारी थी। दवाइयाँ डाली। कुछ नहीं हुआ। वहाँ एक सुंदरलाल आयुवेर्दिक अस्पताल था। वैद्य ने कहा - “गंगाजल डालो, 15 दिन में ठीक न हो जाये, तो कहना कि मुझे कुछ नहीं आता। हाँ, जल बीच में से लेकर आना।’’मैंने कई मामले में देखा कि गंगाजी में स्नान कर लो, तो कुछ नहीं होता।
अब आगे देखिये 1947 से 1960 के दौरान।
पूर्व परियोजनाओं की सफलता ने दिया गंगा में बाँध का हौसला
हम स्वतंत्र हो गये थे। नेहरु जी प्रधानमंत्री थे। 1949-1956 भाखड़ा बाँध का काम शुरु हो गया। मैंने 1950-53 में इंजीनियरिंग पढ़ी। इंजीनियरिंग पढ़ाई के बाद डेढ़ साल मैंने टनल वगैरह की ट्रेनिंग ली। उसका छह हजार रुपया मिलता था। छह हफ्ते मैं टनल के पास रहा भी। वहाँ मान्यता थी कि टनल, एक व्यक्ति की बलि लेती है। एक दिन सात-आठ लोग मर गये। मैंने सोचा कि यह क्या हुआ ? टनल तो एक ही व्यक्ति की बलि लेती है। मजदूरों ने जाने से इंकार कर दिया। फिर बलि शुरु हो गई।
मेरी इंजीनियरिंग की पढ़ाई तो 1953 में ही पूरी हो गई थी। उसके बाद दामोदर वैली, हीराकुण्ड बाँध का काम शुरु हो गया था। 1953 में ही उत्तर प्रदेश के रिहंद बाँध पर काम करने वालों की पहली खेप में ही मुझे चुन लिया गया था। उसका काम 1960 में पूरा हुआ। वह 300 फीट ऊँचा है। भाखड़ा की कैपिसिटी 7.6 मिलियन एकड़ फीट है और रिहंद की 8.5 मिलियन एकड़ फीट है। 3500 मेगावाट बिजली उत्पादन क्षमता है और करीब 35 करोड़ रुपये में रिहंद बाँध का काम पूरा हो गया। जब यह काम पूरा हो गया, तो यमुना जी की सहायक टोंस पर इच्छाड़ी बाँध बनना था; मेरे जैसे लोगों को वहाँ ट्रांसफर कर दिया गया। उसका मास्टरप्लान बनाने में मेरा भी योगदान रहा। 1961 में मैं आई. आई. टी., कानपुर में चला गया।
यदि ये परियोजनायें सफलतापूर्वक न बनती, तो गंगाजी का भी नम्बर न आता। 1960-1975 के बीच बहुत सारी परियोजनायें पूरी हुई। इन सब परियोजनाओं में मेरे कई मित्र थे। ओ.पी.गर्ग मिलने आये थे; तभी गंगाजी पर बनने की बात शुरु हो गई। लेकिन यह भी था कि गंगाजी पर बनने की बात शुरु हो गई थी। टिहरी का डिज़ाइन बनना शुरु कर दिया था, लेकिन यह भी शंका थी कि गंगाजी पर बाँध को लोग स्वीकार करेंगे कि नहीं?
जेपी तक पहुँची हिमालय की चिन्ता
1977 के अंत में मैंने कानपुर छोड़ा। उस वक्त जनता पार्टी की सरकार थी। सुंदरलाल बहुगुणा वगैरह कई लोगों ने हिमालय की चिन्ता जयप्रकाश नारायण तक पहुँचाई। उन्होंने सात लोगों की कमेटी बनाई। गांउसमे एक सामाजिक कार्यकर्ता थे - विकास भाई। राजघाट, बनारस में रहते थे। वह कमेटी के संयोजक थे। बाद में एक कार एक्सीडेंट में उनका निधन हो गया। गांधीयन इंस्टीट्यूट आॅफ स्टडीज, राजघाट - वाराणसी के जुआल भी थे। वनों के विनाश की चिन्ता भी शुरु हो गई थी। किन्तु इस बीच जेपी का निधन हो गया। यह कोई 1978-79 की बात है।
संवाद जारी...
अगले सप्ताह दिनांक 10 अप्रैल, 2016 दिन रविवार को पढ़िये स्वामी सानंद गंगा संकल्प संवाद श्रृंखला का 13वां कथन
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