जिसका मुख्य उद्देश्य था, विकसित और विकासशील राष्ट्र 2020 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में भारी कटौती लाने की घोषणा करें तथा विकासशील और गरीब देशों को उन खतरों से निपटने के लिए आर्थिक और तकनीकी मदद देने का ऐलान करें। 2012 में खत्म होने वाले क्योटो प्रोटोकॉल को जारी रखने पर सहमति कायम करना भी इसका एक मुख्य उद्देश्य था। दो हफ्ते तक चले इस सम्मेलन में इन मसौदे को अंतिम रूप देने के लिए करीब दो सौ देशों के मंत्रियों ने जमकर माथापच्ची की।
लेकिन सम्मेलन शुरू होने से पहले ही विकसित एवं विकासशील देशों के बीच ग्रीनहाउस गैसों में कटौती को लेकर बहस शुरू हो गई। क्योंकि हर देश अपने लाभ के हिसाब से अपना रूख अपनाए हुए थे। जापान ने यह कहकर सम्मेलन की संभावनाओं पर पानी फेर दिया कि वह आगे क्योटो संधि से बंधने के लिए तैयार नहीं है। इसके तहत जापान सहित विश्व के 38 अमीर-औद्योगिक देशों ने यह वचन दिया हुआ है कि वे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को 2008 से 2012 तक के बीच घटाकर 1990 के स्तर से भी 5 प्रतिशत कम करेंगे। जापान को चिंता है कि यदि उसने फिर इस पर सहमति व्यक्त कर दी तो उसकी अर्थव्यवस्था और भी पीछे हो जाएगी। वहीं भारत और चीन का मानना है कि उनकी अर्थव्यवस्थाएं विकास के रास्ते पर हैं, इसलिए वे इस तरह की किसी संधि को नहीं अपना सकते हैं।
कानकुन में तमाम खींचतान के बावजूद दुनिया के देशों के बीच एक समझौता हो गया है। उसके तहत विकासशील देशों की मदद के लिए सौ अरब डॉलर वाला एक हरित जलवायु कोष बनाये जाने पर सहमति हो गई है। भारत ने इसे अहम कदम बताया है। सम्मेलन में यह भी घाोषणा की गई है कि 2020 तक सौ अरब डॉलर जुटाकर गरीब देशों को दिए जायेंगे ताकि ये जलवायु परिवर्तन के नतीजों से निपट सकें। हालांकि सम्मेलन में कार्बन का उत्सर्जन और घटाने की बात जरूर कही गई है, पर इसके तरीके का स्पष्ट जिक्र नहीं है। वहीं क्योटो प्रोटोकाल की समय सीमा 2012 से आगे बढ़ाने को लेकर भी कुछ स्पष्ट नहीं किया गया है जबकि क्योटो प्रोटोकाल के भविष्य को लेकर ही सबसे अधिक विवाद है।
कानकुन में हुई वार्ता कई मायनों में महत्वपूर्ण थी। एक तरफ जहां राजनीतिक समझौते को 2010 में एक अंतरराष्ट्रीय संधि का रूप दिया जाना था। साथ ही विकसित एवं विकासशील देशों के बीच ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को लेकर जो मतभेद आज तक बने हुए है, इसका भी समाधान इस सम्मेलन में निकलने की उम्मीद की जा रही थी। पर कानकुन में किसी समझौते पर पहुंचने के लिए अनेक विवादास्पद मुद्दों को अलग कर दिया गया। साथ ही यह निर्णय लिया गया कि सम्मेलन में हुए फैसलों को अगले साल दक्षिण अफ्रीका के डरबन में आगे बढ़ाया जाएगा। उम्मीद की जा रही है कि इसमें कानूनी बाध्यकारी समझौते पर आम राय बन जाएगी। हालांकि संभावना थी कि कानकुन में ही किसी विधिक रूप से बाध्यकारी समझौते पर आम राय बन सकेगी। इसके लिए तैयारी बैठकें भी की गई थीं। लेकिन कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आया।
आज ग्रीनहाउस का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है। अनुमान है कि स्थिति यही रही तो 2050 तक पृथ्वी के तापमान में 4 डि.से. तक की वृद्धि हो जाएगी। जिससे समुद्र के जल स्तर में 10 इंच से 5 फुट तक की वढ़ोतरी हो सकती है। जिससे सभी समुद्र तटीय नगर डूब जाएंगे। भारत के मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, पणजी, विशाखापत्तनम्, कोचीन आदि का भी अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। न्यूयॉर्क, लांस एंजिल्स, पेरिस एवं लंदन आदि बड़े नगर भी जल मग्न हो सकते हैं। अत: यह संकट किसी एक देश की समस्या नहीं है, बल्कि विश्वव्यापी समस्या है। आज विकास की अंधी दौड़ के कारण ही ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन उच्चतम स्तर तक पहुंच गया है। इस रेस में पिछड़ने के डर से कोई भी देश कम उत्सर्जन के लिए तैयार नहीं है। वैसे भारत में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन एक प्रतिशत से भी कम है, जबकि आबादी के हिसाब से भारत ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करने वाले देशों की सूची में पांचवे स्थान पर है।
यह सत्य है कि 1972 के स्टॉकहोम से 2007 में बाली तक अनेक छोटे-बड़े जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित सम्मेलन हुए। इन सभी में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए योजनाएं बनाई गर्इं। लेकिन इसमें अब तक कुछ खास कामयाबी नहीं मिल सकी है। अमेरिका, जो कि सर्वाधिक प्रदूषण उत्पन्न करता है, अपने आर्थिक विकास में बाधा की दुहाई देकर पर्यावरण सम्बन्धित समझौतों से अलग रहना चाहता है। कहने का आशय यही है कि अनेक प्रयासों के बावजूद नतीजा अब तक शून्य रहा है। इसलिए समन्वित प्रयास और समय से चेतने में ही भलाई है।
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