नेपाल में भी विस्थापित हुये 34 गाँव

सरकार का एक नीति वाक्य था जो कि अभी तक कायम है। इसका सीधा मतलब है कि किसी भी नदी के तटबन्धों के बीच में रह रहे लोगों के प्रति सरकार खेती और फसल की सुरक्षा सहित सभी दायित्वों से अपने आप को पूरी तरह मुक्त मानती है क्योंकि नदी को किस तरह समझाया जायेगा कि ग्रामीणों को घरों का मुआवजा मिल चुका है और वह उन्हें काट सकती है और वह खेतों को छोड़ दे क्योंकि उसका मुआवजा लोगों को नहीं मिला है।

कोसी तटबन्धों के बीच केवल भारत की ही जमीन नहीं पड़ती थी। बराज के नीचे नेपाल के सप्तरी जिले के 12 गाँव पड़ते थे और बराज के ऊपर तटबन्धों के बीच फँसे नेपाली गाँवों की संख्या 22 थी। रमपुरा, जि. सप्तरी के देव नारायण यादव बताते हैं कि, “... तटबन्ध के अन्दर पड़े गाँवों में जितने इलाके पर कोसी उस समय बहती थी और जो रिहायशी इलाका था उसका अधिग्रहण किया गया और उस जमीन का मुआवजा हमें दिया गया। जैसे लिलजा गाँव की कुल जमीन 1430 बीघा थी जिसमें से 317 बीघे का अधिग्रहण हुआ। बाकी जमीन वैसे ही रह गई। जब तटबन्ध और बराज बन गया और बराज से पानी छोड़ा गया तब बराज के ऊपर और नीचे दोनों तरफ कटाव शुरू हुआ। नदी की बहाव की दिशा बदलने लगी तब लिलजा की 1113 बीघा जमीन कट कर इधर-उधर होने लगी जिसका रैयत को कोई मुआवजा या भुगतान कभी नहीं मिला। यह कटाव बढ़ते-बढ़ते 61 गाँवों तक असर डालने लगा है। बराज के दक्षिण हमारी 3185 बीघा डुबान में है और उत्तर में 7093 बीघा, इस तरह कुल 10,278 बीघा जमीन ऐसी है जिसकी कीमत सरकार ने दे दी थी। 1100 बीघा जमीन बैरवा के उत्तर में भारत को गुडविल में मिली थी, इसका कुछ घटी दरों पर भुगतान हुआ था। इस तरह कुल 11,378 बीघे का भुगतान हम को हुआ। मगर हमारी जमीन तो बहुत ज्यादा है और नदी जो है वह तो चारों तरफ घूमती ही है। इसलिए हमारी चिन्ता तो किसी न किसी को करनी ही पड़ेगी। हम लोगों की यह हालत तो इस तटबन्ध और बराज के कारण ही हुई है जो कि मूलतः भारत के हिस्सों की रक्षा के लिए बना था। .. .पैसे की बात छोड़ भी दें तो पुर्नवास की हालत हमारे यहाँ बुरी है। अब नरहा वालों को पुनर्वास मिला भंटाबाड़ी में सो कोई गया नहीं क्योंकि वहाँ जीविका की कोई व्यवस्था नहीं थी। डलवा वाले पुनर्वास में पानी लगा है, वहाँ कैसे कोई रहेगा?”

जहाँ नेपाल में पुनर्वास के नाम पर इतना विक्षोभ है वहीं भारत में जो भूमि अधिग्रहण हुआ इसके प्रति यहाँ भी अंसतोष था और उसके लिए नेपाल का उदाहरण दिया जाता था। “...नेपाल में जितने किसानों की जमीन अर्जित की गई तो हमारी सरकार ने ग्यारह सौ रुपया प्रति बीघा कीमत दी है लेकिन उसकी कीमत यहाँ 250-300 रुपये प्रति बीघा दी गयी।” वास्तव में नेपाल में पुनर्वास का मसला किसी भी मायने में कोसी के भारतीय क्षेत्र से भिन्न नहीं है। अन्तर केवल इतना है कि अगर नेपाली गाँवों में इस मुद्दे पर कोई असंतोष है तो उसकी अभिव्यक्ति काठमाण्डू के मार्फत ही भारत सरकार से हो सकती है। सीधी वार्ता या सीधे विक्षोभ प्रदर्शन के रास्ते ठीक उसी तरह से बन्द है जैसे बाढ़ या ऐसे किसी मुद्दे पर बिहार की जनता सीधे कुछ नहीं कर सकती। उसे पटना और दिल्ली के माध्यम से ही काठमाण्डू को कोई बात कहनी पड़ेगी। यही मजबूरी कभी-कभी आक्रोश का कारण बनती है।

प्रशासन, राजनीति और स्वयंसेवी संस्थाएं


तटबन्ध के बीच रह रहे इन लोगों को बाढ़ के समय सहरसा का जिला प्रशासन कई बार राहत पहुँचाने से इसलिए मना कर देता है कि इन लोगों का पुनर्वास किया जा चुका है और यह लोग ऐसी जगहों पर रह रहे हैं जहाँ इन्हें नहीं रहना चाहिये। प्रशासन इन लोगों को शायद राहत सामग्री पहुँचाता जरूर मगर इसके लिए उन्हें जल-जमाव वाले उस क्षेत्र में रहना जरूरी था जहाँ उन्हें पुनर्वास मिला हुआ था। यह कि इतने ज्यादा बड़े इलाके में फैल कर बहने वाला पानी आज तटबन्धों के बीच रहने वालों की नियति बन चुका है इससे किसी को सरोकार नहीं है।

यहाँ यह बताना सामयिक होगा कि 1968 में एक बार बिहार विधान सभा में तटबन्धों के बीच रहने वालों की दुर्गति पर बहस चल रही थी। विनायक प्रसाद यादव ने सवाल किया था कि बेला धार के रुख परिवर्तन के कारण बेला, सिंगार मोती और धोबियाही गाँवों की हालत खराब हो गई है और यह गाँव कट जाने वाले हैं। वह जानना चाहते थे कि सरकार इन गाँवों की सुरक्षा के लिए क्या कर रही है। जबाव में सरकार की तरफ से रामेश्वर प्रसाद सिंह ने उत्तर दिया कि, “यह गाँव दोनों कोसी नदी के तटबन्ध के भीतर हैं और बेला धार कोसी नदी की प्रशाखा है। जब पानी आता है तो गाँव को खतरा हो जाता है और कटाव होता है और इस कटाव के चलते सरकार का काम नहीं है कि गाँव को बचाये। गाँव वालों को पैसा मिल चुका है कि वह हट जाएँ। जमीन वह केवल खेती के लिए है, रहने के लिए नहीं। गाँव बचाने के लिए सरकार पैसा खर्च नहीं करती है।”

यह सरकार का एक नीति वाक्य था जो कि अभी तक कायम है। इसका सीधा मतलब है कि किसी भी नदी के तटबन्धों के बीच में रह रहे लोगों के प्रति सरकार खेती और फसल की सुरक्षा सहित सभी दायित्वों से अपने आप को पूरी तरह मुक्त मानती है क्योंकि नदी को किस तरह समझाया जायेगा कि ग्रामीणों को घरों का मुआवजा मिल चुका है और वह उन्हें काट सकती है और वह खेतों को छोड़ दे क्योंकि उसका मुआवजा लोगों को नहीं मिला है। अगर तटबन्ध सुरक्षित रहते हैं तो उनके बीच रहने वाले लोगों का जीवन असुरक्षित होता है। लेकिन जल-संसाधन विभाग का काम है तटबन्धों को सुरक्षित रखना और इस फर्ज को भी कहाँ तक अंजाम दिया जाता है वह सभी लोग अच्छी तरह जानते हैं।

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Post By: tridmin
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