नए ज़माने के भस्मासुर

बात मुजफ्फरपुर की है और 8 मार्च की है यानी जापान की त्रासदी शुरु होने के ठीक तीन दिन पहले। मुजफ्फरपुर जिले में प्रस्तावित एस्बेस्टस कारखाने के विरुद्ध चल रहे गांववासियों के संघर्ष के संदर्भ में ‘बिहार के विकास’ पर गोष्ठी चल रही थी। औद्योगीकरण के नाम पर कैसे दुनिया के अमीर देश प्रदूषण और पर्यावरण - खतरों का आउटसोर्सिंग कर रहे हैं तथा गरीब देशों को दुनिया का कूड़ाघर बना रहे हैं, इस बात का खुलासा करते हुए मैंने भारत में परमाणु बिजली के विस्तार के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम तथा उसके खतरों की चर्चा की। गोष्ठी की अध्यक्षता एक सेवानिवृत्त प्राध्यापक कर रहे थे। उन्होंने इस का तुरंत प्रतिवाद किया और अणुबिजली की टकनॉलॉजी को ‘फुलप्रूफ’ बताया। मुझे अंदाज नहीं था कि टकनॉलॉजी में उनके इस अगाध विश्वास का खंडन तीन दिन बाद ही आधुनिक इतिहास की इतनी बड़ी त्रासदी से हो जाएगा।

कहने वाले तो अभी भी कह रहे हैं कि इसमें टकनॉलॉजी का दोष नहीं है, ऐसी दुर्घटनाएं अपवाद हैं, दो-तीन घटनाओं के कारण हम परमाणु बिजली को छोड़ नहीं सकते, इसे और अधिक सुरक्षित बनाया जा सकता है, वगैरा-वगैरा। भारत सरकार और भारतीय परमाणु प्रतिष्ठान के अफसरों ने तोते की तरह रटना शुरु कर दिया है कि भारत में इस तरह की दुर्घटना कभी नहीं होगी। जाहिर है कि इन आश्वासनों व दावों पर कोई भरोसा नहीं कर रहा है, स्वयं उनके बीच के विशेषज्ञ भी नहीं।

टीवी पर एक बहस में परमाणु प्रतिष्ठान के एक वैज्ञानिक ने झल्लाकर आलोचकों से कहा है कि आप परमाणु-निरक्षर हैं, आपको क्या मालूम है? किन्तु वे यह भूल गए कि उनकी परिभाषा के मुताबिक इस देश के 99.99 फीसदी लोग परमाणु-निरक्षर होंगे। ‘निरक्षरों’ की इस आबादी को वे कुछ समझा नहीं पा रहे हैं या आश्वस्त नहीं कर पा रहे हैं तो इसमें दोष जनता का नहीं, स्वयं वैज्ञानिकों तथा अफसरों का है। लोकतंत्र में आखिरकार फैसला तो जनता को हीं लेना है। किन्तु भारत के परमाणु प्रतिष्ठान में बैठे अफसर-सह-तकनीकज्ञों का रवैया अभी तक यही रहा है कि मानो वे ही सत्य के अंतिम व एकमात्र ज्ञाता हैं और इस सत्य को दूसरों को जानने-परखने की जरुरत नहीं है। सूचना के इस युग में परमाणु प्रतिष्ठान इस देश के सबसे बंद, गोपनीय और सूचना छिपाने वाले विभागों में से एक हैं और यही तथ्य सबसे ज्यादा संदेह पैदा करता है। सच तो यह है कि मानव समाज से जुडे़ बड़े फैसले तकनीकशाहों, नौकरशाहों या मुनाफाखोर कंपनियों के हाथ में छोड़ना खतरनाक है, यह दिन-प्रतिदिन साफ होता जा रहा है।

भूकम्प और सुनामी प्राकृतिक आपदाएं मानी जाती हैं। उनमें जो हुआ सो हुआ, किन्तु उनसे जुड़कर फुकुशिमा दाईची की परमाणु दुर्घटना के रुप में पूरी तरह मानव निर्मित आफत आ पड़ी है। अभी भी इस हादसे के सारे आयाम सामने नहीं आए हैं और रोज नई-नई खबरें आ रही हैं। जापान सरकार और बिजली कंपनी ने पहले लगातार इंकार करने के बाद यह स्वीकार किया है कि संयंत्र के भीतरी खोल में दरार पड़ी है और यह पिघला भी है, जिसका मतलब है कि रेडियोधर्मिता प्रदूषण की यह विभिषिका काफी बड़ी और लंबे असर वाली होगी। यह हादसा चेर्नोबिल के समकक्ष हो चला है।

जापान की इस दुर्घटना से कई बातें नोट करने लायक निकलती है। एक तो यह कि आपात स्थिति में अणु बिजली के कारखानों को बंद करना भी आसान नहीं है। दो, जब ये कारखाने बंद हैं तब भी सुरक्षित नहीं है। फुकुशिमा की तीन इकाईयां तो भूकंप व सुनामी के समय पहले से मरम्मत के लिए बंद थी, फिर भी उनमें आग लगी एवं विस्फोट हुए हैं। तीन, फुकुशिमा के संयंत्रों में आपात स्थिति के लिए ठंडा रखने की एक के बाद एक चार व्यवस्थाएं थी। एक के फैल होने पर दूसरी अपने आप चालू हो जाती है या की जा सकती है। इसके बावजूद ऐसी हालातें बनी कि सब फैल हो गई। चार पूरे घटनाक्रम में घबराहट का एक बड़ा स्त्रोत वह जला हुआ परमाणु ईंधन रहा, जो संयंत्र के भवन के अंदर ही रखा हुआ है। यह भी सैकड़ों सालों तक गरम एवं खतरनाक रहता हैं। पांच, परमाणु बिजली कारखानों में ऐसी दुर्घटना के समय जो भी कर्मचारी वहां मरम्मत का काम करते हैं, उनका भारी रुप से प्रभावित होना तो लगभग तय है। यानी उनकी जिंदगियों का बलिदान करके ही हालातों पर काबू पाया जा सकता है। छह, जापानियों ने फिर भी इस मुसीबत का मुकाबला कुशलता और बहादुरी से किया। कहीं कोई भगदड़ नहीं मची। उनके पास आधुनिकतम टकनॉलॉजी व भरपूर संसाधन भी हैं। कभी भारत में ऐसी दुर्घटना होगी तो क्या होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। यहां तो आबादी का घनत्व भी काफी ज्यादा है।

कुल मिलाकर, इस हादसे ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि अणुबिजली जैसी टकनॉलॉजी अपनाकर इंसान ने भारी मुसीबत मोल ले ली है। इस टकनॉलॉजी को मूलतः युद्ध में महाविनाश के लिए ईजाद किया गया था। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान अमरीका और इंग्लैण्ड ने संयुक्त रुप से मैनहट्टन प्रोजेक्ट के तहत इस विनाशकारी टकनॉटलॉजी को विकसित किया। फिर हिरोशिमा व नागासाकी की विनाशलीला से पूरी मानवता कांप गई। तब हमें पाठ पढ़ाया गया कि इसका शांतिपूर्ण उपयोग मानवता के लिए वरदान होगा। इसके विध्वंसक व शांतिपूर्ण उपयोग में फर्क करना चाहिए। किन्तु अब समझ में आ रहा है कि दोनों के बीच की रेखा बहुत पतली है। अणुबिजली के कारखाने भी अणुबम से कम नहीं है, जो पता नहीं कब फट पड़ेंगे और हिरोशिमा नहीं तो फुकुशिमा व चेर्नोबिल तो बना ही देंगे। इसे बिजली बनाने का सबसे ‘स्वच्छ’ और ‘हरित’ उपाय बताया जा रहा है, किन्तु इसकी दुर्घटनाएं बड़ी-बड़ी मानवीय, सामाजिक और पर्यावरणीय त्रासदियां पैदा कर रही हैं।

परमाणु बिजली बनाने में सबसे बड़ी समस्या वह अति जहरीला कचरा है, जिसे सुरक्षित रुप से ठिकाने लगाने का कोई तरीका अभी तक वैज्ञानिक खोज नहीं पाए हैं। इसके कुछ तत्व हजारों सालों तक सक्रिय रहते हैं। यदि इस कचरे को इस्पात की मोटी चद्दरों के बक्सों में सील करके समुद्र में फेंका जाए या जमीन में बहुत गहरे गाड़ा जाए, तो भी सौ-दो सौ सालों में वे चद्दरें सड़ जाएंगी और भूजल या समुद्री जल व मछली को प्रदूषित करते हुए खाद्य-श्रृंखला के जरिये यह जहर इंसानों तक पहुंच जाएगा। यानी हम भावी पीढि़यों को भी नुकसान पहुंचाने की तैयारी कर रहे हैं। फिर इस जहरीले कचरे के परिवहन में भी दुर्घटनाओं की संभावनाएं हैं। जिस ट्रक या रेलगाड़ी से उसे ले जाया जा रहा है, यदि वह दुर्घटनाग्रस्त हो जाए तो भी बड़ा हादसा हो जाएगा। इसीलिए दुनिया के फुकुशिमा सहित ज्यादातर अणुबिजली कारखानों का इस्तेमालशुदा ईंधन उसी इमारत या कांप्लेक्स के अंदर रखा है। उसे फेंके तो कहां फेंके ? सिर्फ इंधन ही नहीं अणुबिजली कारखाने की मशीनें, उपकरण, कर्मचारियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले कपड़े व नकाब, पानी, इमारत की दीवारें सब कम-ज्यादा मात्रा में जहरीले हो जाते हैं। किसी भी अणु बिजली कारखाने की जिंदगी इसीलिए तीस-चालीस साल से ज्यादा नहीं होती। धीरे-धीरे इन कारखानों के अंदर इतनी रेडियोधर्मिता जमा हो जाती है कि उनके अंदर काम करना सुरक्षित नहीं रहता है। जहरीले कचरे की इस गंभीर समस्या को अनदेखा करके तथा उसके निपटान की वर्तमान एवं भावी लागतों को न जोड़कर ही अणुबिजली को सस्ता दिखाया जाता रहा है।

भारत के दो ताजा उदाहरणों से सामान्यजन के लिए इस जहरीले कचरे की समस्या की भयावहता का अंदाज लगाना आसान होगा। एक, भोपाल गैस त्रासदी को हुए 26 वर्ष से ज्यादा हो चुके हैं लेकिन यूनियन कार्बाइड परिसर के जहरीले कचरे, जिसमें कारखाने के कबाड़ के अलावा जहरीली हो गई मिट्टी भी है, को ठिकाने लगाने को कोई तरीका अभी तक सरकार नहीं खोज पाई है। बीच में इंदौर के पास पीथमपुर में उसे फेंकने व जलाने का फैसला हुआ था, किन्तु स्थानीय ग्रामवासियों के कडे़ प्रतिरोध के बाद उसे रद्द करना पड़ा। गौरतलब है कि यूनियन कार्बाइड के कीटनाशक कारखाने के मुकाबले काफी ज्यादा मात्रा में एवं काफी ज्यादा खतरनाक जहरीले व प्रदूषणकारी तत्व एक अणुबिजली कारखाने में पैदा होते हैं। दो, कुछ समय पहले दिल्ली के कबाड़ बाजार में दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला की एक पुरानी कोबाल्ट मशीन मिलने से काफी खलबली मची थी। यह विद्यार्थियों के प्रयोग के लिए मात्र एक छोटी सी मशीन थी। अणुबिजली के एक-एक कारखाने में इससे हजारों-लाखों गुना जहरीला लाखों टन कबाड़ पैदा हो रहा है। यह कहां जाएगा और इसका क्या होगा?

बात साफ है। अणु बिजली के रुप में हम ऐसे भस्मासुर तैयार करते जा रहे हैं, जो स्वयं हमें खतम करने के लिए तैयार है। ये ऐसे भस्मासुर हैं जिनकी भस्म भी हमारे और हमारी आने वाली पीढि़यों के लिए जहरीला विकिरण छोड़ती रहेगी। आधुनिक विकास और प्रगति के नाम पर ऐसे कई भस्मासुर तैयार हो रहे हैं और पाले जा रहे हैं, जो विनाश का तांडव मचाने के लिए तत्पर हैं। रासायनिक खेती, जीन-मिश्रण की जैव टकनॉलॉजी, आधुनिक पशु फार्म, बड़े बांध, बड़े कारखानों पर आधारित औद्योगीकरण, शहरीकरण आदि इसी तरह के प्रत्यक्ष या परोक्ष भस्मासुर हैं।

इनके विनाशकारी नतीजे लगातार सामने आने के बावजूद इनकी आत्मघाती राह पर मानव समाज आगे बढ़ रहा है तो उसके दो कारण हैं। एक तो इनको आगे आगे बढ़ाने में साम्राज्यवादी देशों, कंपनियों, नेताओं, अफसरों व तकनीकशाहों के नीहित स्वार्थ हैं। मानव समाज का हित और भविष्य इनके मुनाफों, कानूनी-गैरकानूनी कमाई और अहंकार के सामने बौने पड़ जाते हैं। जैसे भारत में ही परमाणु बिजली के नए महत्वाकांक्षी कार्यक्रम के पीछे अमरीकी, फ्रांसीसी व रुसी कंपनियों के स्वार्थ हैं, जिनका धंधा थ्री माईल आईलैण्ड तथा चेर्नोबिल की दुर्घटनाओं के बाद मंदा पड़ गया था। कोई अचरज नहीं होगा यदि भारत-अमरीकी परमाणु करार पर विश्वास मत के दौरान सांसदों को खरीदने के लिए करोड़ों-अरबों रुपयों के जिस लेनदेन की बात बार बार उजागर हो रही है, उसके लिए धनराशि इन्हीं कंपनियों ने मुहैया कराई हो।

दूसरा, इनको आधुनिक सभ्यता व संस्कृति के उस दंभ से भी बल मिलता है जिसमें यह माना गया है कि प्रकृति मनुष्य की दासी है, जिसे वह विज्ञान व टकनॉलॉजी के दम पर चाहे जैसा रौंद सकता है, लूट सकता है और उसके साथ बलात्कार कर सकता है। प्रकृति भी अपना बदला ले सकती है, यह भुला दिया गया। इसी के साथ यह भी मान लिया गया कि आधुनिक सभ्यता द्वारा विकसित हर टकनॉलॉजी श्रेष्ठ तथा अपनाने लायक है और प्रगति की निशानी है। आधुनिक टकनॉलॉजी के प्रति अंधविश्वास की हद तक भक्ति इसमें दिखाई देती है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु भी इसके शिकार थे, जिन्होंने इसी के अनुरुप इन भस्मासुरों को ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ की उपमा दी। मंदिरों के भगवान की तरह आधुनिक टकनॉलॉजी एवं विकास को प्रतिष्ठित कर दिया गया और विवेक या तर्क को छोड़कर उसकी पूजा होने लगी। टकनॉलॉजी की यह अंधभक्ति इतनी प्रबल रुप में पढ़े-लिखे बौद्धिक समुदाय में छाई है कि इस पर सवाल उठाने वालों को कई बार अवैज्ञानिक, दकियानूसी, पीछे देखू व प्रगति विरोधी करार दिया जाता है।

किन्तु प्रोफेसर साहब ने एक वाजिब सवाल उठाया है, जिसका जवाब मिलना चाहिए। वह यह कि आखिर हमें बिजली तो चाहिए। कोयला, प्राकृतिक गैस, डीजल, नेप्था, परमाणु उर्जा या बड़े बांध - किसी से भी बिजली बनाएं तो समस्याएं पैदा होती हैं और फिर उनका विरोध होने लगता है। यह बिल्कुल सही है। इसका जवाब दो हिस्सों में है। एक तो यह कि उर्जा के अन्य वैकल्पिक स्त्रोतों का विकास करना जरुरी है। अभी तक साम्राज्यवादी देशों को पूरी दुनिया से कोयला, तेल, गैस व अन्य प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने तथा प्रदूषण एवं पर्यावरण-विनाश करने की सुविधा इतनी आसानी से मिलती रही कि वैकल्पिक उर्जा के विकास व अनुसंधान पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। भारत जैसे देश भी उन्हीं की नकल करते रहे। बायोगैस आदि के नए स्त्रोतों का भी विकास करना होगा और पशु उर्जा, मानव उर्जा, गुरुत्वाकर्षण, वनस्पति आदि के उन पारंपरिक स्त्रोतों को भी फिर से प्रतिष्ठित करना होगा, जिनको पिछड़ा व अकुशल मानकर तिरस्कृत कर दिया गया था। दूसरी बात यह है कि यदि बिजली पैदा करने में इतनी समस्याएं दिखाई दे रही हैं, तो इसके अंधाधुंध उपयोग को भी नियंत्रित करना होगा। खास तौर पर अमीरों द्वारा बिजली व उर्जा के विलासितापूर्ण उपयोग व फिजूलखर्च पर बंदिशें लगानी पड़ेगी। इसके लिए आधुनिक जीवन शैली और भोगवाद को भी छोड़ने की तैयारी करनी होगी।

आधुनिक टकनॉलॉजी, आधुनिक जीवनशैली, उपभोक्ता संस्कृति, कार्पोरेट मुनाफे, वैश्विक गैरबराबरी, साम्राज्यवाद, पर्यावरण संकट - इन सबका आपस में गहरा संबंध है और ये मिलकर आधुनिक औद्योगिक सभ्यता को परिभाषित करते हैं। इनके विकल्पों पर आधारित एक नई सभ्यता के निर्माण से ही मानवता को और पृथ्वी को बचाया जा सकता है तथा एक बेहतर व सुंदर दुनिया को गढ़ा जा सकता है।

जापान की त्रासदी का यही सबक है।
 

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