नेपाल की आशंकाएं

कोसी तटबन्धों के बीच जो दस लाख के करीब लोग केवल भारत में हमेशा-हमेशा के लिए फंस कर बर्बाद होने के लिए अभिशप्त हुये, वह इन सबके ऊपर था। इनका समुचित पुनर्वास आज तक नहीं हो पाया है। इस तरह के होने वाले नुकसानों के बारे में सरकारों को खामोश ही रह जाना पड़ता है क्योंकि यह पिटारा अगर खुला तो बात बहुत दूर तक जायेगी। यह बात तो भुक्त-भोगी या प्रबुद्ध नागरिक ही कर सकते हैं। जहाँ तक भुक्त-भोगियों का प्रश्न है उन्होंने तो यथास्थिति स्वीकार कर ली हुई है। नदियों के पानी से सिंचाई को लेकर भारत-नेपाल सम्बन्धों की शुरुआत लगभग 1910 में हुई जब भारत की तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत ने उत्तर प्रदेश मंच शारदा नदी की धारा को नियंत्रित करने और तराई के इलाकों की सिंचाई के लिए नदी पर भारत-नेपाल सीमा पर एक बराज का प्रस्ताव किया। इस बराज का निर्माण होते-होते 1928 आ गया। इस बराज के दाहिने किनारे से 14,000 घनसेक क्षमता की एक नहर निकाली गई जिससे उत्तर प्रदेश में सिंचाई शुरू हुई। आजादी के बाद शारदा सहायक नहरों की मदद से सिंचाई का विस्तार पूर्वी उत्तर प्रदेश के मऊ जिले तक किया गया। इसी क्रम में भारत-नेपाल सीमा पर अन्य बहुत सी छोटी बड़ी नदियों पर लोअर शारदा, गिरिजापुर, सरयू, लक्ष्मणपुर, बाणगंगा और डांडा में बराज बना कर भारत में सिंचाई की व्यवस्था हुई। नेपाल इसे भारत की एकतरफा कार्यवाही मानता है और इस से खुश नहीं है और इन संरचनाओं के निर्माण से दोनों देशों के रिश्तों में खटास आई है’ ऐसा नेपाल के प्रबुद्ध लोगों की मान्यता है।

भारत-नेपाल के बीच 1954 में कोसी योजना को लेकर समझौता हुआ जिसे 1966 में पुनरीक्षित करना पड़ा। इस पुनरीक्षण के बाद भी नेपाल अपने को ‘ठगा’ हुआ महसूस करता है। इसी तरह के समझौते गंडक नदी के पानी के उपयोग के लिए 1959 और 1964 में हुये। मगर नेपाल के लिए बात पुनरीक्षण से भी नहीं बनी, ऐसा वहाँ लोगों का मानना है। नेपाल में आम जनता के मन में यह धारणा घर कर गई है कि भारत ने कोसी और गंडक नदियों पर कब्जा जमा लिया हुआ है और इन दोनों नदियों पर बनी योजनाओं का सारा लाभ भारत को मिला है। वहाँ लोग इस बात से नाराज हैं कि भारत-नेपाल सीमा के पास, भले ही वह पूरी तरह नेपाल में ही अवस्थित क्यों न हो, जो कोसी पर भीमनगर बराज बना हुआ है, उसके साथ 40 कि. मी. उत्तर चतरा में भी एक बराज बनना था जिससे नेपाल के उत्तरी क्षेत्रों में सिंचाई होती। यह काम नहीं हुआ। नेपाल में अब शायद नई पीढ़ी को पता भी नहीं है कि पूरब में चतरा नहर प्रणाली का निर्माण भारत के सहयोग से हुआ था जिसका उद्घाटन 7 सितम्बर 1970 को नेपाल के सिंचाई और ऊर्जा मंत्री नवराज सुवेदी ने किया था। इस योजना पर उस समय 15 करोड़ रुपये खर्च हुये थे। कोसी के पश्चिमी क्षेत्रों में सिंचाई के लिए बनी चन्द्र नहर के निर्माण में भी भारत के सहयोग को भुला दिया गया है। वहाँ इसी तरह की कुछ नाराजगी गंडक परियोजना से भी है। ऐसा लगता है कि पानी संबन्धी प्रकल्पों के अलावा नेपाल की दूसरी अन्य भी कई समस्याएं हैं और वह हर सावधानी बरतना चाहता है जिससे उसके हितों की रक्षा हो सके। इसकी वजह से कोई भी निर्णय लेने में देर होती है।

भारत-नेपाल के बीच हुई महाकाली सन्धि (1996) भी ऐसे ही सन्देह के दायरे में आती है। इस महाकाली संधि का अलम्बरदार 315 मीटर ऊँचा पंचेश्वर बांध है जिसके पीछे 12.3 अरब घनमीटर पानी संचित कर के रखा जा सकता है और इससे 6,480 मेगावाट पन-बिजली का उत्पादन संभव हो सकेगा। 1996 में जब दोनों देशों के बीच महाकाली संधि पर हस्ताक्षर किये गये तो पहले तो शुरू-शुरू में यह लगा कि बांध निर्माण संबंधी सारी आशंकाएँ अब सरकारी स्तर पर समाप्त हो गई हैं। नेपाल की राजनैतिक पार्टियों में इस संधि का श्रेय लेने की होड़ मच गई। मगर इन पार्टियों में आंतरिक मतभेद भी कम नहीं थे जिसका नतीजा यह हुआ कि नेपाल की मुख्य विरोधी पार्टी यूनाइटेड माक्र्सिस्ट लेनिनिस्ट (यू.एम.एल.) दो भागों में विभक्त हो गई। एक हिस्सा यू.एम.एल. था और दूसरा मर्क्सिस्ट लेनिनिस्ट (एम.एल.)। यह दोनों धड़े पिफर 1999 के आम चुनाव के बाद एक हो गये जबकि एम.एल. का चुनाव में सफाया हो गया। नेपाली आलोचकों का मानना है कि इस संधि में नेपाल के हिस्से के पानी को तो पारिभाषित किया गया है मगर यह भारत के हिस्से के पानी पर खामोश है। संधि की कंडिका में जहाँ यह कहा गया है कि ‘बिना किसी पूर्वग्रह के अपने-अपने वर्तमान स्तर के पानी के उपयोग’ का जो प्रावधान है वह भारत को यह अधिकार दे देगा कि वह पानी की कमी के मौसम में महाकाली नदी के पूरे पानी पर अपना हक जमा ले। अनुमोदन के बावजूद नेपाल की एक संसदीय उप-समिति ने संधि में चार और उपबन्ध डाले (महाकाली एक सीमावर्ती नदी है, महाकाली आयोग की स्थापना, वर्जनीय मूल्यांकन सिद्धांत पर बिजली का विक्रय तथा ‘बिना किसी पूर्वग्रह के अपने-अपने वर्तमान स्तर के पानी के उपयोग’ का मतलब होता है महाकाली के सारे पानी पर समान स्वत्वाधिकार)। जहाँ तक भारत का संबंध है, वह इन उपबन्धों को मान्यता नहीं देता क्योंकि संधि का या तो अनुमोदन होता है या उसे खारिज किया जाता है। संधि का अनुमोदन शर्तों के साथ नहीं होता।

शुरू-शुरू के जोशो-खरोश के बावजूद महाकाली संधि निष्क्रिय ही रही है। संधि में जिस विस्तृत परियोजना रिपोर्ट को छः महीने में तैयार कर लेने की बात कही गई थी वह दस साल बीत जाने के बाद भी अब तक तैयार नहीं हुई है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि अब राजनैतिक पार्टियों के यह मतभेद आम जनता के स्तर पर पहुँच गये हैं। भविष्य में कभी दोनों सरकारें अगर कोई साझा कार्यक्रम हाथ में ले भी लेती हैं तो इन परियोजनाओं के फायदे जनता को समझाने में कम से कम नेपाल सरकार को काप़फी मशक्कत करनी पड़ेगी।

यह जरूर सच है कि नेपाल में 61 गाँवों की करीब 1.5 लाख की आबादी कोसी तटबन्धें के बीच में फंसी है। अत्यधिक सिल्ट जमाव के कारण नेपाल को चतरा नहर का आधुनिकी करण करना पड़ा है। चन्द्र नहर के अक्सर टूटते रहने के कारण भारत-नेपाल सीमा से लगे सप्तरी जिले के गाँवों में बालू पट गया है। पश्चिमी कोसी नहर के नेपाल वाले हिस्से में वह सब कुछ घटित हो रहा है जिसकी वजह से इस नहर से भारत वाले हिस्से में जनता परेशान है।

गलत यह भी नहीं है कि पूर्वी कोसी मुख्य नहर के निर्माण के बाद जो सिंचाई हुई वह भारतीय भाग में आजकल अपने कथित लक्ष्य (1953) की मात्रा 20 प्रतिशत पर या उससे नीचे ही बनी हुई है और इस कमान क्षेत्र में जल-जमाव उसके सिंचित क्षेत्र से कहीं ज्यादा है। पश्चिमी कोसी नहर जिसका निर्माण कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है, अपने कथित लक्ष्य के मात्रा 7 प्रतिशत से कम जमीन पर सिंचाई करती है। इस नहर पर उसके मूल प्राक्कलन का करीब 53 गुना पैसा खर्च हो चुका है (2006) मगर सिंचाई प्रतिशत अभी तक दो अंकों में नहीं पहुँचा है। अध्याय-4 में हम ने देखा है कि कोसी तटबन्धों का वजूद किसी भी मायने में मतलब के यारों से अधिक नहीं है। गंडक परियोजना की स्थिति भी कोई अच्छी नहीं है। इन नहरों से 11.53 लाख हेक्टेयर भूमि पर सिंचाई का लक्ष्य था मगर परियोजना से 2003-2004, 2004-2005 और 2005-2006 के बीच क्रमशः 3.95, 3.88 और 3.83 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर ही सिंचाई हो पाई। इन नहरों का काम अभी भी अधूरा है और 1985 में जब इनके निर्माण के प्रथम फेज की समाप्ति की घोषणा की गई तब तक इस पर मूल प्राक्कलन से 10 गुने के आस पास खर्च हो चुका था। इसके अलावा कोसी तटबन्धों के बीच जो दस लाख के करीब लोग केवल भारत में हमेशा-हमेशा के लिए फंस कर बर्बाद होने के लिए अभिशप्त हुये, वह इन सबके ऊपर था। इनका समुचित पुनर्वास आज तक नहीं हो पाया है। इस तरह के होने वाले नुकसानों के बारे में सरकारों को खामोश ही रह जाना पड़ता है क्योंकि यह पिटारा अगर खुला तो बात बहुत दूर तक जायेगी। यह बात तो भुक्त-भोगी या प्रबुद्ध नागरिक ही कर सकते हैं। जहाँ तक भुक्त-भोगियों का प्रश्न है उन्होंने तो यथास्थिति स्वीकार कर ली हुई है। भारत में कोसी परियोजना द्वारा हुये इस तरह के तथाकथित ‘फायदों’ की जानकारी अगर नेपाली जनता को होती तो इस योजना के बारे में वहाँ भ्रांतियाँ नहीं फैलतीं।

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Post By: tridmin
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