पिछले कुछ दशकों से पलायन के कारण ग्रामीण क्षेत्र से नगरीय क्षेत्रों में शहरों की आबादी निरंतर बढ़ रही है। शहरी क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार तथा व्यापार इत्यादि क्षेत्रों में मिल रही बेहतर सुविधाओं के कारण ग्रामीण क्षेत्र से बड़ी संख्या में लोग शहरों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इस कारण मूलभूत सेवाओं पर भार बढ़ता जा रहा है। जलप्रदाय व्यवस्था एक महत्वपूर्ण मूलभूत आवश्यकता है। बढ़ती हुई आबादी का असर इस सेवा पर दिख रहा है। यही कारण है कि जो योजनाएं पेयजल 30 साल की अनुमानित जनसंख्या के लिए बनाई जाती है, आबादी के आंकड़े, उस अनुमानित समय-सीमा के पहले ही उस लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं। परिणाम-योजना बौनी हो जाती है। पिछले कुछ अरसे से संकेत मिल रहे हैं कि देश के अनेक नगर जल विहीन होने वाले हैं। यह दूसरा खतरा है। यह खतरा दिन-प्रति-दिन बढ़ रहा है।
भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा 27 जनवरी वर्ष 2003 से हरियाली कार्यक्रम में कहा था कि ‘‘भारत देश जल की गंभीर समस्या का सामना इसलिए नहीं कर रहा है कि यहां जल के पर्याप्त स्त्रोत नहीं हैं या हमारे यहाँ वर्षा कम होती है बल्कि इसलिए कर रहा है कि यहाॅँ पर जल का समुचित रूप से संग्रह नहीं किया जा रहा है। इन्द्र देवता हम पर बहुत कृपालु रहे हैं। असली समस्या यह है कि हम वर्षा जल को संचित करने में असमर्थ रहे हैं।’’
जलप्रदाय व्यवस्था सामान्यतः सतही स्त्रोत अथवा भूगर्भीय स्त्रोतों पर आधारित रहती है। जंगलों के कटने, ग्लोबल वार्मिंग तथा पहाड़ों के वैध/अवैध उत्खनन इत्यादि कारणों से सतही स्त्रोत सिमटते जा रहे हैं। जिन शहरों की जल आपूर्ति सतही स्त्रोतों पर आधारित हैं, उन्हें अब विश्वसनीय सतही स्त्रोतों से पानी लाने के लिए काफी लम्बी दूरी तय करनी पड़ रही है। इंदौर के लिए 70 कि.मी., भोपाल के लिए 70 कि.मी., देवास औद्योगिक क्षेत्र के लिए 130 कि.मी. की दूरी से पानी लाया जा रहा है। लम्बे परिवहन के कारण योजना की लागत अधिक है। इसके अलावा संचालन तथा संधारण भी महंगा तथा कठिन है। यह विकल्प हीनता नहीं है। मुम्बई या दिल्ली जैसे नगर तो लगभग पूरी तरह बाहरी मदद पर निर्भर हैं। बढ़ती हुई आबादी को रहने के लिए मकान चाहिए। शहरी क्षेत्र में जमीन सीमित है, अतएव भवन निर्माताओं द्वारा शहर की दलदली जमीन, नालांे के किनारे की जमीन, तालाबों के आसपास की खुली जगह पर निर्माण कार्य कराये जा रहे हैं। इस कारण लगभग सभी शहरों में तालाबों का योगदान घट गया है। इसका असर भूजल आपूर्ति पर पड़ा है ।
शहरों की आबादी निरंतर बढ़ रही है। लोगों के आवास की जरूरतें पूरी करने के लिए नये-नये भवन बन रहे हैं, सड़कें तथा नालियां पक्की हो रही हैं, खुली जगहें सिमट रही है तथा हरियाली कम हो रही है। बारिश का पानी जमीन में रिसने के लिए खुली जगह बहुत कम बची है। नालियां तथा नाले कचरे से भरे पड़े हैं। इस कारण यह पानी निचली बस्तियों, सड़कों आदि पर फैल जाता है तथा आवागमन में बाधा पहुंचाता है। जनहित में उसका उपयोग नहीं हो पा रहा है। तालाब भी उपेक्षित होने के कारण सेवा नहीं दे पा रहे हैं। केवल छत के पानी को जमीन में उतारने के विकल्प पर भरोसा किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि पिछली गर्मी में छत के पानी की विधा को चेन्नई ने आइना दिखा दिया है। यदि इस विधि का तरीका कारगर होता तो समूचे देश के अधिकांश नगरीय इलाकों में जल कष्ट की गंगा की दिशा कुछ और ही होती। पानी का स्वराज होता। लोग संविधान के आर्टीकल 21 की चर्चा नहीं करते। अनेक नगरों में सतही स्त्रोतों से पानी की पर्याप्त उपलब्धता भी समाधानकारक नहीं है। जलग्रहण क्षेत्र के कम होने के कारण छोटी नदियों में पर्याप्त पानी नहीं रहता। गर्मी के मौसम में जब पानी की मांग बढ़ जाती है तब इन नदियों का पानी या तो सूख जाता है अथवा बहाव बहुत कम हो जाता है। प्रदूषण के कारण पानी की गुणवत्ता भी विश्वसनीय नहीं रह पाती है। बड़ी नदियां जो एक से अधिक राज्यों से होकर बहती हैं उनमें पानी के बंटवारे को लेकर अक्सर स्थिति तनावपूर्ण ही रहती है।
बढ़ती हुई आबादी की पानी की आवश्यकता, उद्योगों के लिए पानी की मांग, सतही स्त्रोतों से आधी-अधूरी पूर्ति के कारण नलकूपों का प्रचलन बढ़ा है। इस कारण भूजल का दोहन लगातार बढ़ रहा है। अनेक इलाकों में जमीन में रिसने वाले पानी की तुलना में नलकूपों से निकाला जाने वाला पानी अधिक हो रहा है। इस कारण भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है। इसका परिणाम यह होता है कि गर्मी के मौसम में जब पानी की मांग अधिक होती है तब ज्यादातर नलकूप सूख जाते हैं अथवा कम पानी देते हैं। देश के कई नगरों में पानी की पूर्ति एक या इससे अधिक दिन छोड़कर होती है। कई शहरों में पानी का अभाव कानून तथा व्यवस्था की स्थिति में व्यवधान उत्पन्न करता है। लोगों के बीच विवाद के और मीडिया की व्यवस्था को आईना दिखाने का अवसर देता है।
भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा 27 जनवरी वर्ष 2003 से हरियाली कार्यक्रम में कहा था कि ‘‘भारत देश जल की गंभीर समस्या का सामना इसलिए नहीं कर रहा है कि यहां जल के पर्याप्त स्त्रोत नहीं हैं या हमारे यहाँ वर्षा कम होती है बल्कि इसलिए कर रहा है कि यहाॅँ पर जल का समुचित रूप से संग्रह नहीं किया जा रहा है। इन्द्र देवता हम पर बहुत कृपालु रहे हैं। असली समस्या यह है कि हम वर्षा जल को संचित करने में असमर्थ रहे हैं।’’ उनके अनुसार समस्या का समाधान यही है कि बरसाती पानी का उचित संग्रहण किया जाए। नगरीय इलाकों में अतिरिक्त व्यवस्थाएं बनाई जाएं। तालाब जिन्दा किए जाएं। उन्हें भूजल रीचार्ज के लिए सक्षम बनाया जाए। समझदारी से उपलब्ध उपयोग किया जाए। बरसाती पानी का उचित संग्रहण कर स्थानीय निकाय पानी की उपलब्धता बढ़ा सकते हैं। नगरीय इलाकों को कन्क्रीट का जंगल कहना बन्द किया जाए। उन्हें बेहतर जल उपलब्धता का स्रोत मानकर कुदरत की जिम्मेदारी को पूरा किया जाए। बरसाती पानी के टैंकों में जमा होने के भी अनेक फायदे हैं। उसे भी नगरीय इलाकों में अपनाया जाए। सरकारी भवनों को उदाहरण पेश करने से समाज में अच्छा संकेत जाएगा।
शुद्ध बरसाती पानी के एक्वीफरों में रिसने से अनेक फायदा हैं। वह पानी के विकेन्द्रीकृत उपलब्धता का प्रतीक हैं। भूजल ही, जहाँ पर पानी कठोर है अथवा पानी में फ्लोराईड, लौह तत्व इत्यादि अधिक मात्रा में हैं वहाँ वह उसकी गुणवत्ता सुधारता है। वह पानी को पीने योग्य बनाता है। उसे मापदंडों पर खरा उतरने में सहयोग देता है। भूजल की मदद से स्थिति में सुधार की अपार संभावनाओं के बावजूद अनेक नगरीय इलाकों में भूजल रीचार्ज की व्यवस्था का वर्तमान परिदृश्य बहुत अच्छा नहीं है। आवश्यकता उसे लागू करने की है। उसके लिए सही मार्ग चुनने और सही तकनीके अपनाने की है। बरसाती पानी के अधिकतम रीचार्ज के लिए नगरीय इलाकों में संभावनाओं को खोजने की है। वही सही मार्ग है। वही उजली संभावनाओं का द्वार खोलता है।
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