नेपाल की बाघमती


कश्मीर की जैसे दूधगंगा है, वैसे नेपाल की वाघमती या बाघमती है। इतनी छोटी नदी की ओर किसी का ध्यान भी नहीं जायेगा। किन्तु बाघमती ने एक ऐसा इतिहास-प्रसिद्ध स्थान अपनाया है कि उसका नाम लाखों की जबान पर चढ़ गया है। नेपाल की उपत्य का अर्थात अठारह कोस के घेरेवाला और चारों ओर पहाड़ों से सुरक्षित रमणीय अण्डाकार मैदान। दक्षिण की ओर फरपिंग-नारायण उसका रक्षण करता है। उत्तर की ओर गौरीशंकर की छाया के नीचे आया हुआ चंगु-नारायण उसको संभालता है। पूर्व की ओर बिशंगु-नारायण है और पश्चिम की ओर है इचंगु-नारायण।

हिमालय की गोद में बसे हुए स्वतंत्र हिन्दू राज्य के इस घोंसले में तीन राजधानियां ऐसी हैं, मानों तीन अंडे रखे गये हों। अत्यन्त प्राचीन राजधानी है। ललितपट्टन; उसके बाद की है। भादगांव, और आजकल की है काठमांडू या काष्टमंडप। नेपाल के मंदिरों की बनावट हिन्दुस्तान के अन्य स्थलों की बनावट के समान नहीं है। मंदिर की छत से जहां बरसात के पानी की धाराएं गिरती हैं वहां नेपाली लोग छोटी-छोटी घंटियां लटका रखते हैं। और बीच में लटकाने लोलक को पीतल के पतले पीपल पान लगा दिए जाते हैं। जरा-सी हवा लगते ही वे नाचने लगते हैं। यह कला उन्हें सिखानी नहीं पड़ती। एक साथ अनेक घंटियां किणकिण किणकिण आवाज करने लगती हैं यह मंजुल ध्वनि मंदिर की शांति में खलल नहीं डालती, बल्कि शांति को अधिक गहरी और मुखरित करती हैं। भादगांव की कई मूर्तियां तो शिल्पकला के अद्भुत नमूने हैं। शिल्पशास्त्र के सब नियमों की रक्षा करके भी कलाकार अपनी प्रतिभा को कितनी आजादी दे सकता है, इसके नमूने यदि देखने हों तो इन मूर्तियों को देख लीजिये। मालूम होता है यहां के मूर्तिकार कला को अतिमानुषी ही मानते हैं।

खेतों में दूर-दूर भव्यकृति स्तूप ऐसे स्वस्थ मालूम होते हैं, मानों समाधि का अनुभव ले रहे हों।

और काठमांडू तो आज के नेपाल राज्य का वैभव है। नेपाल में जाने की इजाजत आसानी से नहीं मिलती। इसीलिए परदे के पीछे क्या है, अवगुंठन के अंदर किस प्रकार का सौंदर्य है, यह जानने का कुतूहल जैसे अपने-आप उत्पन्न होता है, वैसे नेपाल के बारे में भी होता है। आठ दिन रहने की इजाजत मिली है। जो कुछ देखना है, देख लो। वापस जाने पर फिर लौटना नहीं होगा। ऐसी मनःस्थिति में जहां देखो वहां काव्य ही काव्य नजर आता है।

पशुपतिनाथ का मंदिर काठमांडू से दूर नहीं है। वह ऐसा दिखता है मानो मंदिरों के झुंड में बड़ा नंदी बैठा हो। निकट में ही बाघमती बहती है। रेतीली मिट्टी पर से उसका पानी बहता है, इसलिए वह हमेशा मटमैला मालूम होता है। उसमें तैरने की इच्छा जरूर होती है, मगर पानी उतना गहरा हो तभी न? गुह्येश्वरी और पशुपतिनाथ के बीच से यह प्रवाह बहता है, इसी कारण उसकी महिमा है।

पशुपतिनाथ से हम सीधे पश्चिम की ओर शिंगु-भगवान के दर्शन करने गये। रास्ते में मिली बाघमति की बहन विष्णुमति। इस नदी पर जहां-तहां पुल छाये हुए थे। पुल काहे के? नदी के पट पानी से एक हाथ की ऊंचाई पर लकड़ी की एक-एक बित्ता चौड़ी तख्तियां। सामने से यदि कोई आ जाय तो दोनों एक साथ उस पुल पर से पार नहीं हो सकते। दोनों में से किसी एक को पानी में उतरना पड़ता है। कहीं-कहीं पानी अधिक गहरा होता है; वहां तो आदमी घुटनों तक भीग जाता है।

शिंगु-भगवान की तलहटी में ध्यानी बुद्ध की एक बड़ी मूर्ति सूर्य के ताप में तपस्या करती है। टेकरी पर एक मंदिर है। उसमें तीन मूर्तियां है। एक बुद्ध भगवान की; दूसरी धर्म भगवान की; तीसरी संघ भगवान की! हरेक के सामने घी का दीया जलता है। एक कोने में लकड़ी की बनायी हुई एक चौखट में पीतल की एक पोली लाट खड़ी कर रखी है, जिस पर ‘ऊँ मामे पामे हुम्’ (ऊँ मणिपद्मेSहम्) का पवित्र मंत्र कई बार खुदा हुआ है। दस्ता घुमाने पर लाट गोल-गोल घूमती है। रुद्राक्ष या तुलसी की माला फेरने की अपेक्षा यह सुविधा अधिक अच्छी है! हर चक्कर के साथ उस पर जितनी बार मंत्र लिखा हुआ है उतनी बार आपने मंत्र का जाप किया, और उतना पुण्य आपको अपने-आप मिल गया, इसमें संदेह रखने का कोई कारण नहीं है! ‘नात्र कार्या विचारणा’। तथागत को अपने संदेश का यह स्वरूप देखने को नहीं मिला, यह उनका दुर्भाग्य है, और क्या? इसी मंदिर के पास पीतल का बनाया हुआ इन्द्र का वज्र एक चबूतरे पर रखा है। भगिनी निवेदिता को इसका आकार बहुत पसंद आया था। उन्होंने सूचना की थी कि भारतवर्ष के राष्ट्रध्वज पर इसका चित्र बनाया जाय।

बाघमती के किनारे धान, गेहूं, मकई और उड़द काफी पैदा होते हैं। अरहर वहां नहीं होती। मालूम नहीं, इन लोगों ने इसे पैदा करने की कोशिश की है या नहीं। रुई पैदा करने के प्रयत्न अभी-अभी हुए हैं।

बाघमती नेपाली लोगों की गंगा-मैया है। गोरक्षनाथ उनके पिता हैं।

1926-27
 
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